‘लक्ष्मण रेखा’ की कसम : संदेह के साए में हिलन-मिलन गवारा नहीं
‘रहिमन विपदा हू भली, जो थोड़े दिन होय।’ शाम ढलने को है। सब बंद। कुछ आते-जाते लोग एक-दूसरे को देखने को तैयार नहीं। हालाँकि एक तबका इससे महफूज। पराया-पराया। चौक-चौराहों पर बैरिकेडिंग के साथ पुलिस की तैनाती। ये उनपर है कि किसे रोकना-टोकना और जाने देना। कंकड़बाग में शालीमार के पास बंबू बैरियर है। शाम 6.30 के बाद टोकना शुरू।
एग्जीबिशन रोड समेत सभी चौरोहों पर ऐसा ही है। बिल्कुल खाली गांधी मैदान। आश्चर्य! स्थिति की गंभीरता प्रतीत कराने को काफी है। छह बजते दलदली की इक्का-दुक्का दुकानों को बंद कराने मोटरसाइकिल गश्त वाले जवान इत्तला कर गए। सहमे दुकानदार ग्राहकों को जल्दी-जल्दी निबटाने लगे। करगिल चौराहा भी संगीनों के साए में। रोको-टोको। निर्बाध कहीं कुछ नहीं। अँधेरा पसरने लगा। अजीब! ऐसा तो नहीं था पटना। अचानक क्या हो गया? कोरोना! आँखें मूंदने से समस्या ख़त्म नहीं होगी। जूझना ही होगा।
इस उदासी को कम कर रहा पटना संग्रहालय। रंग-बिरंगी रोशनी से नहा रहा। क्षण-क्षण बदलते रंग सुकून वाले थे। हालांकि बिहार म्यूजियम के परिसर मद्धिम भाव से किसी तरह अपने को प्रकाशित कर पा रहा। दूधिया प्रकाश बिखेरता पटना उच्च न्यायालय अपने होने का एहसास करा रहा। अमूमन सुंदर और सुहावन फलों का रसदार एहसास कराने वाला आयकर गोलंबर नीरस-उदास है। सटे विद्युत भवन की दीवारों की पेंटिंग्स अपनी ओर खींचती हैं। पड़ोस का नियोजन भवन अपने को ही रोशन कर पा रहा था। गोलंबर के आसपास रोशनी की कमी। डाकबंगले की चहल-पहल कहां गायब हो गई। अँधेरा मिश्रित सन्नाटा। बिना रुके गुजर जाइए। पटना जंक्शन छावनी में तब्दील। उधर कोई जाने की सोच भी नहीं रहा। जहाँ आदमियों का सैलाब उमड़ता रहता था। महावीर मंदिर का पट बंद। बाहर से भी दर्शन दुर्लभ। विपदा झलक रही थी। हाल में ही बाढ़ की आपदा से उबरे हैं।
किसी के घर भी जाना मुश्किल। पता नहीं, कौन अंदर आने से मना कर दे। दूरी बनाए रखें। इस मामले में कंकड़बाग पंचशिव और साईं कृपा मंदिरों में बाहर से दर्शन सुलभ हैं। थोड़ी शांत्वना मिलती है। शाम सात बजते सन्नाटा घनघोर होने लगता। जबकि, दस बजे रात जवां ही होती थी। संदेह के साए में हिलन-मिलन गवारा नहीं। प्रज्ञावान लक्ष्मण रेखा नहीं लांघना चाहते। सही है। छाछ फूंक-फूंक कर पी रहे।