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पूर्णिया में ‘बेहतर कौन’ के लिए कांटे की लड़ाई, हॉटसीट किश्त 5

पटना : बिहार में मिनी दार्जीलिंग की पहचान रखने वाली पूर्णिया लोकसभा सीट 2019 के चुनाव में हाई प्रोफाइल फाइट की तस्वीर पेश कर रही है। इस बार पूर्णिया की लड़ाई दो बड़े चेहरों में बेहतर कौन की है। पूर्णिया लोकसभा सीट से एनडीए ने जदयू से सीटिंग एमपी संतोष कुशवाहा को एक बार फिर मैदान में उतारा है। वहीं महागठबंधन की ओर से भाजपा छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए उदय सिंह ताल ठोंक रहे हैं। संतोष कुशवाहा बिहार में 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच जितने वाले 2 जदयू सांसदों में से एक हैं। जबकि उदय सिंह तो भाजपा टिकट पर ही 2004 और 2009 में सांसद रहे थे। अब लड़ाई इन दोनों में से बेहतर कौन की हो चुकी है। हालांकि, ये पहला मौका नहीं जब दोनों नेताओं की सियासी मैदान में भिड़ंत होगी। इसके पहले 2014 में संतोष कुशवाहा ने भाजपा से पूर्णिया लोकसभा सीट के उम्मीदवार उदय सिंह को 1,16,000 वोटों से पराजित किया था। पर इस बार मुकाबला कांटे का माना जा रहा है।

क्यों है मुकाबला दिलचस्प

2014 में मोदी लहर के बावजूद पूर्णिया की सीट को जीतने में कामयाब हुए संतोष कुशवाहा ने अपना एक मुकाम बनाया है। लेकिन इस बार उनकी राह आसान नहीं। उदय सिंह महागठबंधन के उम्मीदवार हैं, जिसकी जातीय पकड़ तगड़ी है। न तो राजद, न ही अन्य घटक दलों ने उम्मीदवार उतारे हैं। इसका फायदा उदय सिंह को मिल सकता है। हालांकि दूसरी ओर एनडीए के उम्मीदवार संतोष कुशवाहा भी भाजपा की ओर से कोई उम्मीदवार न होने पर खुश होंगे। भाजपा का कैडर वोट भी इस बार संतोष कुशवाहा के पाले में जाना तय माना जा रहा है।

पूर्णिया सीमांचल क्षेत्र की हॉटसीटों में से एक है। चुनावी वायदों और मुद्दों से ज्यादा यहां जातीय गणित निर्णायक भूमिका में है। अक्सर यह माना जाता है कि लोकसभा चुनाव देश की सरकार चुनने का चुनाव है, जहां क्षेत्रीय मुद्दों से ज्यादा राष्ट्रीय स्तर के फैक्टर मायने रखते हैं। हालांकि पूर्णिया में बात सीधे जातीय हित साधन की है। पूर्णिया में कुल 17,53,649 वोटर हैं, जिनमें 9,10,000 पुरूष तो 8,43,648 महिलाएं हैं। अब ट्वीस्ट यह है कि इनमें से 10,00,000 हिन्दू वोटर हैं जिसमें 5 लाख पिछड़े/अतिपिछड़े मतदाता भी हैं। वहीं 1.5 लाख यादव, सवा लाख राजपूत और सवा लाख ब्राह्मण वोटर हैं। माना यह भी जाता है कि 40 फीसदी मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जदयू को या यूं कहें कि एनडीए को जहां पिछड़े/अतिपिछडे वोटरों से आस है तो वहीं महागठबंधन यादव, मुस्लिम और राजपूत वोटरों पर दांव खेलने को तैयार दीख रहा है। लड़ाई यहीं कड़ी प्रतिस्पर्धा वाली हो जाती है।

क्या रहा है पूर्णिया का सियासी इतिहास

पूर्णिया में 1984 तक कांग्रेस का एकाधिकार रहने के बाद 1989 से दलीय सूरत बदलती नजर आई। 1989 में जनता दल की ओर से सांसद चुने गए मोहम्मद तस्लीमुद्दीन। वहीं 1991 में निर्दलीय तो 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव ने जीत हासिल की। 1998 में भाजपा पहली बार जयकृष्ण मंडल के साथ जीती। 1999 में पप्पू यादव तीसरी बार पूर्णिया से निर्दलीय ही जीते। वहीं 2004 और 2009 में भाजपा की ओर से उदय सिंह ने जीत दर्ज की। 2014 में जदयू की ओर से संतोष कुशवाहा सांसद चुने गए।

पूर्णिया में कई मुद्दे अभी अधर में लटके हैं। फिर चाहे वो पानी की निकासी के लिए ड्रेनेज सिस्टम की बात हो या किशनगंज-पूर्णिया रेल लाइन की। इतना ही नहीं, मंडी से लेकर पुल की जरूरत भी प्राथमिकताएं हैं जिनपर चुनाव लड़े जाने चाहिए। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या संतोष कुशवाहा एनडीए की साख बचा दूसरी बार जीतते हैं या महागठबंधन प्रत्याशी उदय सिंह हैट्रिक लगा सांसद चुने जाते हैं।

सत्यम दुबे