अमावस की जंजीर में जकड़ी पूर्णिमा

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काली घाट की सीढ़ीयों पर पूर्णिमा देवी

पति बाराबंकी (यूपी) के नामचीन फिजिशियन रहे डाॅक्टर स्व एचपी दिवाकर। बेटी टीवी और भोजपुरी फिल्मों की अदाकारा। खुद भी कभी केंद्र सरकार से सम्बद्ध संस्था नाट्य श्री में बतौर मुख्य गायिका लंबे समय तक गायन का गौरव। इतना सब होने के बावजूद पूर्णिमा देवी के जीवन की ‘अमावस्या’ खत्म नहीं हो रही। दरभंगा हाऊस के निकट, गंगा किनारे, कालीघाट की सीढ़ियां। यहीं उनकी रोजी-रोटी है। यहीं उनका घर। हां, परिवार के नाम पर एक बेटा जरूर है लेकिन वह भी बीमार और विक्षिप्त। कालीघाट की सीढ़ियों पर पूर्णिमा देवी की सुरीली आवाज और हारमोनियम पर कांपती अंगुलियों की जुगलबंदी ऐसा समां बनाती हैं कि हर आने-जाने वाला वहां बरबस ठहर ही जाता है। गायन से खुश होकर जिसने जो दे दिया उसी से वे अपना और बेटे का पेट भर लेती हैं।
पूर्णिमा देवी का जीवन भी कभी खुशियों और उमंगों से भरपूर था। कहानी शुरू होती है दार्जलिंग स्थित मशहूर महाकाल मंदिर से। यहां के मुख्य पुजारी हरिप्रसाद शर्मा के घर में साल 1945 में अक्टूबर माह में पूर्णिमा के दिन एक बेटी ने जन्म लिया। जाहिर है जन्मतिथि के अनुरूप उन्होंने उसे पूर्णिमा पुकारना शुरू कर दिया। पूजा-पाठ के माहौल में बचपन से ही पूर्णिमा का रूझान गीत-संगीत की ओर हो गया। उनकी संगीत साधना में पड़ोस में रहने वाले बंगाली दादा का बड़ा योगदान है, जिन्होंने पूर्णिमा को संगीत की बारीकियां सिखाईं और सुरों की तालीम दी। इंटर तक की पढ़ाई के बाद पूर्णिमा ने लोकगायन को अपना कैरियर बनाना तय कर लिया। इसी बीच 1974 में बाराबंकी निवासी फिजिशियन डा. एचपी दिवाकर से उनकी शादी हो गई और पूर्णिमा बाराबंकी चली आयीं। शादी के बाद दस वर्ष तो मजे में गुजरे। इस दौरान पूर्णिमा को एक बेटी और एक बेटा पैदा हुए।

गर्दिश के बादलों की काली छाया

पूर्णिमा के जीवन पर अमावस की काली छाया तब पड़ी जब 1984 में जमीन विवाद को लेकर उनके डाक्टर पति की हत्या कर दी गयी। इसके बाद ससुर और देवर ने बंटवारे के प्रश्न पर उन्हें प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। नतीजतन पूर्णिमा को अपने दो बच्चों के साथ बाराबंकी छोड़ना पड़ गया। सहारा मिला पटना में रहने वाली मौसी का और वे यहां चली आयीं। लेकिन बदकिस्मती ने पीछा नहीं छोड़ा और कुछ ही वर्षों में मौसी भी चल बसी। पटना में अब उन्होंने अपनी संगीत विद्या को ही संघर्ष का हथियार बना लिया। शुरू में यहां के स्कूलों में संगीत का क्लास लेने लगीं। फिर स्टेज शो भी करना शुरू कर दिया। इस दौरान वे केंद्र सरकार के कला संस्कृति विभाग में रजिस्टर्ड नाट्य संस्था नाट्य श्री से जुड़ गयीं। पूर्णिमा के गायन से प्रभावित होकर नाट्य श्री के कर्ता-धर्ता आर.एन. स्वामी ने उन्हें संस्था की मुख्य गायिका बना दिया। गंगा सफाई अभियान को लेकर बने डी.डी.1 के कार्यक्रम में भी उन्होंने गायन किया। इस प्रकार 2002 तक उनकी गाड़ी किसी तरह चलती रही। तभी अचानक दो घटनाएं ऐसी हुईं जिन्होंने उन्हें तोड़कर रख दिया।

