ब्रह्याजी के प्रपौत्र श्री विश्वकर्मा भगवान की पूजा भारतवर्ष में वैदिक काल से होती आ रही है। वास्तु विधान के प्रसंग में इनकी पूजा-अर्चना का विशेष महत्त्व है। सदियों से प्रति वर्ष 17 सितंबर को शुभ मुहूर्त में इनकी पूजा करने का विधान है। इस वर्ष 17 सितम्बर सोमवार के दिन प्रातः 9.30 बजे के पश्चात पूरा दिन बाबा विश्वकर्मा की पूजा का शुभ योग बना रहा है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार सर्वप्रथम स्वर्गलोक की रचना के बाद लंका तथा द्वारिका आदि पुरियों के निर्माण में देवलोक के शिल्पी बाबा विश्वकर्मा का अमूल्य योगदान रहा है। दुर्गासप्तशती के दूसरे अध्याय से पता चलता है कि विश्वकर्मा जी के ही स्वनिर्मित अनेक भूषण एवं फरसा, शस्त्र आदि देवी दुर्गा को प्रदान किए गए।
इनकी पूजा पद्धति में विधिवत् कलश स्थापन के बाद विश्वकर्मा जी की धातुमयी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए। साथ ही वेदी पर विश्वकर्मा बनाकर पंचोपचाट से पूजन करनी चाहिए। गौरी-गणेष नवग्रह आदि से पूजा की जाती है। इसके बाद औजार की पूजाकर हवन करें व पुरोहित को दक्षिणा देकर देव विसर्जन करें। अतः इनकी पूजा अत्यन्त मंगल प्रद है।
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