पिछले साल से कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते जलसंकट की समस्या पर मीडिया का ध्यान नहीं जा रहा है। लेकिन, इससे समस्या कम नहीं हो जाती। मार्च के बाद जब सर्दियां समाप्त होती हैं और गर्मी की आहट होने लगती है, तो मीडिया में वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) और जलसंकट से संबंधित खबरें आने लगती हैं। इस महीने वैश्विक तपन पर एक रिपोर्ट पढ़ते हुए मुझे दो साल पहले बिहार की भयावह घटना याद आ गई। मुंबई में रहते हुए भी अपने गृहराज्य की खबरें देख लेता हूं। 2019 के जून महीने में दो खबरें थीं। एक चमकी बुखार से बच्चों के मरने की खबर और दूसरी मगध क्षेत्र में गर्मी व लू से दो दिन के अंदर ही दो सौ लोगों के मरने की खबर। अब तक सुनता आया था कि ठंड लगने से हर साल लोग मरते हैं। अब गर्मी से मरने लगे हैं।
खबर यही बनी कि गर्मी ने लोगों की जान ले ली। लेकिन, गौर से सोचने पर हम पाएंगे कि हमारी नादानी व सरकार की लापरवाही के कारण इतने लोग मारे गए। 2020 की गर्मियों में लाॅकडाउन लग जाने के कारण लू का तांडव कम दिखा, क्योंकि लोग घरों से बाहर नहीं निकले। लेकिन, हमेें याद रखना चाहिए कि लाॅकडाउन कोरोना का उपाय हो सकता है, लू का नहीं।
पिछले कुछ वर्षों में विकास व शहरीकरण के नाम पर वृक्षों की अंधाधुन कटाई हुई। सौ साल पुराने पेड़ों को बेरहमी से काटा गया। जलक्षेत्र में इमारत खड़ी की गई। नदी को बर्बाद करने की हद तक बालू उत्खनन किया गया। जब प्रकृति के दोहन की सारी मर्यादाएं पार हो गईं, तो न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। पेड़ काटने का दुष्प्रभाव अत्यधिक गर्मी के रूप में सामने आया। सड़कों पर चलते लोग झुलसकर मरने लगे। एक ही दिन की बारिश में शहर नरक हो जा रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? इस पर विचार करने की आवश्यकता है।
भूमि को अपनी माता समझने वाले भारतीय प्रकृति के शत्रु कैसे हो गए? भोगवादी संस्कृति के पनपने से हम प्रकृति के प्रति संवेदहीन हो गए हैं। प्रकृति और मानव दो नहीं हैं। एक ही पारिस्थितिकी के अंग हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय अपने एकात्म मानववाद के दर्शन में इसी बात को रेखांकित करते हैं। अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका आदि का कई बार भ्रमण करने के बाद मैं यह कह सकता हूं कि यही दर्शन आने वाले समय में ग्लोबल सस्टेनेबल डेवलपमेंट का आधार बनेगा।
हमें फिर से एक ठोस पहल करनी होगी, ताकि लोगों के मन में प्रकृति प्रेम प्रस्फुटित हो। इको-टूरिज्म इस कार्य में सहायक हो सकता है। सरकारी स्तर भी इसके लिए प्रयास हो रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को इको-टूरिज्म से परिचित कराएं, ताकि आने वाला समय प्रकृति से प्रेम करने वाले लोगों का हो। याद रखिए कि कोरोना को तो लाॅकडाउन, टीके व दवा से मात दे देंगे। लेकिन, वैश्विक तपन, पेयजल का अभाव जैसी समस्याएं हमारे सामने मुंह बाए खड़ी रहेंगी। जरा सोचिए।
अजीत ओझा
उद्यमी एवं समाजसेवी