‘बाल फिल्में देखना बड़ों की सामाजिक जिम्मेदारी’

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बाल दिवस विशेष

प्रशांत रंजन
परामर्शदातृ समिति सदस्य
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड

भारतीय सिनेमा हर आयु वर्ग के लोगों के दिलों को स्पर्श करता है। धार्मिक विषयों से आरंभ हुई भारतीय सिनेमा की यात्रा अब तक कई पड़ावों से गुजर चुकी है। देशभक्ति, पारिवारिक, सामाजिक, विशुद्ध मनोरंजक फिल्मों की कोई कमी नहीं है। नब्बे के दशक के बाद फिल्मकारों ने युवा वर्ग को ध्यान में रखकर अधिक फिल्में बनानी शुरू कर दीं। बीच-बीच में अन्य आयु वर्गों के लिए भी कहानियां बुनी गईं। तथापि, सबसे अधिक नजरअंदाज बाल दर्शकों को किया गया। आंकड़े गवाह हैं। 2019 में हिंदी फिल्में देखने के लिए भारत में 34 करोड़ टिकट बिके। वहीं अमेरिका में केवल बाल फिल्में देखने के लिए 28 करोड़ टिकट बिके। आनुपातिक दृष्टि से देेखें, तो भारत में सबसे कम फिल्मों बच्चों के लिए बन रही हैं। यह शोचनीय है, क्योंकि बाल फिल्म देखने के अवसर के अभाव में बच्चे व्यस्क सामग्री वाली फिल्मों को देख रहे हैं, जो उनके कोमल बाल मन को कलुषित कर रहा है।

भारत का व्यस्क सिनेप्रमी इतना लापरवाह हो गया है कि बकायदा एडल्ट प्रमाणपत्र के साथ रिलीज हुई फिल्म देखने के लिए बच्चों को साथ लेकर सिनेमाघर में बैठ रहा है। तिस पर यह कुतर्क कि एकल परिवार में बच्चों को किनके भरोसे छोड़कर सिनेमा देखने जाएं? दूसरा कुतर्क यह कि टीवी व मोबाइल पर हर दिन ऐसे हानिकारक कंटेंट से बच्चे एक्सपोज़ हो रहे हैं, तो सिनेमाघर में तीन घंटे व्यस्त फिल्म देख लेने से भला क्या बिगड़ जाएगा! यह तर्क हास्यास्पद है। घर हो अथवा सिनेमाघर, बच्चे विवशतावश व्यस्कों की फिल्में देखने को मजबूर हैं। दुखद बात है कि इसके पीछे का कारण केवल बाल फिल्मों का कम होना नहीं है। बल्कि, उस मानसिकता का भी है, जो यह मानती है कि बाल फिल्में तो केवल बच्चों के देखने के लिए है। दरअसल, हमें यह समझना ही होगा कि बाल फिल्में देखना हर आयु वर्ग के व्यक्ति की सामाजिक जिम्मेदारी है। घर के बड़ों को पहल आरंभ कर बाल फिल्में देखनी चाहिए, ताकि बच्चे स्वस्थ फिल्म सामग्री को ग्रहण करें। यह सिनेमाई साक्षरता का विषय है, जिसे सरकार व समाज दोनों स्तरों पर गंभीरता के साथ लेने की आवश्यकता है।

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बाल फिल्मों का महत्व रेखांकित करने के लिए महान फिल्मकार सत्यजीत रे का स्मरण करना चाहिए, जिन्होंने एक ओर उच्च बौद्धिक विमर्श वाली फिल्में बनाई, वहीं दूसरी ओर ‘अपु त्रयी’ से लेकर ‘टू’ और गूपी गायन बाघा बायन’ जैसी रोचक बाल फिल्में भी बनाई। दिग्गज ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी अपनी बाल फिल्मों के कारण जगत प्रसिद्ध हैं।

