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दि वैक्सिन वाॅर : मिथ्या प्रचार पर वार

प्रशांत रंजन

भारतीय सिनेमा को प्रायः जीवन का उत्सव कहलाने का सुख प्राप्त है। वहीं, इस सिनेमा के यथार्थवादी स्वरूप को समकालीन समाज का दर्पण होने का अधिकार भी है। विवेक रंजन अग्निहोत्री की ताजा फिल्म ’दि वैक्सिन वाॅर’ यथार्थवादी स्वरूप को प्रस्तुत करने वाली फिल्म है। कोरोनाकाल को इतिहास के एक पन्ने के रूप में जब दर्ज किया जाएगा, तो इस फिल्म को भी उस इतिहास का श्रव्य-दृश्य दस्तावेज के रूप में स्थान मिलेगा। भविष्य में इसे इसी कसौटी पर याद रखा जाएगा। हालांकि, इसने मूल विषयवस्तु से परे जाकर नैरेटिव के तिलिस्म को तोड़ने का जो साहस किया है, इससे यह फिल्म थोड़ी और मूल्यवान हो जाती है।

चीन के वुहान शहर में कोरोना विषाणु के पता चलने की सूचना के साथ फिल्म शुरू होती है और एकरेखीय कालानुक्रम में बढ़ते हुए कोवैक्सिन के टीकाकारण अभियान व उससे संबंधित प्रेसवार्ता पर जाकर संपन्न होती है। कथानक एक रेखीय होने के साथ-साथ सपाट भी है। इसलिए मेडिकल थ्रिलर के रूप में प्रचारित किए जाने के बावजूद इसमें थ्रिल की कमी है और ऐसी पटकथा को पौने तीन घंटे तक खींचना दर्शकों के लिए श्रमसाध्य है। ऊपर से रही सही कसर चिकित्सा विज्ञान के जार्गन से भरे संवादों ने पूरी कर दी। मजे की बात है कि एक दृश्य में कैबिनेट सचिव (अनुपम खेर) डाॅ. बलराम भार्गव (नाना पाटेकर) को समझाते हैं कि प्रधानमंत्री जार्गन से इम्प्रेस नहीं होते हैं। संवादों की बात हो रही है कि तो इससे संबंधित एक और बात है कि तथ्यों को स्पष्ट करने में कई बार संवाद उपदेशात्मक हो जाते हैं, कुछ-कुछ ’ओपनहेइमर’ की भांति। जैसे एक जगह डाॅ. रमण गंगाखेड़कर (मोहन कपूर) विषाणु विकसित होने के पीछे चीन की चाल बताते हैं या डाॅ. प्रिया अब्राहम व डाॅ. बलराम भार्गव के बीच लंबे संवाद।

चाॅकलेट, हेटस्टोरी, जुनूनियत जैसी बी-ग्रेड फिल्मों से आगे बढ़कर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने बुद्ध इन ट्रैफिक जाम, दि ताशकंत फाइल्स, दि कश्मीर फाइल्स और अब ’दि वैक्सिन वाॅर’ जैसी सख्त यथार्थवादी फिल्में रचकर भारतीय सिनेमा जगत में अपने लिए विशेष स्थान सुरक्षित किया है। 2016 के पहले ’जस्ट ए फिल्ममेकर’ से अब ’दि विवेक अग्निहोत्री’ की उनकी छवि हालियां फिल्मों ने ही गढ़ी हैं। एक रचकाकार के रूप में वे हर अगली फिल्म से समृद्ध हो रहे हैं। बुद्ध इन ट्रैफिक जाम का पहला दृश्य हो, अथवा दि ताशकंत फाइल्स का बहस-दृश्य, वे लगातार परिपक्व हो रहे हैं।

’दि कश्मीर फाइल्स’ के प्रमुख पात्र एक पूरे वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। ऐसा ही उन्होंने ’दि वैक्सिन वाॅर’ में भी किया है। डाॅ. बलराम भार्गव (नाना पाटेकर) का पात्र भारत के समस्त वैज्ञानिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं डाॅ. गंगाखेड़कर का पात्र भारतीय दृष्टि का द्योतक है। डाॅ. प्रिया अब्राहम (पल्लवी जोशी) हर उस कर्तव्यपरायण कोरोनायोद्धा की प्रतीक हैं, जिन्होंने विकट परिस्थियों में टीका तैयार किया और उनकी सहयोगी प्रज्ञा, निवेदिता आदि ने फ्रंटलाइन वर्कर्स की व्यथा सामने लाती हैं। वहीं दूसरी ओर रोहिणी सिंह धूलिया (राइमा सेन) का पात्र देश में मिथ्या प्रचार तंत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो टूलकिट के माध्यम से हर अच्छे कार्याें पर मिट्टी डालने का कार्य करता है। वह केवल विदेशी टीकों का महिमामंडन ही नहीं करती, बल्कि मर रहे भारतीयों के सामूहिक दाहसंस्कार के फोटो व वीडियो की सौदेबाजी भी करती है।

