प्रशांत रंजन: सिनेमा अगर संचार का सबसे प्रभावी माध्यम है, तो इसका उपयोग भी सार्थक कार्यों में होना चाहिए। अत्यंत निपुण निर्देशक राजकुमार हिरानी मुन्नाभाई सीरीज से आरंभ कर थ्री इडियट्स व पीके तक मनोंरजन से भरपूर उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाईं है। लेकिन, संजय दत्त की बायोपिक ’संजू’ देखकर थोड़ा-बहुत मनोरंजन तो हुआ, साथ ही यह भी पता चला कि इस फिल्म के माध्यम से हिरानी का उद्देश्य दर्शकों को कोई सीख देना नहीं, बल्कि उनके अभिनेता मित्र संजय दत्त के जीवन में घटी नाकारात्मक घटनाओं के पीछे का ’सच’ से रू-ब-रू कराना है। संजय दत्त के फिल्मी करिअर के आरंभ से लेकर अवैध हथियार रखने के आरोप में उनके जेल से बाहर आने तक का वह सच जो मीडिया, पुलिस व जनता ने अब तक ’ठीक से’ नहीं समझा था। संजय और राजू में अगर मित्रता नहीं होती, तो ’संजू’ कभी नहीं बनती। इस फिल्म को गुणी फिल्मकार हिरानी ने नहीं, बल्कि वफादार दोस्त हिरानी ने बनाया है। संजय दत्त की छवि पर जीम धूल को साफ करने में रही सही कसर ’कर हर मैदान फतेह…’ ने पूरी कर दी। सुखविंदर सिंह के उर्जित आवाज में इस गाने का फिल्मांकन ऐसा है कि देखने पर संजय दत्त की छवि एक योद्धा की तरह प्रतीत होती है।
फिल्म ’संजू’ में मनोरंजन के सारे मसाले जोड़े गए हैं। लेकिन, कायदे से देखें, तो यह बायोपिक के मानदंडों को पूरा नहीं करती है। भारत में ही हाल में बने बायोपिक पर नजर डालें। ’सरदार’ ’भाग मिल्खा भाग’, ’पान सिंह तोमर’ व ’मैरी काॅम’ सही मायने में बायोपिक हैं। ये फिल्में सरदार वल्लभभाई पटेल, मिल्खा सिंह, पान सिंह व मैरी काॅम के संपूर्ण जीवन को महत्वपूर्ण घटनाओं के माध्यम से दिखातीं हैं। इसके बाद ’नीरजा’ व ’दंगल’ भी हैं, जो व्यक्ति के पूरे को नहीं, बल्कि उनके महत्वपूर्ण हिस्से को ही फोकस किया है। नीरज पांडेय की ’एमएस धोनीः दी अनटोल्ड सटोरी’ भी इसी कड़ी का हिस्सा है। अब यह तो फिल्मकार की आत्मा ही जानती होगी कि इन फिल्मों में जिनकी कहानी दिखाई गई, वे उनके असल जीवन के कितना करीब हैं। ’संजू’ ने इन सबको बायपास कर गई। कैसे? आइए देखते हैं।
’संजू’ में संजय दत्त के जीवन के उन्हीं चंद घटनाओं को दिखाया गया, जिनके कारण वे विवादों में रहे व उन्हें जेल हुई। अभिनेता संजय दत्त को अवैध हथियार मामले में न्यायालय द्वारा सजा सुनाए जाने वाले दृश्य से फिल्म आरंभ होती है। फिर उनके शुरुआती दौर में नशे की लत व लड़कियों से संबंध को दिखाया गया और उसके बाद 1993 के मुंबई बम विस्फोट केस में ’भोले-भाले’ संजू बाबा को जेल जाना पड़ा। अंत में जेल से रिहाई और फिल्म खत्म। संजय दत्त के पूरे जीवन को फिल्माया नहीं गया, बल्कि हिरानी ने फिल्म में संजू बाबा के शराफत की सिफारिश की है। विन्नी डाएज़ (अनुष्का शर्मा) का किरदार ऐसा है, मानो वह स्वयं हिरानी ने खुद को फिल्म में रोपित किया हो।
चुंकि निर्देशक राजू हिरानी हैं, इसलिए फिल्मांकन रोचक है। दृश्य उबाऊ नहीं लगते। हिरानी की एक विशिष्ट शैली है। समुद्र के ज्वार-भाटे की तरह वे दृश्यों को क्रमबद्ध (जक्सटापोज) करते हैं। एक हास्य दृश्य के बाद अचानक गंभीर पाश्र्व ध्वनि के साथ भारी दृश्य। फिर से एक चटकीला फ्रेम। इससे पौने तीन घंटे लंबाई के बावजूद फिल्म नीरस नहीं लगती। यह पटकथा के थ्री-एक्ट ढांचे से अलग है। कालक्रम आगे-पीछे होते रहते हैं। अभिजात जोशी व हिरानी मिलकर ऐसी पटकथा लिखते हैं।
फिल्म में देखने लायक सबसे अच्छी चीज है रणबीर कपूर का अभिनय। थोड़ी ओवर एक्टिंग को जाने दें, तो रणबीर ने संजय दत्त के हाव-भाव, संवाद अदायगी व चाल-ढाल को बखूबी पर्दे पर उतारा है। ’संजू’ की सफलता रणबीर के करिअर के लिए आॅक्सीजन साबित हुई है, क्योंकि पांच साल पहले आई ’ये जवानी है दीवानी’ के बाद उन्होंने कोई सुपरहिट फिल्म का मुंह नहीं देखा था। दत्त सीनियर (सुनील दत्त) के किरदार में परेश रावल सहज हैं। रणबीर की तरह उन्होंने ओवर एक्टिंग की कोशिश नहीं की, बल्कि अपने अनुभव व प्रतिभा का बुद्धिमानी से उपयोग किया। इन दोनों के बाद प्रतिभावान अभिनेता विक्की कौशल की तरीफ होनी चाहिए, जिन्होंने संजय के दोस्त कमलेश का किरदार निभाया है। मनीषा कोइराला लंबे समय बाद नजर आईं। नरगिस दत्त के किरदार को निभाने में उनकी ईमानदारी दिखती है। बाकी अनुष्का शर्मा, सोनम कपूर व दीया मिर्जा का काम खानापूर्ति वाला है।
फिल्म में कई बार एक स्थापना दी जाती है कि मीडिया ने संजू बाबा से जुड़ी घटनाओं को बेवहज बढ़ा-चढ़ाकर व मिर्च-मसाला लगाकर पेश किया, जिससे जनमानस में उनकी छवि खराब हो गई। फिल्म का एक अंत गाने से होता है। इसे संजय दत्त (असली) व संजू (रणबीर कपूर) दोनों पर फिल्माया गया है। लोकेशन ऐसा है जिसमें कमरे की छत व दीवार अखबार के वालपेपर से पटे हैं। यहां तक की फर्श भी। अखबार पर जूते पहनकर दोनों कलाकर नाच रहे हैं। गाने के बोल- ’’बाबा बोलता है अब बस हो गया…’’ और लोकेशन को मिला दीजिए, तो आसानी से पता चल जाएगा कि संजू बाबा को देश की मीडिया से कितनी नाराजगी है। …तो क्या संजय दत्त मीडिया से तौबा करना चाहते हैं? सोचिए।
कुल मिलाकर ’संजू’ संजय दत्त के विवादित जीवन की एक भावनात्मक जुगाली है। दत्त के कड़वे अतीत पर यह फिल्म मीठी थपकी की तरह है।