पटना : टिकट के लिए ‘हनुमान कूद’ लगाने वाले नेताओं में कुछ तो बाजीगर बनकर उभरे, लेकिन अभी कुछ ऐसे नेता बच गए हैं जिन्हें न तो ‘खुदा ही मिला, न विसाले सनम’। टिकट के लिए पाला बदलने की हरकत ने उन्हें अब कहीं का नहीं रहने दिया है। इस चुनाव में बिहार में कई नेता ऐसे हैं जिन्हें कहीं ठौर-ठिकाना नहीं मिला। एनडीए और महागठबंधन ने राज्य की सभी 40 लोकसभा सीटों में से अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार तय कर लिए हैं। ऐसे में जिन्हें टिकट नहीं मिला, वे इस द्विविधा में पड़े हैं कि या तो वे ‘बिना दल’ (निर्दलीय) चुनाव मैदान में उतरें, या फिर नए दल में अपने बदले संकल्पों के साथ शांत होकर बने रहें। आइए जानते हैं, इस दोराहे पर खड़े बिहार के कुछ नेताओं के बारे में।
उदय चौधरी, लवली आनंद का दर्द
बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी वर्ष 2015 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद जदयू के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव के खेमे में चले गए। सूत्रों का कहना है कि चौधरी जमुई से चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन शरद यादव को मधेपुरा से राजद के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ना पड़ रहा है। ऐसे में चौधरी को टिकट मिलने का कोई सीन ही नहीं बना। कहीं से भी टिकट नहीं पा सके चौधरी अपनी राजनीति को लेकर काफी बेचैन—परेशान हैं।
पूर्व सांसद आनंद मोहन की पूर्व सांसद पत्नी लवली आनंद का भी कुछ यही हाल हुआ है। लवली शिवहर सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा लिए कांग्रेस में शामिल तो हो गईं, लेकिन शिवहर सीट महागठबंधन के घटक राजद के खाते में चली गई। ऐसी स्थिति में लवली बतौर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरने का मन बना रही हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि उनके साथ कांग्रेस ने धोखा किया। खरीद-फरोख्त की वजह से उन्हें महागठबंधन का टिकट नहीं मिला। अपने समर्थकों में निराशा और आक्रोश को देखते हुए उन्होंने शिवहर से निर्दलीय चुनाव लड़ने और जीतने की घोषणा की है। उन्होंने यह भी कहा कि मेरे साथ जो विश्वासघात किया गया है, इसका असर शिवहर के साथ-साथ बिहार के कई संसदीय क्षेत्रों में भी महागठबंधन को भुगतना पड़ेगा।
अरुण कुमार, नागमणि की नहीं गली दाल
रालोसपा के टिकट पर पिछले चुनाव में जहानाबाद से जीते अरुण कुमार की हालत भी कुछ ऐसी ही हो गई है। अरुण ने पहले रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का साथ छोड़ा और खुद अपनी पार्टी बनाकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी बन गए। बाद में नीतीश से खटपट हुई, तब फिर कुशवाहा के पक्ष में बयान देते हुए उनके करीब आने की कोशिश की। लेकिन अंत तक बात नहीं बनी। फिलहाल इस चुनाव में वे अभी तक बिना टिकट हैं और कोई दल उन्हें अब तक नहीं मिला है।
हाल तक उपेंद्र कुशवाहा के नजदीकी रहे नागमणि की भी हालत कमोबेश यही है। नागमणि रालोसपा से इस्तीफा देकर एक—दो माह से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गुणगान करने लगे। उन्होंने काराकाट संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की इच्छा भी जाहिर की थी। मगर उन्हें जदयू ने टिकट नहीं दिया और वे भी बेटिकट रह गए।
रामजतन सिन्हा व भगवान कुशवाहा बेटिकट
कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रामजतन सिन्हा ने भी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस का ‘हाथ’ छोड़ जदयू का दामन थामा। लेकिन उन्हें भी टिकट के मामले में निराशा हाथ लगी है। इसी प्रकार रालोसपा में रहे भगवान सिंह कुशवाहा को भी उम्मीद थी कि उन्हें जदयू में जाने का लाभ मिलेगा और वे आरा की सीट से चुनाव लड़ेंगे। पिछले वर्ष दिसंबर में उन्होंने पाला बदलकर जदयू ज्वाइन किया था। मगर उन्हें भी टिकट के मामले में जदयू ने घास नहीं डाला। भाजपा को छोड़कर कांग्रेस में जाने वाले दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद भी अब तक ‘बेटिकट’ हैं। उन्हें उम्मीद थी कि दरभंगा से उन्हें टिकट दिया जाएगा। लेकिन दरभंगा सीट राजद के खाते में चली गई।