यहां एक ध्यान देने वाली बात है कि फिल्म के केंद्र में टीका निर्माण है। लेकिन, इसने सरलता व रोचकता से विदेशी शक्ति द्वारा संपोषित टूलकिट गैंग का भी फर्दाफाश किया है। सहज संवादों व फ्लोचार्ट के माध्यम से फिल्म दर्शकों को बकायदा समझाती है कि कैसे एक मिथ्या नैरेटिव देश के बाहर से आता है और उसे पत्रकारीय आलेख, सोशल मीडिया पोस्टों के जरिए वायरल किया जाता है। इसमें पत्रकारों के अतिरिक्त इन्फ्लूएंसर्स, फर्जी सोशल मीडिया खातों की भूमिका होती है। भारतीय टीके कोवैक्सिन को सवालिया निशान के घेरे में रखने के पीछे इसी गैंग का हाथ है, ऐसा यह फिल्म प्रस्तुत करती है।

नैरेटिव पर विमर्श सुधार इस फिल्म की परिधि में है, वहीं टीका निर्माण में लगे वैज्ञानिकों का संघर्ष इसके केंद्र में है। जिस भारत में हेपाटाइटिस का टीका आयात होने में 20 साल लग गए, पोलियो का टीका आने में 17 साल लग गए, उस देश के वैज्ञानिकों ने देसी तकनीक से साल भर के अंदर कोरोना का टीका विकसित कर दिया और कोरोना विषाणु को आइसोलेट करने वाला भारत पांचवा देश बना। टीका निर्माण के घटनाक्रमों तिथि वार ढांचे में रखकर फिल्माना और उसमें रोचकता बनाए रखना साहसी कार्य है। पूरी फिल्म यूनिट को बधाई।

फिल्म अधिकतर समय स्वयं को कार्यालयों व लैब में समेटकर रखती है। तथ्यों की प्रस्तुति के लिए इनसर्ट दृश्यों का बहुत प्रयोग हुआ है, इससे किंचित एकरसता जन्म लेना चाहती है। ऐसे में जंगल में बंदर खोजने के दृश्य चाक्षुष राहत देते हैं। एक ओर आईसीएमआर-एनआईवी की संयुक्त टीम और दूसरी रोहिणी सिंह धूलिया की मीडिया लाॅबी के बीच द्वंद्व स्थापित करने का साधारण प्रयास हुआ है। पहले से तय सत्य कथानक में नाटकीयता भरने की संभावना कम रहती है। इसलिए पटकथा लेखक ने उतनी मात्रा में ही मसाला डाले हैं, जितने से काम चल जाए। वरना, यह ऐसा नाजुक विषय है कि इसमें मसाले की मात्रा बढ़ने से पूरी फिल्म का स्वाद बिगड़ने का खतरा है। गाने के नाम पर ऋगवेद की चंद ऋचाओं का हिंदी अनुवाद- ’’सृष्टि से पहले सत् नहीं था, असत् भी नहीं, छिपा था क्या, कहां किसने ढका था…’’ याद रहने लायक है। इस गाने को श्याम बाबू (बेनेगल) ने 1988 में दूरदर्शन के धारावाहिक ’भारतः एक खोज’ में स्थान दिया था।

पूरी फिल्म को नाना पाटेकर ने अपने कंधे पर ढोया है। सख्त स्वभाव वाले कड़क वैज्ञानिक की भूमिका उन्होंने पूरी स्वाभाविकता के साथ निभाया है, एफर्टलेस होकर। इसलिए हर समय चेहरे पर धीर-गंभीर भाव ओढ़ने वाले डाॅ. बलराम जब दो सहयोगियों को चाॅकलेट थमाते हैं, तो सामान्य दृश्य भी विशेष बन जाता है। पल्लवी जोशी इस फिल्म में भी दि कश्मीर फाइल्स वाले तेवर में हैं। इसके बाद राइमा सेन की भी प्रशंसा होनी चाहिए। रोहिणी सिंह धूलिया के रूप में संभवतः उन्होंने अपने अब तक के करियर का सर्वश्रेष्ठ दिया है।

संवाद अदाएगी से तथ्यों की प्रस्तुति और पात्रों के परिजनों को फ्रेम में लाकर नाटकीयता भरने का उपक्रम। इनसे पूरी फिल्म में रचनात्मक संतुलन बना रहता है। जीवविज्ञान की जटिलताओं को आधार बनाकर फिल्म बनाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जिसे फिल्मकार ने रुचिकर बनाने के प्रशंसनीय प्रयास किए हैं।