भगवान श्री कृष्ण
भगवान श्री कृष्ण का जन्म अष्टमी तिथि को हुआ था। तिथियों की यह गणना भारतीय काल गणना के क्रम में चन्द्रमा की विभिन्न गतियों (कलाओं) से की जाती है। भगवान श्री कृष्ण के जन्म की यह अष्टमी तिथि यहां मात्र चन्द्रमा की आठवीं कला का प्रतीक नहीं है बल्कि इसके बहुत गम्भीर अर्थ हैं। इस आठ की गणना का संदर्भ अस्तित्व की स्थिति से है। हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व इस आठ में ही है। अस्तित्व के सम्पूर्ण स्वरूपों का दर्शन इन आठ प्रकारों में ही होता है। अस्तित्व के इन आठ स्वरूपों में पंच महाभूत(पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), ब्रम्ह(चेतन परमात्म तत्व), प्रकृति और जीव तत्व हैं। जिनमें छ: ही मूल तत्व हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश(पंच महाभूत) और ब्रम्ह(चेतन तत्व)। इन छ: तत्वों के ही विशिष्ट संयोजन से अगले दो तत्वों – प्रकृति और जीव तत्व की उपस्थिति हुई है। इस प्रकार अस्तित्व सबकुछ के रूप में इन आठ तत्वों में ही परिभाषित होता है। और इसीलिए यह अष्टमी अस्तित्व की पूर्णता का प्रतीक ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व ही है।
भगवान श्री कृष्ण को सम्पूर्ण विकसित अवतार माना जाता है। भगवान श्री कृष्ण के इस सम्पूर्ण विकास को 16 कलाओं के रूप् में व्यक्त किया जाता है और कहा जाता है कि वे 16 कलाओं से युक्त सम्पूर्ण अवतार थे। इन 16 कलाओं की अनेक व्याख्याएँ हैं। यथार्थ रूप् में कलाओं की यह गणना चन्द्रमा की कलाओं से सम्बंधित है। चन्द्रमा अपनी 16 विभिन्न गतियों के द्वारा अपनी पूर्णिमा मे स्थापित होता है। अतः 16 कलाएँ यहाँ पूर्णत्व को व्यक्त करती हैं। चन्द्रमा का सम्बन्ध “मन” से है। मन व्यक्ति का व्यक्ति सदृश्य ही एक अदृश्य पहलू है। मन से ही मनु और मनुष्य शब्दों का विकास हुआ है। अतः चन्द्रमा की 16 कलाओं से उत्पन्न पूर्णिमा का सम्बन्ध मनुष्यता की पूर्णता से है। इसलिये 16 कलाओं से युक्त होने का अर्थ है – सम्पूर्ण मानव होना।
इन 16 कलाओं (गति के विभिन्न प्रकार) को आठ+आठ = सोलह के रूप मे भी समझा जा सकता है। यहाँ आठ का अर्थ ऊपर उल्लखित किए गए अस्तित्व के सम्पूर्ण स्वरूप से ही है और अगले आठ का अर्थ भी वही है। यहां प्रश्न यह है कि हम अस्तित्व को अस्तित्व से क्यों जोड़ रहे हैं। वास्तव में यही संपूर्णता की दिव्यता का आश्चर्य है। यहाँ किसी भी प्रकार का जोड़ या घटाव नहीं है बल्कि यह संपूर्णता से संपूर्णता को प्राप्त करने का विशिष्ट समायोजन है। ईशावास्योपनिषद का एक चिर प्रचलित श्लोक लगभग इसी स्थिति को स्पष्ट करता है-
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्ण मुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवावशिष्यते॥
यह पूर्णता की एक विशिष्ट दशा है और इसी का नाम मोक्ष है। भागवत महापुराण में एक स्थान पर सृष्टि के निर्माण से सम्बंधित वर्णन मिलता है, जहाँ यह प्रश्न होता है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना क्यों की ? इसके उत्तर के रूप कहा जाता है कि ईश्वर ने ही आनंद की अनुभूति के लिए एक से अनेक रूप धारण कर लिए और इस प्रकार जगत प्रकाश में आया। अर्थात वह ईश्वर जगत के कण कण में स्थापित है। जगत के प्रत्येक तत्व का अपना ही ईश्वरीय सौंदर्य है, माधुर्य