सुशील कुमार मोदी
आपातकाल के दौरान 30 मई, 1975 को समस्तीपुर में गिरफ्तारी हो गयी। मीसा बंदी के रूप में दरभंगा, बक्सर, भागलपुर जेलों को चक्कर लगाता हुआ हजारीबाग केन्द्रीय कारा में पहुँचा दिया गया। सगी बहन उषा की शादी पटना में थी। परन्तु पेरोल (छुट्टी) नहीं मिल पाया। सगी बहन की शादी में शामिल नहीं हो पाने से मन काफी दुखी था। 19 जनवरी को पेरोल मिला। सोचा, चलो, सगी बहन न सही, चचेरी बहन की शादी में तो शामिल हो जाऊंगा। परंतु दुर्भाग्यवश, एक संवेदनहीन अफसर की सनक के कारण वह भी नहीं हो सका। यह यादें आपातकाल के दौरान अधिकारियों के निरंकुश अहंकार और अत्याचार की दुःखती बानगी भर है।
हजारीबाग केन्द्रीय कारा से पेरोल पर बाहर निकला तो सोचा पटना जाने से पहले हजारीबाग के उपायुक्त से मिलकर जेल की समस्याओं से अवगत करा दूँ। उपायुक्त का बंगला जेल के लगभग सामने ही था। रिक्शा पर सामान रख उपायुक्त के बंगले में चला गया। उपायुक्त के पी.ए. ने पहले तो आधा घंटा इंतजार कराया और फिर कहा कि उपायुक्त महोदय व्यस्त है, अभी नहीं मिल पाएंगें।
मैं निराश होकर कमरे से बाहर निकला। अचानक बगल के कमरे से उपायुक्त दुर्गा शंकर मुखोपाध्याय भी बाहर निकले 32 साल का नाटे कद का दुबला-पतला चश्मा पहने छोकरे जैसा उपायुक्त निकल कर गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी का शीशा उतारने लगा। मैंने सोचा कि शयद पी.ए. ने झूठ कह दिया है, क्यों नहीं खड़े-खड़े उससे एक मिनट बात कर लूं। मैं गाड़ी के समीप जाकर कहा, ‘सर एक मिनट…।’ डी.एम. गाड़ी से उतरा, मुझे लगा कि वह मुझसे बात करने आ रहा है, मगर मेरे करीब आते ही उसने मुझे झापड़ मारना शुरू कर दिया। मैं अचंभित रह गया कि यह क्या हुआ? मुझे लगा कि यदि मैंने प्रतिकार किया तो शायद वह और उत्तेजित हो जाए। मैंने कहा कि सर गलती हो गई, कल मेरी बहन की शादी है, मैं पेरोल पर आया हूं, किंतु वह तो वहशी की तरह घूसों-थप्पड़ों से मारे जा रहा था और गालियां बक रहा था। मैं जमीन पर थोड़ी दूर पर गिर पड़ा, चप्पल दूर फेंका गई।
मैं उठा और चप्पल पहनने लगा, सोचा कि अब यहां खिसक जाऊं, किंतु इसी बीच उसने आकर मेरा काॅलर पकड़ लिया और मारने लगा। बक रहा था, साले जिले का मालिक हूं, सब नेतागिरी निकाल दूंगा, क्रीमिनल मीसा में बंद कर दूंगा, जानता नहीं इमरजेंसी है। वह अंग्रेजी में गालियां बकता रहा। मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। फिर भी मुझे लगा कि शायद मार-पीट कर छोड़ देगा। अफसोस भी कर रहा था कि कल रेणु की शादी है, इतनी मुश्किल से पेरोल हुआ, कितनी परेशानी के बाद डीआईआर की जमानत हुई और यह मैं कहां फंस गया। मुझे कमरे में बंद कर दिया गया। थोड़ी देर पहले जिस कमरे में कुर्सी पर बैठा था अब उसी कमरे में फर्श पर बैठा अपने दुर्भाग्य को कोस रहा था। थोड़ी देर बाद अचानक मैं फूट-फूट कर रोने लगा। जो भी क्लर्क या चापरासी भीतर आता, मैं उससे कहता कि मुझे छुड़ा दीजिए, कल बहन की शादी है।
मैं काफी देर वहीं जमीन पर कुर्ता, पायजामा पहने मार खाया पागलों के समान बैठा रहा। बगल के कमरे में डी.एम. कुछ टाइप करवा रहा था। मुझे अभी भी लग रहा था कि शायद मैं छोड़ दिया जाऊंगा। कई बार सोचा कि डी.एम. से जाकर बात करूं। फिर लगा कि जब बिना बात किए यह हाल किया है, तो कहीं वह और क्रुद्ध न हो जाए। थोड़ी देर में उसके पी.ए. ने थाने में फोन कर पुलिस को आने की सूचना दी। मैं अपने दुर्भाग्य को कोसता कमरे में बैठा आगे की कार्रवाई का इंतजार करता रहा।
थोड़ी देर बाद पुलिस आई और उठा कर मुझे ले गई। मुझे हजारीबाग कोतवाली थाना में बंद कर दिया गया। सात माह बाद जेल से निकला और कुछ ही घंटों में पुनः गिरफ्तार कर थाने के हाजत में बंद कर दिया गया। खौफ इतना कि कोई थाने पर आकर मिलने की हिम्मत नहीं करता था। हरेक को डर कि मिलने जाएँगे तो गिरफ्तार कर लिए जाएँगें। अगले दिन हजारीबाग कोर्ट में उपस्थित किया गया। बड़ी मुश्किल से मुचलके पर जमानत मिली। सड़क मार्ग से जबतक पटना पहुँचता तब तक बारात लौट चुकी थी। शादी सम्पन्न हो चुकी थी।
उपायुक्त को गुस्सा इस बात का था कि एक कैदी मना करने पर भी बंगले पर आकर मिलने कि हिमाकत कैसे कर सकता है। आपात्काल समाप्त होने के बाद ज्यादतियों की जांच करने के लिए बने शाह आयोग के सामने भी मामला पहुँचा, परन्तु तबतक जनता पार्टी की सरकार गिर चुकी थी।
वर्षों बाद 15 नवम्बर, 2000 को बाबूलाल मरांडी जी के शपथग्रहण समारोह में हजारीबाग के तत्कालीन उपायुक्त दुर्गाशंकर मुखोपाध्याय का चेहरा सामने दिखा। तब वह राज्यपाल का ओएसडी था। मन में इतना गुस्सा भरा था कि एकबारगी मन किया कि खींच कर उसका गला दबा दूं। किसी तरह से अपने को संयत किया।
चैवालीस साल बाद आज भी संत्रास की यह यादें मन के किसी कोने में ताजा है। इमरजेंसी में नौकरशाही किस तरह से निरंकुश, अत्यचारी हो गई थी, इस एक घटना से उसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।