पटना : आज कल की सिनेमा में गांवों से जुड़ी सच्चाई को दरकिनार किया जा रहा है तथा केवल तड़क-भड़क वाली फिल्में अग्रसर हो रही हैं। हाशिये के लोगों का अब सिनेमा नहीं रह गया है।भारतीय सिनेमा से जुड़े इसी विषय पर कालिदास रंगालय में 3 दिवसीय फिल्मोत्सव का आयोजन किया गया। फिल्मोत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत ‘नये प्रयास’ नामक फ़िल्म से हुई। उसके बाद 5 लघु फ़िल्में ( वुमनिया, गुब्बारे, छुट्टी, बी-22 और लुकिंग यू द फेंस) दिखाई गईं। इनमें ‘वुमनिया’ फिल्म में महिलाओं द्वारा सरगम महिला बैंड शुरू करने के विषय को दर्शाया गया है। इस दौरान महिलाओं को होने वाली परेशानी तथा उनकी सफलता को दिखलाया गया है। डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के रूप में ‘अगर वो देश बनाती’, तथा ‘नाच भिखारी नाच’ को दिखाया गया। दर्शकों ने सभी फिल्मों को सराहा तथा अंत में ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ और ‘लिंच नेशन’ फिल्में दिखलाई गईं।
आपको बात दें इसके पहले दिन दस्तावेजी फ़िल्म ‘अपने धुन में कबूतरी’ से इस फिल्मोत्सव का आगाज हुआ था। युवा फिल्मकार पवन श्रीवास्तव की एक फ़िल्म ‘लाइफ ऑफ एन आउटकास्ट’ कल दिखलाई गई थी जिसमें हाशियों में रह रहे पिछड़े और गैर स्वर्ण परिवार के लगातार अपने जमीन से उजड़ने की कहानी है। इस फ़िल्म में जाति भेद की सच्चाई भी दिखाई गई है।
इस फिल्मोत्सव के अंतिम दिन यानी 11 दिसम्बर को बच्चों पर फीचर फ़िल्म ‘फर्दीनांद’ , विप्लवी कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता सरोज दत्ता पर आधारित दस्तावेजी फ़िल्म तथा इस फिल्मोत्सव का समापन एक नाट्य प्रस्तुति ‘पागल की डायरी’ के साथ होगा।
राजन कुमार