एक एनआरआई की कसक!

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पिछले दिनों अमेरिका में रह रहे एक एनआरआई ने सिवान निवासी अपने एक मित्र को फोन किया। वे खुश थे कि अमेरिका की सरकार ने ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन’ की नीति के कार्यान्वयन को फिलहाल टाल दिया है। अमेरिका की सरकार यदि यह नीति लागू कर देती तो वहां रह रहे करीब सात लाख भारतीयों के समक्ष रोजगार की समस्या आ जाती। अमेरिका की सरकार ने अपने इस निर्णय को किसी पुण्य या पाप की भावना के कारण नहीं बदला है। बल्कि इसकी ठोस वजह है। अमेरिकी सांसदों के दबाव के कारण वहां की सरकार को अपना निर्णय बदलने के लिए बाध्य होना पड़ा था। दरअसल, अमेरिका मंे आईटी कंपनियों ने सांसदों से संपर्क कर उन्हें अपनी समस्या से अवगत कराया कि यदि सात लाख भारतीय आईटी विशेषज्ञ एक साथ अमेरिका छोड़ देंगे तो उनके आईटी उद्योग को बहुत बड़ा झटका लगेगा। इसका असर अमेरिका की अर्थव्यवस्था और दूसरे मामलों पर भी पड़ेगा। अमेरिका के सांसदों ने राष्ट्रपति तक के समझ यह बात पहुंचायी कि इस नीति को लागू करने से सात लाख भारतीयों को अमेरिका छोड़ना पड़ेगा। इसमें अधिकांश आईटी विशेषज्ञ हंै। इससे अमेरिका के आईटी क्षेत्र में बड़ा नुकसान हो जाएगा। साथ ही भारत से संबंध बिगड़ेगा जिससे अमेरिका को अलग से नुकसान होगा। अमेरिका से आयी इस खबर पर हर भारतीय गर्व कर सकता है।

घर की मुर्गी दाल बराबर

लेकिन, इसका दूसरा पक्ष भी है जिस पर गौर करना चाहिए। यहां प्रश्न उठता है-आखिर उन सात लाख भारतीयों को भारत में ही काम क्यों नहीं दिया जा सका? उन्हें स्वदेश क्यों छोड़ना पड़ा ? इस प्रश्न का एक जवाब हो सकता है कि हमारी सरकार के पास उतने पैसे नहीं है कि वह आईटी कंपनी खोले और लोगों को काम दे। एक जवाब यह भी हो सकता है कि पैसे की कमी के कारण हमारे देश में इस प्रकार की कंपनियां नहीं हैं। हमारे देश में सार्वजनिक संसाधनों के लूट की अनेक कहानियां हैं। घोटालों-महाघोटालों से गायब भारत सरकार के लाखों करोड़ रुपए हवाला के माध्यम से विदेश भेजे जाते रहे हैं। एनपीए के माध्यम से भी लूट होती रही है। अपने देश के संसाधन का बेहतर प्रबंधन हो तो यहां भी शोध और विकास की संभावनाएं बनेंगी।
यहां भारत और बिहार में बहुत से लोगों की धारणा है कि अपने देश के आईआईटी जैसे संस्थानों में अध्ययन कर बाहर गए लोग देशप्रेमी नहीं हैं। वे विदेशों में अत्यंत आलीशान व सुखमय जीवन चाहते हैं। लेकिन सच ऐसा नहीं है। बाहर जाने वाले मेधावी लोगों में से बहुत कम लोग ही ऐसे होते हैं जिन्हें अपने देश से लगाव नहीं होता। एनआरआई के बीच हुए एक सर्वे की रिपोर्ट सच बयां करती है कि विदेशों में काम करने वाले भारतीयों को स्वदेश की बहुत याद सताती है। बहुत ऐसे भी हैं जो कुछ कम पैसे पर भी अपने देश में काम करना चाहते हैं। बहुत बार पक्षपात के कारण हमारे देश की प्रतिभा विदेश चले जाने को मजबूर हो जाती है। यहां एक घटना का जिक्र समीचीन है। डा.चितरंजन राणावत न्यूयार्क में रहते हैं। वहां उनकी गिनती एक बड़े शल्य चिकित्सक के रूप में होती है। उन्होंने भारत के बड़े राजनेताओं का उपचार किया है। डा.राणावत आखिर भारत छोड़कर अमेरिका में क्यों बस गये थे ? नई दिल्ली स्थित एम्स ने नौकरी के उनके आवेदन को रिजेक्ट कर दिया था। एक प्रतिभाशाली चिकित्सक के नौकरी के आवेदन को रिजेक्ट किया जाना उस प्रवृति की ओर इंगित करता है जो प्रतिभा पलायन का एक बड़ा कारण है। यही हाल उद्योग का भी है। अमेरिका में रहने वाले एक उद्यागपति ने बड़े भारी मन से कहा था कि वह बिहार में कुछ करना चाहते हैं। लेकिन वहां के सरकारी कार्यालयों की जो संस्कृति अब भी कायम है, उसमें हिम्मत नहीं होती।

swatva

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