सतीश राज पुष्करणा: लघुकथा के लब्धप्रतिष्ठ रचनाकार

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Satish Raj Pushkarna

लाहौर से पटना आकर बसे सतीश राज पुष्करणा पिछले 45 साल से लघुकथा लिख रहे हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से लघुकथा सम्मान से सम्मानित पुष्करणा लघुकथा विधा की पहली समीक्षात्मक किताब “लघुकथा: बहस के चौराहे पर” लिख चुके हैं। स्वत्व समाचार डॉट कॉम के लिए अभिलाष दत्त ने उनसे बातचीत की।

1. आपका जन्म लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ, वर्तमान में आप पटना में रह रहे हैं। इस सफ़र के बारे में बताइए।

उत्तर:- मेरे दादा परदादा लाहौर में मॉडर्न टाउन में 51 नंबर की कोठी में रहते थे। मेरे दादा जमींदार थे। उस समय भारत पाकिस्तान एक ही था। पिताजी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में रेलवे इंजीनियर थे। उसके बाद सन 47 में देश आजाद होते ही देश का बंटवारा हो गया। हमारा पूरा परिवार बग्घी पर बैठ कर मामा के साथ अमृतसर चले आए। उसके बाद हम लोग पिताजी के पास सहारनपुर चले गए। वहीं से मैंने मैट्रिक किया। इलाहाबाद के के.पी.इंटर कॉलेज से इंटर पास किया। आगे बी.एस.सी के पढ़ाई के लिए देहरादून के डी.बी.एस कॉलेज में दाखिला लिया। 1964 के जनवरी मेंशादी हो गयी। उसी साल नवंबर में पिता बनने का सुख प्राप्त हुआ।
श्रीमती जी के कहने पर नौकरी की तलाश शुरू की। मामा ने कहा उनके बिज़नेस में हाथ बताऊं। मेरा मन रिश्तेदारी में काम करने का बिल्कुल भी नहीं था। नौकरी की तलाश में पटना चला आया। पटना में यूनाइटेड स्पोर्ट्स वर्क में काम मिला 125 रुपये वेतन पर। छः महीने के बाद वह काम छूट गया। उसके बाद मखनिया में पटना जूनियर स्कूल में गया काम मांगने के लिए , वहाँ से उन्होंने मुझे सेंट्रल इंग्लिश स्कूल भेज दिया। इस स्कूल में केवल महिला शिक्षक को ही नौकरी पर रखा जाता था। मेरी श्रीमती जी को वहाँ नौकरी मिल गयी। स्कूल के बच्चे हमारे यहाँ ट्यूशन पढ़ने आने लगे। मैं खुद गणित और अंग्रेजी पढ़ाया करता था। उसके बाद अपना स्कूल खोला विवेकानंद बाल बालिका विद्यालय। 76 में अपना खुद का प्रेस , ‘बिहार सेवक प्रेस’ शुरू किया। 2001 में आधुनिकरण के अभाव के कारण प्रेस बन्द हो गया। प्रेस बन्द होने के बाद भी काम चलता रहा।

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2. हिंदी साहित्य में रुचि कैसे जगी?

उत्तर:- विज्ञान का विद्यार्थी था और भाषा मेरी पंजाबी थी। इलाहाबाद के एक मित्र थे राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बंधु। उन्होंने मुझे हिंदी भाषा का ज्ञान दिया। मेरा लगाव हिंदी के तरफ होने लगा। उसके बाद मैंने लिखना शुरू कर दिया। मेरी पहली कहानी कॉलेज की पत्रिका में छपी। उसके बाद आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका निहारिका में मेरी तीन कहानियों को लगतार प्रकाशित किया।
वर्तमान में हर पत्रिका में मेरी रचना छप चुकी है। दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका आज-कल में 1990 में सम्पादक भी बना।

3. हिंदी साहित्य के लघुकथा विद्या में आपको भीष्म पितामह कहा जाता है। इस विद्या में कैसे आना हुआ?

उत्तर:- सन 1977 में हरिमोहन झा (मैथिली साहित्यकार) मेरे अभिभावक के तौर पर मुझे हमेशा स्नेह किया करते थे। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा , तुम हो क्या?
मैं उनकी बातों को समझ नहीं सका। उसके बाद उन्होंने कहा तुम्हारे काम से तुमको संतुष्टि मिल सकती है , लेकिन इससे साहित्य का भला नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा अगर 100 कहानीकार का नाम लिखूं तो उसमें मेरा नाम नहीं आएगा।
उसके बाद वह चले गए। दूसरी बार आए तो उन्होंने दुबारा पूछा, कुछ सोचा? मैंने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने सुझाव दिया कि छोटी छोटी कथा लघुकथा लिखा करो।
एक हफ़्ते के बाद मैंने पाँच लघुकथा उनको लिखा कर दिखाया। वह पांचों लघुकथा देख कर वह बहुत खुश हुए। बस लघुकथा लिखने का सिलसिला वहाँ से चल पड़ा।

4. हिंदी साहित्य में लघुकथा क्या है?

उत्तर:- आज के व्यस्त जीवन में लोग छोटी छोटी कथाएं पढ़ना अधिक पसंद करते हैं। कम शब्दों में सारी बातें लघुकथा में कही जाती है। अधिक से अधिक दो पेज तक की लघुकथा होनी चाहिए।
आपातकाल के समय पेपर की भारी किल्लत हुई। साहित्य वाला पेज घट कर एक – दो कॉलम तक सीमित हो गयी। इस कमी के कारण कम शब्दों की कथा चाहिए थी। इसी कारण लघुकथा प्रसिद्ध हो गयी। आज के समय लघुकथा पर अनेक प्रकार के शोध हो रहे हैं। बिहार में पिछ्ले 29 सालों से लघुकथा सम्मेलन आयोजित हो रही है।
आजकल फेसबुक पर अनगिनत नए लेख़क सब लघुकथा लिख रहे हैं। लेकिन फेसबुक पर लिखी जा रही लघुकथा उच्चस्तरीय नहीं होती है। उसका मुख्य कारण होता है वहाँ कोई संपादक नहीं होता है।
प्रायः हर दशक में लघुकथा में बदलाव देखने को मिली है। सामाज का रूप प्रस्तुत करने के कारण इसमें बदलाव आते रहते हैं।

5. नए लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

उत्तर:- आपकी रचनाओं में दम है तो लोग आपको एक दिन जरूर पहचानने लगेंगे। सवाल यह है आप कैसा लिख रहे हैं। पाठक जिसको अच्छा कहें वही अच्छा माना जाएगा। साहित्य के लिए लिखिए। आत्ममुग्धा से बचिए।
सूरज कभी किसी को नहीं कहने जाता है कि मुझे प्रणाम करो। हम सुबह उठते है और खुद ही उसे प्रणाम करते हैं।
यह बात हमेशा याद रखिए लेखक से बड़ा पाठक होता है।

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