बिहार में मजदूरों का ठिकाना चीनी मिलें बनीं भूतबंगला, चीनी मिलों का ग्रीन फील्ड एरिया माफियाओं के हवाले
राजनीतिक-माफियाओं के गठजोड़ की भेंट चढ़ी चीनी मिलें
देश में बिहार चीनी उद्योग के लिए सबसे बेहतर वातावरण को संचित रखने के बाद भी सूबे से श्रम की मिठास खत्म-सी हो गई है। वर्ना मजदूरों के पलायन और फिर महामारी में जान बचा कर सपरिवार भाग कर उल्टे पांव आने की नौबत नहीं झेलनी पड़ती और न ही जलालत भरी यात्रा करनी पड़ती। कहने को रिकार्ड में यहां 29 चीनी मिलें हैं, पर कायदे से 07 ही चल रही हैं, शेष राजनीतिक-माफियाओं के गठजोड़ की भेंट चढ़ गईं। अगर वे सभी चलती रहतीं तो सरकार से लेकर प्रशासन तक के माथे पर पसीने नहीं छलकते।
बियाडा की हजारों एकड़ भूमि पर उद्योग नहीं, गुंडाराज
हद तो यह कि एनडीए-फर्स्ट की सरकार में चीनी मिल स्थापना को लेकर कई सेमिनार हुईं, लंबी-चैड़ी बातें हुईं, कई जगहां पर चीनी मिलों के लिए जमीन भी अधिग्रहण हुई, पर कुछ ही दिनों में उत्साह ठंढा-सा पड़ गया। एक सर्वे के अनुसार बिहार से पलायन कर जाने वाले मजदूरों में सबसे अधिक उत्तर बिहार के ही हैं। उसके बाद, पूर्वी बिहार से। केन बाॅल के रूप में प्रसिद्व उत्तर बिहार की औद्योगिक इकाईयां तो चैपट हो गईं पूर्वी बिहार के भागलपर-कहलगांव में बियाडा द्वारा हजारों एकड़ अधिग्रहित भूमि भी स्थानीय गुडों ने कब्जा कर लिया।
औद्योगिक इकाईयों की रिजर्व भूमि को माफियाओं ने बेच दी
दरअसल, सरकार और बिहार के उद्योगपितयों की 2006 में हुईं बैंठकों में भौतिक सरंचना, यथा भूमि अधिग्रहण कर उद्योग स्थापना की चर्चा तो हुई ही थी, रोजगार सृजन और मजदूरों पर भी व्यापक बहस हुई थी कि स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। पर, नई औद्योगिक इकाईयों के खुलने की बात तो दूर पुरानी औद्योगिक इकाईयों की रिजर्व भूमि भी माफियाओं ने बेच दी। मोतिहारी, मुजपफरपुर, गोपालगंज की कई बंद पड़ी चीनी मिलों का रिजर्व एरिया अर्थात भूमि को बिहार के माफियाओं ने दिल्ली और मुंबई से ही डील कर दिया।
जैसे-जैसे धड़ाधड चीनी मिलें बंद होतीं गयीं, वैसे-वैसे मजदूरों का पलायन दूसरे राज्यों में बढ़ता गया
एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी कहते हैं कि उत्तर बिहार के किसान तो क्या मजदूर भी चीनी मिलों से निकलते धुएं को देख कर प्रसन्न हो जाते थे। कारण कि पैसों की मोबिलिटी होती रहती थी। किसान तो चीनी मिलों में ईख के चालान को दिखा कर बेटी का ब्याह कर लेते थे। पर, अब स्थितियां उलट हो गयीं हैं। 1990 के बाद जैसे-जैसे धड़ाधड चीनी मिलें बंद होतीं गयीं, वैसे-वैसे मजदूरों का पलायन दूसरे राज्यों में बढ़ता गया।
बिहार अपनी पारम्परिक उद्योग को भूल कर उसमें ताला लटका दिया
रिकार्ड बताते हैं कि आजादी के पूर्व देश की कुल चीनी खपत का एक बड़े हिस्से में योगदान बिहार का ही रहता था। आज, पौने दो प्रतिशत का भी हिस्सा नहीं है। पहले चीनी मिलों में मजदूरों की खपत इतनी थी कि अकेले स्थानीय स्तर पर उतनी आपूर्ति नहीं हो पाती थी। अधिकतर चीनी मिलें नेपाल की तराई में थीं, सो नेपाल के मजदूर भी काम करने चले आते थे। आज हालत यह है कि बिहार अपनी पारम्परिक उद्योग को ही भूल कर उसमें ताला लटका दिया। कई चीनी मिलें तो भूतबंगला में तब्दील हो गईं हैं। बियाडा को देखने-सुनने वाला कोई है ही नहीं।