Special Ops : संसद हमले का स्पेशल चित्रण

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2001 में भारतीय संसद पर आतंकी हमला हुआ था, जिससे पूरा देश हिल गया था। प्रतिभावान फिल्मकार नीरज पांडेय ने भारत की सुरक्षा तंत्र पर कई फिल्में बनायी हैं। उनकी हालिया रचना ’स्पेशल आॅप्स’ संसद हमले की पृष्ठभूमि पर बनी है।

यह वेब-शो दो हिंदी फिल्मों जितनी लंबी है। हिम्मत सिंह (केके मेनन) राॅ अधिकारी है। संसद हमले के दौरान हुए मुठभेड़ में पांचों आतंकी मारे गए थे। लेकिन, सरकारी रेकाॅर्ड से परे हिम्मत सिंह को विश्वास है कि एक छठा आतंकी भी था, जो बचकर निकल गया। हिम्मत विगत 19 साल से उसकी तलाश कर रहा है। उसके वरीय कर्मी उसपर उपहास करते हैं। यहां तक कि शानदार सर्विस रेकाॅर्ड होने के बावजूद उसके खर्चों की आॅडिट होती है। लेकिन, हिम्मत को अपने काम पर भरोसा है। दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर अब्बास शेख (विनय पाठक) और हिम्मत द्वारा प्लांटेड एजेंटों फारूक (करण टक्कर), रूहानी (मेहर विज), जूही (सेयामी खेर), अविनाश (मुजम्मिल इब्राहिम) व बाला (विपुल गुप्ता) की मदद से छठे आतंकी को कैसे ढूंढता है, इसकी पूरी कथा आठ एपिसोड में कही गई है। विनय पाठक को छोड़कर, अन्य टीवी की दुनिया में अधिक सक्रिय हैं।

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केके, विनय और गौतमी का अभिनय प्रभावी है। केके तो जैसे राॅ अधिकारी की रूह में समाए लगते हैं। धैर्य, क्रोध, चिंता, व्यंग्य, अनुशासन के भावों को संतुलित ढंग से उन्होंने जिया है। जैसे चड्ढा साहब (परमीत सेठी) और डीके बनर्जी के सामने पेश होते समय धैर्य व अनुशासन, हाफिज़ की बात पर क्रोध, बेटी के लिए चिंता, आईबी अधिकारी सूर्य कुमार (शरद केलकर) से बात करते वक्त व्यंग्यात्मक अनुशासन के भावों को केके ने सजहता के लिए प्रस्तुत किया है। उनकी यही विशेषता है। वे सहज रहकर ही कठिन संवाद बोल सकते हैं।
’स्पेशल आॅप्स’ की कहानी नीरज पांडेय ने दीपक किंगरानी व बेनजीर अली के साथ मिल कर लिखी है। दीपक व बेनजीर को-राइटर की भूमिका में हैं। असल में पूरी कथानक पर नीरज की पकड़ दिखती है। पहला एपिसोड तेजी से गुजरता है। एक्शन के साथ। दूसरे से सातवें एपिसोड की गति धीमी रहती है। नीरज की फिल्मों में आप गति को महसूस करते है। ए वेडनेसडे, स्पेशल 26, बेबी, यहां तक की 3 घंटे से ऊपर की एमएस धोनीः दी अनटोल्ड स्टोरी भी। इस वेब सीरीज में ऐसा नहीं है। हां, नीरज की विशेषता पाश्र्वध्वनि रही है। वह यहां भी पूरी सशक्तता के साथ उपस्थित है।

’स्पेशल आॅप्स’ की कथा परत दा परत खुलती है। हिम्मत का कार्यालय, उसके अधिनस्थ कर्मचारी, सीनियर, एजेंट की कहानी है। फिर उसकी पत्नी सरोज (गौतमी कपूर) व बेटी परी सिंह (रेवती पिल्लई) के अंतरसंबंध हैं। पत्नी की चिंता, बेटी की महत्कांक्षा और पिता का दायित्व। इसके बार देश की सरकार और सीमा पार पड़ोसी के रिश्ते। बहुकोणीय कहानी को हिम्मत का किरदार एक सूत्र में बांधता है। हिम्मत को देखते हुए ’दी फैमली मैन’ के श्रीकांत तिवारी (मनोज बाजपेयी) याद आ सकते हैं। वह नोटबंदी के समय चार हजार रूपए निकालने के लिए ढाई घंटे लाइन में खड़ा रहता है। व्यक्तिगत कामों में अब्बास को जयहिंद बोलने से मना करता है। अपनी बेटी का मोबाइल सर्विलांस पर रखता है। एजेंटों का खयाल रखता है। कसाब से वह बड़े अलबेले अंदाज में मिलता है। हिम्मत के बाद सबसे अधिक फारूक पर फोकस है, उसके बाद अब्बास और हाफिज़ अली। फारूक के अलावा अन्य एजेंटों के बारे में खानापूरी करने लायक जानकारी दी जाती है। इसका कारण है कि एक ही सीजन में पूरी कथा पूर्ण करने की रणनीति हो।

’स्पेशल आॅप्स’ एक वेब-शो है। लेकिन, बुनावट फिल्म जैसी ही है। स्वयं नीरज भी मानते हैं कि ’स्पेशल आॅप्स’ के किरदार, पृष्ठभूमि, कहानी की गति, क्लामेक्स आदि एक टिपिकल फिल्म की तरह ही है, बस 7 घंटे की अवधि को छोड़कर। नीरज ने इस कहानी को दिखाने के लिए वेब-मंच चुना, क्योंकि दो-ढाई घंटे की फिल्म में कहानी का इतना विस्तार संभव नहीं था। वेब-मंच पर ’स्पेशल आॅप्स’ से उन्होंने अपनी पारी शुरू की है। बकौल नीरज, बड़े पर्दे के विपरीत, वेब-मंच पर तीन दिनों में व्यवसाय करने का दबाव नहीं होता। धीरे-धीरे माउथ पब्लिसिटी से एक वेब शो को लंबे समय तक लोग देखते हैं। इसमें सिनेमाघर की तरह स्थान अथवा समय की बाध्यता नहीं होती। दूसरा पक्ष यह है कि दो घंटे की फिल्म के विपरीत सात घंटे के वेबशो की कहानी में गति व रोचकता बरकरार रखना श्रमसाध्य कार्य है।

सारे एपिसोड को नीरज पांडेय ने शिवम नायर के साथ मिलकर निर्देशित किया है। नायर का निर्देशन हम ’नाम शबाना’ में देख चुके हैं। नीरज निर्मित ’नाम शबाना’ को ’बेबी’ के प्रिक्वल के रूप् में प्रचारित किया गया था। आतंकवाद नीरज का पसंदीदा विषय रहा है। इन विषयों को पर्दे पर लाने के सारे मसाले उनके पास हैं। पृष्ठभूमि व किरदार गढ़ने और फिर रहस्यमयी अंदाज में घटनाओं को जक्स्टापोज करने में उन्हें महारत हासिल है। भारतीय सिनेमा वाले पारंपरिक मेलोड्रामात्मक सम्मोहन से वे बचते हैं। फिल्मांकन में प्रोडक्शन वैल्यू का विशेष ध्यान रखते हैं। यही कारण है कि साधारण संवाद, संगीत व कथा को भी वे आकर्षक बनाकर सामने लाते हैं। वे अपने किस्म के जीनियस हैं। ’अय्यारी’ को छोड़कर उनकी सारी फिल्मों को दर्शकों ने प्यार दिया है। हर इंसान से चूक होती है। नीरज भी परफेक्शन के करीब वाले फिल्मकार हैं।

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