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पीके की पॉलिटिकल कहानी -2

कैसे हुई बिहार में इंट्री

नीतीश कुमार ने प्रेसवार्ता के दौरान कहा, प्रशांत किशोर की जदयू में इंट्री अमित शाह के सिफारिश पर हुई। नीतीश के इतना कहते ही राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा होने लगी कि जिस अमित शाह से प्रशांत किशोर के छत्तीस का आंकड़ा है। तो अमित शाह प्रशांत किशोर का जदयू में रखने की सिफारिश नीतीश से क्यों करेंगे? करेंगे बिल्कुल कर सकते हैं।

दरअसल राजनीति को जो थोड़ा-बहुत समझते हैं उन्हें तो यह मालूम ही होगा कि प्रशांत किशोर 2014 लोकसभा चुनावों के बाद मनचाहा भाव और पद नहीं मिलने के कारण मोदी और बीजेपी से दूर हो गए थे। सूत्रों की मानें तो जब बिहार में जीतनराम मांझी की अगुआई वाली सरकार चल रही थी। तब पार्टी के राज्यसभा सांसद रहे पवन वर्मा की सिफारिश पर नीतीश पहली बार 2014 में प्रशांत किशोर से मिले थे। (पवन वर्मा ने बाद में पीके को अपने आवास पर बिहार के कलाकारों,बुद्धजीवियों, खिलाडियों व कुछ पत्रकारों के साथ बातचीत के कार्यक्रम का आयोजन करवाए थे) । लेकिन, उस समय पीके मोदी का साथ छोड़ चुके थे। प्रशांत किशोर ने नीतीश के सामने शानदार भाषण और सोशल मीडिया के कुछ हथकंडे पेश किये, जो पीके पहले मोदी के लिए कर चुके थे। पीके के भाषण और अंदाज से नीतीश प्रभावित होकर अपनी टीम में उन्हें जोड़ लिया। नीतीश के लिए भी मज़बूरी थी क्योंकि 2015 में बिहार में विधानसभा के चुनाव थे।
प्रशांत के उपर अत्यधिक भरोसा कर नीतीश कुमार ने अपने आधिकारिक आवास में रहने लगे थे।

भारतीय लोकतंत्र का यह कड़वा और न मानने वाला सच है कि सत्ता में जो रहेगा सरकारी मशीनरी उसी के निर्देशन पर काम करती है। यही कारण है कि प्रशांत किशोर की सलाह पर ही नीतीश कुमार जीतनराम मांझी को हटाकर फरवरी 2015 में दोबारा खुद मुख्यमंत्री बने थे, ताकि सरकारी तंत्र को अपने अनुसार चला सकें।

कैसे हुआ लालू से गठबंधन ?

मोदी के साथ काम कर चुके प्रशांत किशोर को यह अहसास हो गया था कि बिहार में मोदी को रोकने के लिए व्यापक गठबंधन बनाना होगा। अन्यथा मोदी के नाम की जो सुनामी चल रही है, उसको रोकना असंभव ही नहीं नामुमकिन है। हालांकि नीतीश भी यह देख चुके थे कि लालू के भ्रष्टाचार को आधार बनाकर कामयाबी से बैटिंग की लेकिन, मोदी ने सबको उड़ा दिया। प्रशांत किशोर ने माहौल ऐसा बनाया कि नीतीश को लगने लगा कि अगर वे लालू से गठबंधन नहीं करते हैं तो बिहार में भाजपा का सामना नहीं कर पाएंगे। नतीजा यह हुआ कि भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति के साथ चलने वाले नीतीश भ्रष्टाचार के आरोप में सजायाफ्ता कैदी लालू यादव के नेतृत्व वाली पार्टी राजद से गठबंधन कर बैठे।

जातीय समीकरण का दांव सफल होने के कारण 2015 में मिली इस जीत ने बिहार में लालू की वापसी कराई और नीतीश कुमार को कुर्सी मिल गई। और प्रशांत किशोर का अहंकार आसमान पर पहुंच गया। बिहार विधानसभा जीत का सेहरा अपने सिर बाँधने लगे। ठीक उसी तरह जिस तरह का माहौल पीके ने 2014 में बनाने का प्रयास किया था।

लेकिन इस तरह का माहौल बनाने के साथ उनकी मुश्किलें बढ़ने लगी। राजनीति में यह जगजाहिर है कि जदयू में नीतीश के बाद कोई है तो वो हैं आरसीपी सिंह। ब्यूरोक्रेट रहे आरसीपी राजनीति में आने के बाद जदयू को जमीनी स्तर पर मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई थी और अभी भी निभा रहे हैं। यह कहना प्रासंगिक होगा कि जिस तरह नरेंद्र मोदी अमित शाह के भरोसे संगठन छोड़ देते थे, वैसे ही नीतीश कुमार आरसीपी पर भरोसा करते हैं।