है। भगवान श्री कृष्ण अपने जीवन में इसी भाव को स्थापित करते हैं। गोकुल के दिनों में वे माखन चुराते हैं, चोरी करते हैं, गोपियों को रिझाते हैं, परंतु कृष्ण के इन सब कार्यों से कोई दुखी नहीं होता है बल्कि सभी आनंद विभोर ही होते हैं। बाद में हम उसी कृष्ण को कुरुक्षेत्र में देखते हैं, जो उस महाभारत को धर्मयुद्ध के रूप् में देखतें हैं और अर्जुन को कर्मयोग का पाठ पढ़ाते हैं। गीता में ही भगवान कृष्ण अर्जुन के समक्ष यह घोषणा करते हैं कि जगत में उपस्थित प्रत्येक श्रेष्ठता वे स्वयं हैं। यह प्रभु कृष्ण की उनके सम्पूर्णता के भाव की घोषणा है।
जगत की उत्पत्ति का उक्त उद्धरण “एकोहं बहुस्यामि” स्पष्ट करता है कि जगत के कण कण सहित प्रत्येक जीव भी उसी सम्पूर्ण के अंग हैं। अर्थात जगत के निर्माण की यह यात्रा एक से चलकर अनेक तक पहुँची है। इन अनेक में उसी एक का वास है और ये अनेक अपनी स्वचेतना के विकास की सीढिय़ां उस एक में समाहित होने के लिए चढ़ने का प्रयास करते हैं। किन्तु मोक्ष भाव ना तो एक होने में है और ना ही कण कण के रूप् में विखंडित दशा में है। यदि परमआनंद का धाम उस ‘एक’ की दशा मे होता तो फिर वह ‘एक’ अपनी ‘अनेक’ होने की यात्रा क्यों ही प्रारम्भ करता और यदि जगत की यह विखंडित ‘अनेक’ की दशा ही परम स्थिति होती तो फिर इस जगत का अनेक कण कण उस ‘एक’ के लिए अनेक साधनएँ क्यों ही करता ? अब यहां यह प्रश्न है कि तब परम स्थिति क्या है?
इसका उत्तर हमें कृष्ण के “महारास” में मिलता है। जहाँ ना तो एक और ना ही अनेक। जहाँ उस एक मे अनेक समाहित है और अनेक मे एक स्थापित है। यही दशा परमआनंद की दशा है, संपूर्णता की दशा है। यही परम पूर्णिमा है। यही परम मोक्ष है। शायद एक और अनेक के इस महामिलन को ही “बुद्ध” ने “मध्यम मार्ग” कहा होगा। जो ना तो एक के रूप मे है और ना ही अनेक के रूप् में। दोनो ही दशाओं में अभाव है। एक तरफ अनेकता की खण्ड खण्ड दशा में ही त्रिगुण भाव(सत, रज और तम) है, जरा है, रोग है, सुख है, दुख है, तृष्णा है, पिपासा है, अशांति है, मृत्यु है और दूसरी तरफ उस एक अखंड की दशा मे कुछ भी नहीं है, वह निरपेक्ष है, त्रिगुणातीत है, सभी भावों से परे है। ये दोनो ही दशाएँ अपने आप मे एक पक्षीय हैं। पूर्णत्व तो दोनों के सम्मिलन में है। भगवान कृष्ण द्वारा उद्घाटित “महारास” इसी पूर्णत्व का महोत्सव है।
इसलिए भगवान श्री कृष्ण सम्पूर्ण अवतार हैं। वे सबकुछ हैं। ज्ञानी भी, भोगी भी, रागी भी, विरागी भी, प्रेमी भी, वियोगी भी, रणबांकुरे भी, रणछोड़ भी, कायर भी, प्रतापी भी, धीर भी, अधीर भी, सुखी भी, दुखी भी, योगी भी, सांसारिक भी, ब्रम्हचारी भी, गृहस्थ भी, गुरु भी, शिष्य भी, अमरता भी और मृत्यु भी। श्री कृष्ण के जीवन में हमें यह सबकुछ देखने को मिलता है। सम्पूर्ण जगत का कोई ऐसा पहलू नहीं है जिसे हम उनमें ना देख सकें। इसीलिए श्री कृष्ण हर एक को हर जगह मिलते हैं। प्रत्येक मार्ग पर उनकी उपस्थिति उत्कर्ष में है। इसी कारण वे सभी को स्वीकार हैं। वे एक साथ एक प्रेमी के भी आदर्श हो सकते हैं और एक परम विरागी के भी। वे जीवन के सभी आयामों में विराजते हैं। वे ज्ञान, कर्म और भक्ति जैसे सभी रूपों में पाए जाते हैं। वे घट घट वासी हैं। हम सबके प्रिय हैं।
महेंद्र पांडेय
(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र हैं)