नवाबों की बिलगरामी, बेटियों का कलेवा

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बिहार यूं तो पिछड़ा राज्य है लेकिन सांस्कृतिक विरासत के मामले में इसका हर अंदाज खास और अनोखा है। आज हम बात करेंगे बिहारी जायके की, और उसमें भी बेहद खास कोआथ के ‘बिलगरामी’ मिठाई की जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में ‘बेलगरामी’ कहते हैं। बिलगरामी को लोग शेरशाह सूरी से जोड़ते हुए बताते हैं कि वह इस मिठाई का जबरदस्त दिवाना था। तब इसका नाम गाजा हुआ करता था। शेरशाह के बाद मुगलों के काल में बिलगरामी को नवाबों का संरक्षण मिला और उन्होंने इसमें कुछ बदलाव कर एक अलग स्वाद दिया जो आज तक मौजूद है।

कोआथ की खास पहचान

कालक्रम में यह मिठाई नवाबों की हवेली से निकल कर गरीबों की बेटियों के कलेवे की पोटली तक जा पहुंची। धीरे-धीरे इसने बिहारी जनमानस में एक खास परंपरिक व्यंजन की हैसियत ले ली। वैसे तो बिहार मे खान-पान की एक समृद्ध परंपरा रही है। गौ पालन और घर-घर मे दूध, घी की बहुलता के कारण तरह-तरह की मिठाइयां घरों मे बनतीं और रिश्तेदारों के यहां भी भेजी जातीं हैं।

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मध्यकाल में बिहार का रोहतास क्षेत्र कुछ वर्षों के लिए सत्ता का गढ़ रहा था। इसी दौरान इस मिठाई को संरक्षण भी मिला और इसका प्रसार भी हुआ। रोहतास जिले के दावथ थाना अंतर्गत कोआथ में एक जमींदारी ‘बिलगरामी’ मुसलमानों की हुआ करती थी। इन बिलगरामी मुसलमानों की रईसी के चर्चे एक ज़माने मे आम हुआ करते थे। यहां के कुछ दुर्लभ चीनी मिट्टी के बर्तन राष्ट्रीय संग्रहालय में संग्रहित हैं। इनके बावर्चीखाने की चर्चा इलाके मे खूब थी। इनके बावर्चीखाने के हलवाइयों ने शेरशाह सूर की गाजा मिठाई में बदलाव करते हुए मैदे, घी और चीनी के मेल से अपने मालिकों के नाम पर एक मिठाई तैयार की ‘बिलगरामी’। इस मिठाई के बारे में मशहूर था कि ये इतनी खास्ता हुआ करती थीं कि इस मिठाई से भरी तश्तरी पर एक चांदी का सिक्का गिरा दीजिए तो मिठाइयों को तोड़ते हुए सिक्का तले तक पहुंच जाएगा।

महंगाई ने छीनी मौलिकता

अब ज़माना बदल गया। ना वैसी बिलगरामी रही, ना वैसे खाने-पचाने वाले और ना ही वैसे बिलगरामी बनाने वाले। महंगाई ने एक तरह से इस मिठाई की मौलिकता ही छीन ली। घी की जगह रिफाइन्ड तेल का मोयन, तलने के लिए रिफाइन्ड तेल ने इसके स्वाद और अंदाज को बदल दिया। जो बिलगरामी आज भी कोआथ में आॅडर देकर बनवाई जाती है, उसमें वही नवाबी स्वाद निखर कर आता है। अब यह मिठाई पूरे बिहार में थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ बनाई जाती है। लेकिन इसका जो मूल स्वरूप है उसके संरक्षण पर किसी का ध्यान नहीं है। ऐसे में बिलगरामी लुप्त हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।

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