पटना : एनडीए में सबकुछ तय हो गया। नफा—नुकसान के बीच भाजपा ने गठबंधन धर्म निभाया और घटकों को ससम्मान एकजुट रखने में कामयाब रही। अब सबकी निगाहें महागठबंधन की सीट शेयरिंग पर टिकी हैं, जहां राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं बल्कि महागठबंधन के घटक दल भी बिहार में अगुआ पार्टी राजद की तरफ बेचैनी से ताक रहे हैं। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या महागठबंध में तेजस्वी भाजपा जैसी दरियादिली दिखा पायेंगे? महागठबंधन के छोटे—बड़े सभी घटक दल बिहार में, भारतीय जनता पार्टी की तरह ही राष्ट्रींय जनता दल से भी कुर्बानी की अपेक्षा रखते हैं। हालांकि, राजद ने स्पाष्टर कर दिया है कि सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर अंतिम मुहर लालू व तेजस्वील ही लगाएंगे। उधर एक बहस यह भी छिड़ी है कि आख़िर बिहार में नीतीश बनाम तेजस्वी में कौन किस पर भारी रहेगा। जहां काग़जों और आंकड़ों में एनडीए भारी दिख रहा है, तो महागठबंधन के साथ उपेन्द्र कुशवाहा और ‘सन ऑफ़ मल्लाह’ के आने के बाद मामला दिलचस्प हो गया है। सबकुछ राजद की दरियादिली पर निर्भर करता है क्योंकि उसकी कुर्बानियों पर ही महागठबंधन की इमारत खड़ी रह पाएगी वर्ना जितने दल और विचार यहां इकट्ठा हुए हैं, सब अपना शेयर मिलता न देख सेकेंड भर में टाटा करने का इतिहास रखते हैं।
स्पष्ट है कि महागठबंध में सीट बंटवारे पर एनडीए से ज़्यादा माथापच्ची है। फिलहाल ‘मोदी हटाओ’ गुट में शामिल आरजेडी, कांग्रेस, कुशवाहा की रालोसपा, मांझी की ‘हम’, वामपंथी दल, मुकेश सहनी—इन सभी को एकजुट रखना तलवार की धार पर चलने की तरह है। महागठबंधन में राजद सबसे बड़ा दल है, जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था। राजद को चार सीटें मिली थीं और 21 सीटों पर उसके प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे थे। कांग्रेस के हिस्से में भी दो सीटें आई थीं और आठ सीटों पर उसके प्रत्याशियों ने कड़ी टक्कर दी थी। लेकिन इस बार परिस्थितियां भिन्न हैं।
महागठबंधन में दोस्तों और दावेदारों की संख्या अधिक
महागठबंधन में राजद-कांग्रेस के अलावा तीन वामपंथी दल और जदयू से निकाले गए शरद यादव की नई पार्टी के अलावा रालोसपा अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा भी महागठबंधन में पहुंच गए हैं। मांझी और सन आफ मल्लाह वहां हैं ही। जाहिर है, दलों के साथ सीटों के दावेदार भी महागठबंधन में बढ़ गए हैं। उधर पिछली बार की तुलना में कांग्रेस का कद भी बढ़ गया है। बिहार में पहले वह चार विधायकों की पार्टी थी। अब 27 विधायकों वाली असरदार पार्टी बन गई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद ने कांग्रेस को गठबंधन के तहत 12 सीटें दी थी। लेकिन इस बार मामला कुछ अलग है। कांग्रेस का नया नेतृत्व भी राजद से सीटों के मामले में कुर्बानी की अपेक्षा कर रहा है। जैसे भाजपा ने जदयू को बराबरी का दर्जा दिया, उसी तरह महागठबंधन में कांग्रेस भी राजद से बराबरी के आधार पर सीटों का बंटवारा चाहती है। यही कारण है कि बिहार कांग्रेस की ओर से ट्वेंटी—ट्वेंटी का फॉर्मूला उछाला जा रहा है।
छोटे घटकों के धैर्य पर टिकी महागठबंधन की नाव
सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि महागठबंधन में छोटे घटक दल कई हैं। हिंदुस्तांनी अवाम मोर्चा प्रमुख जीतनराम मांझी को भी गया समेत कम से कम तीन सीटें चाहिए। भाकपा को कन्हैया के लिए बेगूसराय के अलावा और भी सीट चाहिए। माले की पटना या आरा पर प्रबल दावेदारी है। माकपा को नवादा किसी भी हाल में चाहिए। उधर शरद यादव भी हैं जिन्हें खुद के लिए मधेपुरा चाहिए और तीन सहयोगियों रमई राम, उदय नारायण चौधरी, अली अनवर और अर्जुन राय के लिए भी सीटें चाहिए। सपा के प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र यादव को भी संसद जाना है। लगे हाथ मुकेश साहनी भी मुंह बाए हुए हैं। ऐसे में इन छोटे घटकों की विश्वसनीयता इसी पर टिकी है कि बड़े दल कहां तक उनका पेट भर पाते हैं। साफ है कि यहां कदम—कदम पर उनके धैर्य की परीक्षा होनी तय है।
ऐसे में महागठबंधन में भी सीट बंटवारे पर तकरार तय है। सबसे बड़े घटक दल राजद के सामने असमंजस है कि वह किसे कितनी सीटें दे और खुद के लिए कितनी सीटें रखे। हालांकि, राजद महागठबंधन में बड़े भाई की भूमिका छोड़ने को तैयार नहीं दिख रहा। ऐसे में राजनीति में रूचि रखने वाले हर शख़्स को इस बात का जवाब चाहिए कि आख़िर बिहार में नीतीश कुमार बनाम तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन के बीच लोकसभा चुनाव में कौन किस पर भारी रहेगा। अभी नतीजे के बारे में कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। लेकिन इतना तो तय है कि सीटों को लेकर महागठबंधन में एनडीए से ज़्यादा माथापच्ची होगी।