गोगोई पर शोर क्यों! न्याय और नेतागीरी का क्या है कांग्रेसी कॉकटेल?

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नयी दिल्ली : पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राष्ट्रपति कोविंद ने राज्यसभा के लिए नॉमिनेट किया है। जस्टिस गोगोई ने रिटायरमेंट से पहले देश को कई माइल स्टोन फैसले दिये। इनमें सबसे अहम राम मंदिर विवाद पर दिया निर्णय भी शामिल है। 700 वर्ष पुराने इस विवाद का इतना सुंदर हल कोई रंजन गोगोई जैसा विद्वान जज ही दे सकता था। उनकी इसी प्रतिभा और अनुभव परक विद्वता को देख राष्ट्रपति ने राज्यसभा में नामिनेट किया। लेकिन इस नामिनेशन पर कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष ने नैतिकता और शुचिता के सवाल खड़े करने शुरू कर दिये। आइए जानते हैं कि सवाल खड़े करने वालों की नैतिकता और शुचिता संवैधानिक आत्मा की कसौटी पर कहां ठहरती है।

जस्टिस वहारुल और इंदिरा की घालमेल वाली शुचिता

कांग्रेस, ओवैसी, राजद समेत तमाम विपक्ष जस्टिस गोगोई के खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठे गया है। अगर भूतकाल के किस्सों को पलटा जाए, तो जस्टिस गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया जाना इन नैतिकता की दुहाई देने वालों की पोल खोल देता है। राजनीति और न्यायपालिका की घालमेल का सबसे भद्दा उदाहरण थे जस्टिस वहारुल इस्लाम। सच पूछा जाए तो वहारुल इस्लाम का मामला तब की कांग्रेस सरकारों की नैतिकता की सारी हदों को पार करने वाला निदर्श है।

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मन हुआ तो बनाया जज, मन बदला तो नेता

जस्टिस इस्लाम का जीवन भारत की राजनीति और न्यायपालिका की घालमेल का सबसे भद्दा उदाहरण है। न्यायमूर्ति का अवतार लेने से पहले बहारुल इस्लाम की पृष्ठभूमि काफी हद तक सियासी थी। असम के कामरुप में जन्मे बहारुल इस्लाम ने 1948 में पहले कोलकाता हाईकोर्ट और फिर असम हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू किया। इसी वर्ष वे सियासत में भी आ गये। पहले सोशलिस्ट पार्टी में फिर 1956 में कांग्रेस से जुड़े। 1957 से 1972 के बीच वो असम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के चुनाव अधिकारी रहने से लेकर गुवाहाटी जिला कांग्रेस समिति के सदस्य तक रहे। 3 अप्रैल 1962 को वे कांग्रेस टिकट पर राज्यसभा के लिए चुने गये। राज्यसभा का सदस्य रहते हुए ही इन्होंने असम विधानसभा के लिए 1967 में चुनाव लड़ा जिसमें उनकी हार हुई।

कांग्रेस सरकारों ने जमकर चलाई मनमर्जी

उसके बाद कांग्रेस ने उन्हें 1968 में दोबारा राज्यसभा में भेजा। जब 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ, तो वो इंदिरा गांधी वाले धड़े के साथ हो लिये। राज्य सभा का टर्म पूरा होने के पहले ही 20 जनवरी 1972 को सदन से इस्तीफा देकर वे गुवाहाटी हाईकोर्ट का जज बना दिये गए। यहां से एक मार्च 1980 को रिटायर होने के पहले करीब नौ महीने तक वे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस भी रहे।

इंदिरा गांधी की मर्जी से तय हुई शुचिता

लेकिन गुवाहाटी हाईकोर्ट से रिटायरमेंट के बाद बहारुल इस्लाम का कैरियर जिस तरह से आगे बढ़ा, वो अपने आप में अनूठा था। रिटायरमेंट के तुरंत बाद कांग्रेस के समर्थन से स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर उन्होंने एक बार फिर से राज्यसभा में जाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। लेकिन हद तो तब हो गई जब गुवाहाटी हाईकोर्ट से रिटायरमेंट के ठीक नौ महीने बाद बहारुल इस्लाम को सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया गया।

नैतिकता का चीरहरण यहीं नहीं रुका। रिटायर होने के ठीक पहले 13 जनवरी 1983 को बहारुल इस्लाम ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया। इसके एक दिन बाद ही कांग्रेस ने असम के बारपेटा लोकसभा सीट से उन्हें अपना उम्मीदवार बना दिया। खास बात ये भी थी कि सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा देने के महज एक महीने पहले बहारुल इस्लाम ने बहुमत वाला वो फैसला लिखा था, जिसके तहत फर्जीगीरी और आपराधिक कामकाज के मामले में बिहार के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को राहत दी गई थी। तब चर्चा रही कि उक्त फैसला देने की एवज में ही बहारुल इस्लाम को बारपेटा से कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया गया।

नैतिकता का बार—बार चीरहरण

इसके बाद कांग्रेस ने बहारुल इस्लाम को एक बार फिर राज्यसभा में भेजा और 1983 से 14 जून 1989 तक वे राज्यसभा सदस्य रहे। स्पष्ट है कि बहारुल इस्लाम का ये मामला नैतिकता की सभी हदों को पार करने वाला था। ध्यानयोग्य बात यह है कि वहारुल इस्लाम के कैरियर और राजनीति के इस घालमेल की स्क्रिप्ट तब लिखी गई जब केंद्र में इंदिरा गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस की ही सरकारें थी। शुचिता की बात करते हुए जस्टिस गोगोई के नामित होने पर सवाल खड़े करने वालों में ज्यादातर वही हैं, जिन्होंने कभी न्यायपालिका से शुचिता को खत्म करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।

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