swatva

संतान ने भी दिया धोखा

कहते हैं खुद का दुख इंसान हंसते-रोते झेल लेता है। लेकिन संतान का दुख उसकी अंतर्मात्मा तक को जीवन भर का ‘टीस’ दे जाता है। रोजी-रोटी में हाथ बंटाने वाला बेटा एक लड़की से प्यार में धोखा खाकर मानसिक संतुलन खो बैठा। जिस उम्र में मां-बाप संतान से सहारे की आस रखते हैं, उसी उम्र में पूर्णिमा देवी पर ताउम्र बेटे का पेट भरने की जिम्मेवारी आन पड़ी। उधर बेटी जो इंटर की पढ़ाई के साथ-साथ क्लासिकल डांस और नाट्य में पारंगत हो चली थी, उसे भी जमाने की नजर लग गयी। कच्ची उम्र में कदम बहकते देर नहीं लगती। डांस क्लास में आते-जाते किसी ने कैरियर को लेकर उसकी महत्वाकांक्षा को ऐसा बहकाया कि वह एक दिन अपनी बेसहारा मां और विक्षिप्त भाई को छोड़कर मुंबई चली गयी। हिरोइन बनने। उसे आज भी छोटे-मोटे रोल करते सिरियलों में और भोजपुरी फिल्मों में देखा जा सकता है। बकौल पूर्णिमा देवी हाल में उन्होंने उसे पड़ोसी देश के नाम वाली एक भोजपुरी फिल्म में ‘गुजन’ का किरदार निभाते देखा था। खैर, बेटी हिरोइन तो बन गई लेकिन जब मां के दूध का कर्ज उतारने की बारी आई तो उसने मां और भाई की तरफ से साफ मुंह फेर लिया। बताते हैं कि जब एक जानने वाला मुंबई में अपनी पहचान छिपा कर रह रही पूर्णिमा की बेटी से मिला तो उसने पूर्णिमा देवी के अपनी मां होने से ही इनकार कर दिया।

मानो तो मैं गंगा मां हूं…

बाॅलीवुड पर सिरे से खफा पूर्णिमा देवी बताती हैं कि ग्लैमर की वह दुनिया छल-कपट से भरी है। उनके पति डाक्टर एचपी दिवाकर चिकित्सक होने के साथ-साथ लिखते भी अच्छा थे। वे अक्सर निर्माताओं और संगीतकारों को अपने लिखे गाने भेजा करते थे। बाॅलिवुड में उनके लिखे कुछ गीत-‘रात अभी बाकी है, बात अभी बाकी है…’ और ‘शाम हुई सिंदुरी…’ इस्तेमाल भी हुए। लेकिन किसी और गीतकार के नाम से। और अब उनकी मासूम बेटी बाॅलीवुड की चकाचैंध में कहीं गुम हो गई। इन सबने उनके मन में सिने-संसार के प्रति नकारात्मकता भर दी।
बहरहाल, पूर्णिमा देवी जीवन के ‘अमावस’ से लड़ाई में आज भी थकी नहीं हैं। मलाल है तो सिर्फ इतना कि सरकार के लोग और स्वयंसेवी लोग उनसे सहानुभूति तो जरूर जताते हैं, फोटो भी खिंचवाते हैं, घोषणाएं भी करते हैं, लेकिन जब बात वास्तविक मदद की आती है तो सब झूठ ही होता है। अभी गंगा को निर्मल करने, उसे गादमुक्त बनाने की काफी बातें हो रही हैं। इसी क्रम में कुछ स्थानीय एनजीओ वालों ने कालीघाट की पूर्णिमा देवी का इस्तेमाल अपने अभियान को प्रदर्शित-प्रचारित करने में भी किया। बदले में उन्हें कुछ रुपए दे दिए। 73 की उम्र में भी गुजारे के लिए जद्दोजहद कर रही पूर्णिमा देवी के लिए ऐसे मौके समस्या का स्थायी हल तो नहीं है। औलाद की तरफ से हताश, समाज-सरकार की बेरुखी से निराश पूर्णिमा देवी ने गंगा को ही अपना सबकुछ मान लिया है-‘सदानीरा गंगा की निरंतरता मुझे प्रेरणा देती है कि संसार पथ में तुम ऐसी ही निरंतरता से बहते जाओ, तमाम गंदगियों पापों को समेटे हुए। जिंदगी के थपेड़ों से न डिगो, कर्मपथ पर बढ़ते जाओ’। मुंह मोड़ लेने वाले गुमनाम परिजनों और समाज से भी वे अपने ही अंदाज में खुद का पक्ष रखती हैं जब हारमोनियम संभालते हुए गाने लगती हैं-‘मानो तो मैं गांगा मां हूं़़…। ना मानो तो बहता पानी…।

 

 

 

 

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