यादों का एक लम्बा सिलसिला है। कभी ये यादें धूमिल हो जाती हैं, तो कभी अकस्मात जैसे सब कुछ स्मरण आने लगता है। मेरी चारों ओर पूज्य दिनकर जी की स्मृतियां बिखरी हुई हैं। मैं धन्य हूं दिनकर जी का पौत्र होकर। जब कभी अपनी निज की तुच्छताएं मुझे घेरती हैं, सहसा यह बोध मुझे ऊर्जा देता है। गौरवान्वित करता है कि मैं दिनकर पौत्र हूं।
मेरे पितामह यानी दिनकर जी के पिता का नाम बाबू रवि सिंह था। कई बार ऐसे विवरण आ जाते हैं कि दिनकर जी निर्धन परिवार में उत्पन्न हुए। यह बात सही नहीं हैं, दिनकर जी का जन्म एक अच्छे सामान्य गृहस्थ परिवार में हुआ था। कुरुक्षेत्र की पंक्ति है –
शांति नहीं तब तक जब तब सुखभाग न नर का सम हो
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो
यह दिनकर जी के काव्य का सूत्र वाक्य है। हालांकि दिनकर जी का संपूर्ण काव्य व्यक्तित्व बहुत ही बहुआयामी है। तो आखिर इस सूत्र वाक्य का उत्स, उसका स्त्रोत कहां है, जो दिनकर जी को महान सर्जक बनाता है। दो छोटी-छोटी धटनाएं हैं। एक दिनकर जी के पिता से संबंधित और दूसरी उनकी माता से।
एक दिन दिनकर जी के पिता जी यूं ही अपने खेत की ओर निकले। वे उस स्थानों को देख रहे थे, जो उनके खेत, खलिहान, बाग बगीचे थे। सहसा उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति पेड़ पर चढ़ा है और आम तोड़ कर झोले में रख रहा है। किन्तु उन्होंने उसे कुछ भी नहीं कहा, बल्कि आम तोड़ने में उसकी मदद करने लगे। वह व्यक्ति सोच रहा होगा कि शायद यह भी मेरी ही तरह कोई है। बाबू रवि सिंह उससे बोल- जल्दी-जल्दी तोड़ लो वरना बाग का मालिक आ जायेगा तो पकड़ लेगा, दंड देगा। उन्होंने इसका तनिक भी आभास नहीं होने दिया कि वे स्वयं ही इस जमीन के मालिक हैं। इस तरह का दयाद्र और उदारमना चरित्र था उनका। जब लोग दूसरे की चीजें हड़पने पर लगे हों। वस्तु और धन के लिए इतना संघर्ष चल रहा हो, ऐसे में अपने पूर्वज के इस दृष्टांत से मुझे बहुत तोष होता है।
दूसरी घटना दिनकर जी की मां मनरूप देवी जी की है। उन्हें तो कई बार देखने और उनके साथ रहने का सौभग्य मिला है। छठ में हमलोग सपरिवार गांव जाते थे और बाबा की मां, जिन्हें हमारी पीढ़ी के लोग ‘बुढ़िया मामा’ कहते थे। जैसे ही हम लोग उनके पास जाते थे कांपते हुए हाथों से हाथ हिला कर कहतीं – नुनु खइलहो! यानी तुमने कुछ खया या नहीं। बाबा उनको मईयो कहते थे।
एक दिन बुढ़िया मामा घर से निकलकर गली से होकर जा रही थीं। चार-पांच लोग उनके साथ थे। सब लोग बढ़ रहे थे। सहसा ही उन्होंने देखा कि रास्ते में कुछ पत्थर पड़े हैं। उन्होंने उन सभी पत्थरों को उठा कर आंचल में रखा और उसे सड़क किनारे फेंका। और अन्य लोगों की नजर भी गयी होगी पर किसी ने पत्थरों को नहीं हटाया। बाद में उन लोगों ने उन्हें पत्थर उठाते देखा तो वे भी उठाने लगे।
