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क्या है प्रशांत किशोर की ‘निजी टीआरपी पॉलिटिक्स’?

पटना : जदयू का दामन थाम चुनावी रणनीतिकार से राजनीतिज्ञ बने प्रशांत किशोर की सियासी डगर कैसी होगी यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन सोशल मीडिया में उनके इस कदम को पार्टी तथा खुद उनके लिए ‘आत्मघाती’ तथा ‘राजनीति का वाटर लू’ आदि संबोधनों से दो—चार होना पड़ रहा है। ऐसे में आइए जानते हैं उनके इस ताजा निर्णय के पीछे का सच क्या है? उनकी मजबूरी क्या है?

दरअसल चाणक्य की भूमिका पसंद करने वाले प्रशांत किशोर यूपी चुनाव नतीजों के बाद से ही दबाव महसूस कर रहे थे। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से प्रशांत किशोर की चर्चा सफल राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में होने लगी। नरेंद्र मोदी की सफलता के बाद उनमें आत्मकेंद्रित अहम् का सूत्रपात हुआ जो प्रचारक और संगठन आधारित भाजपा से उनके अलगाव का कारण बना। इसके बाद प्रशांत पर्दे के पीछे रणनीति बनाकर फलां-फलां पार्टी को जिताने का श्रेय लेने में लग गए। लेकिन संस्थागत प्रचारक स्ट्रक्चर में उनका काम करने का अनुभव कतई अच्छा नहीं है। यही उनकी नीतियों के फेल होने की वजह के रूप में सामने आया और उनकी पूछ भी घटने लगी।
प्रशांत किशोर को आगे बढ़ाने में कुछ मीडिया वालों की भी भूमिका रही। 2014 में भाजपा की जीत का श्रेय उन्होंने प्रशांत किशोर को देने संबंधी रिपोर्ट दिखाई। अफ्रीका में यूनीसेफ के लिए काम करने वाले प्रशांत किशोर की मुलाकात नरेंद्र मोदी से एक कार्यक्रम के दौरान हुई जिसका मुख्य विषय स्वास्थ्य था। एक दिन मोदी के आवास पर वे पहुंच गए और उनके लिए काम करने की इच्छा जताई। यह दिलचस्प है कि मोदी जैसे मंझे हुए नेता को उन्होंने अपनी बात से कैसे इंप्रेस किया और उनके आवास को ही अपना कार्यालय बना लिया। आगे की कहानी हम जानते ही हैंं।

कम होती विश्वसनीयता और गिरती साख की चिंता

इसबीच दो बातेें हुईं। एक यह कि प्रशांत किशोर की टीम में शामिल तकनीकी दक्ष लोग एक—एक कर उनसे अलग होते गए। पहले श्रद्धास्ता उनसे अलग हो गयी। फिर प्रवीण दुबे भी उनसे अलग हो गए। एक तरह से उनकी टीम पूरी तरह बिखर गयी। उधर बिहार में ताजा राजनीतिक घटनाक्रम के बाद जदयू के सीएम नीतीश कुमार भाजपा के साथ हो लिये। ऐसे में प्रशांत किशोर ने पहले तो कांग्रेस पर डोरा डाला। वहां बात नहीं बनने पर वे एक बार फिर अमित शाह और नरेंद्र मोदी से मिले। लेकिन यहां फिर सांगठिनक स्ट्रक्चर का अनुभव नहीं होने वाली बात उनके आड़े आ गयी। दरअसल नरेंद्र मोदी किसी भी जिम्मेदारी को प्रचारक प्रशिक्षण और सांगठिनक कसौटी पर कसने के बाद ही हकीकत का जामा पहनाते हैं। उनकी इन कसौटियों पर प्रशांत किशोर एक बार फिर फेल हो गए।
अब प्रशांत किशोर ने सीट शेयरिंग और सुशासन की डगमगाती नाव के साथ नीतीश कुमार को घबराया हुआ पाया। बस उन्होंने अपनी नई भूमिका उनके पास देख ली। भाजपा के दर से निराश होकर निकलने के बाद उन्होंने नीतीश कुमार पर डोरा डाला। नीतीश को भी अपनी सांगठनिक कमजोरी और गिरते टीआरपी ने प्रशांत किशोर को लपकने को मजबूर कर दिया। इस प्रकार प्रशांत किशोर की जदयू में इंट्री हो गयी। यहां एक और उल्लेखनीय चर्चा यह है कि चूंकि प्रशांत किशोर बक्सर से हैं, अत: जदयू उन्हें वहां से लड़ाने की मांग करने वाली है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि प्रशांत किशोर की मंशा जदयू को साधने की नहीं, बल्कि एनडीए को तोड़ने की है। यदि प्रशांत किशोर अपने मंसूबे में कामयाब होते हैं तो यह सर्वनाश से कम नहीं होगा। अब देखना है कि प्रशांत किशोर की खुद की विश्वसनीयता और नीतीश कुमार की गिरती साख—ये दोनों मिलकर क्या गुल खिलाते हैं?