सरकारें अपने स्तर से प्रयास कर रही हैं। लेकिन, वे नाकाफी हैं। 1955 में स्थापित चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी, इंडिया प्रतिवर्ष बाल फिल्में बनाती थी और बाल फिल्मोत्सव, प्रतियोगिता आदि कराती थी। लेकिन, इस संस्था का तीन वर्ष पूर्व एनएफडीसी में विलय हो गया। इस कारण से सरकारी स्तर में बाल फिल्मों के क्षेत्र में शिथिलता आ गई है। इसका एक उदाहरण है कि हर दो साल पर हैदराबाद में आयोजित होने वाले ’इंटरनेशनल चिल्ड्रेन फिल्म फेस्टीवल ऑफ़ इंडिया’ का आयोजन 2017 के बाद नहीं हो पाना। हालांकि, एनएफडीसी ने अपनी जिम्मेदारी का निवर्हन करने हुए सीएफएसआई के बदले बाल फिल्मों का निर्माण शुरू किया है। जैसे इस वर्ष गर्मियों में एनएफडीसी ने ’चिड़ियाखाना’ नाम से हिंदी बाल फिल्म का निर्माण किया, जिसका निर्देशन मुजफ्फरपुर निवासी मनीष तिवारी ने किया था। स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूर्ण होने पर एनएफडीसी द्वारा हर वर्ष ’75 ​क्रिएटिव माइंड्स ऑफ़ टुमॉरो’ नाम से प्रतियोगिता कराई जाती है, जिसमें देशभर से स्कूली बच्चे व कॉलेज के विद्यार्थी भाग लेते हैं। यह एक सराहनीय पहल है।

नवंबर के प्रथम सप्ताह में बिहार सरकार ने दो दिवसीय बाल फिल्म महोत्सव का आयोजन किया था, जिसमें मैथिली फिल्म ’लोटस ब्लूम्स’ के अतिरिक्त ’चिड़ियाखाना’, ’अप, अप एंड अप’, ’मेजर’ जैसी बाल फिल्में दिखायी गईं। इसमें सबसे अधिक प्रसन्नता की बात रही कि अतिसाधारण परिवारों के बच्चों ने इन फिल्मों का आनंद लिया। आयोजन के दौरान मंत्री व अधिकारी ने जिलास्तर पर बाल फिल्मोत्सव कराने और बाल फिल्मों के निर्माण में सरकारी सहयोग का भरोसा दिलाया। बिहार सरकार की संस्था ‘किलकारी’ भी बाल फिल्मों को लेकर लगातार पहल कर रही है। इसके अलावा ’स्कूल सिनेमा’ जैसी संस्थाएं व सकम कृष्णमूर्ति जैसे लोग स्कूलों में जाकर बाल फिल्में दिखाते हैं।

यह सब प्रयास अपनी जगह है। लेकिन, बाल फिल्मों को लेकर समाज के व्यस्कों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक बच्चे विषैले कंटेंट से एक्सपोज होते रहेंगे। बाल फिल्मों के निर्माण व उनके प्रचार से अधिक आवश्यक यह प्रचार करना है कि बाल फिल्में देखना बड़ों के लिए ज्यादा जरूरी है। यह उसी प्रकार है जैसे अगर बच्चों में पुस्तक पढ़ने की आदत विकसित करनी हो, तो घर के बड़ों को स्वयं पुस्तक पढ़ने की आदत डालनी होगी। अभिभावक वर्ग को यह समझ लेना होगा कि अपने पसंद की फिल्में देखना उनकी शौक होगी। लेकिन, बच्चों को साथ बैठाकर बाल फिल्में देखना उनका पारिवारिक व सामाजिक दायित्व है, जिसे किसी बहाने से टाला नहीं जा सकता। यह इसलिए भी अधिक आवश्यक हो जाता है क्योंकि वर्तमान में जो मुख्य धारा की फ़िल्में और वेब सीरीज बन रही हैं, उनका लक्ष्य एक खास दर्शक वर्ग है। कम से कम बच्चे तो उस वर्ग में बिल्कुल नहीं हैं। अभिभावकों और सरकारों को अगर इस बात की चिंता है कि बच्चे टॉक्सिक कंटेंट से प्रभावित हो रहे, तो समाधान के अन्य प्रयासों के अलावा यह भी एक जरूरी प्रयास है।

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