ऐसे माता-पिता के पुत्र थे दिनकर। घर में अपसी सौहार्द था। घर का संपूर्ण वातावरण भक्तिमय था। घर में रोज दिनकर जी और उनके दोनों भाई रामचरित मानस का पाठ करते थे। शायद बीसवीं शताब्दी में तुलसीदास होते तो थोड़े कुछ दिनकर के तौर पर अभिव्यक्त होते। अब अवधी और ब्रजभाषा में तो कविताएं कम ही लिखी जा रही हैं। देश में परतंत्रता के समय तो ऐसी ही पंक्तियों के लिखना ध्येय हो सकता है।
जीवन उसका नहीं युधिष्ठिर
जो उससे डरता है
यह उसका जो चरण रोप
निर्भय होकर लड़ता है।
विजय संदेश, रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी, से होती हुई ‘हारे को हरिनाम’ तक की दिनकर जी की काव्य यात्रा में कई पूर्ववर्ती महान कवियों का आभास होता है। यथा, तुलसीदास, व्यास, भूषण, विद्यापति आदि। दिनकर इस काव्य धारा की काव्य श्रोतसिनी के आज के प्रतिनिधि लक्षित होते हैं।
जब किशोर या युवक थे, तो अध्ययन का तो शौक था ही। उपनी शिखा (टिक्की) को रस्सी से दरवाजे की छिटकली से बांध देते। जब भी नींद की छपकी आती और सिर नीचे की ओर जाता तो फिर उठ जाते और पढ़ने लगते। ऐसे निष्ठावान विद्यार्थी थे।
अभी यह सौभाग्य है कि सिमरिया की पुण्य भूमि पर मोरारी बापू जी की नौ दिवसीय राम कथा दिनकर जी की स्मृति में हो रही है। बापू ने पहले दिन ही उन्हें आदि कवि की शंृखला में जोड़कर देखा और कहा कि दिनकर जी मेरी दृष्टि में बलवंत कवि, शीलवंत कवि और कलावंत कवि हैं। ऐसे कवि जो बल, ओज, शौर्य के पर्याय हों, और जिनकों पढ़कर बल मिले।
दूसरे शीलवंत कवि। दिनकर जी की कविताएं अत्यंत लोकप्रिय होते हुए भी छंदबद्ध और शास्त्रीय हैं, और उनके काव्य में हर जगह शील यानी मर्यादा है। तथा तीसरा कलातंत्र कवि- जिस कवि की कविताओं में अपना विजन और दृष्टि हो तथा जिसमें भविष्य की संभावनाएं भी अभिव्यक्त होती हों।
दूसरे दिन की कथा में बापू ने उन्हें कुंभ कहा। दिनकर और उनका काव्य तथा साहित्य कुंभ है, जिसमें संपूर्ण जगत के विचारों का दिग्दर्शन होते हैं। सभी विचारों का समन्वय उसमें दिखता है। बापू ने कहा कि दिनकर जी कविताओं में माक्र्स हंै, किन्तु अंतिम दिनों तक आते-आते वे विशुद्ध गांधीवादी हो गए।
तीसरे दिन की कथा में भी बापू ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा- नयन, आंख, चक्षु चार प्रकार के होते हैं- गो नेत्र, मृगनयन, शिशु आंखें और कमलनयन। प्रत्येक कवि अपनी आंखों से एक नायक को खोजता है, जैसे आदि कवि वाल्मीकि के चरित्र श्रीराम हैं तो ऐसे ही दिनकर की खोज कर्ण।
इस मौके पर सुबह राम कथा होती है। और शाम में साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम। शायद यह सिमरिया की पुण्यभूमि का प्रभाव है कि वहां दिनकर अवतरित होते हैं और दिनकर की स्मृति में यह भव्य आयोजन हो रहा है।
हे जन्मभूमि! शत बार धन्य!
तुझसा न ‘सिमरिया घाट’ अन्य
तेरे खेतों की छवि महान,
अनिमंत्रित आ उर में अजान
भावुकता बन लहराती है
फिर उमड़ गीत बन जाती है।
(लेखक – अरविंद कुमार सिंह, राष्ट्रकवि दिनकर के पौत्र है)