पटना: दक्षिण भारत में दलितों के अधिकार व उत्थान के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले दलित नेता रामास्वामी नायकर का प्रभाव उत्तर भारत के एक सुदूर गांव के एक दलित युवा पर ऐसा पड़ा कि उसने पुलिस की नौकरी ठुकरा कर राजनीति के जोखिम भरे मार्ग पर आजीवन चलने का दृढ़ संकल्प लिया। ताकि वह अपने समाज के दुख-दर्द को समाप्त कर सके, उन्हें उनका अधिकार दिला सके।
वही युवक आगे चलकर महान दलित नेता बाबू जगजीवन राम के उतराधिकारी बनकर उभरा। हां, हम बात कर रहे हैं दिवंगत जननेता रामविलास पासवान की। गुलाम भारत में वर्ष 1946 में जन्म लेने वाले रामविलास पासवान ने स्वतंत्र भारत में होश सम्भाला था। गांधीजी के लाख प्रयास के बावजूद दलितों की स्थिति संतोष जनक नहीं थी। युवा रामविलास पासवान ने राजनीति के माध्यम से संघर्ष का रास्ता अपनाया। अपनी सायकिल बेच दी और अपने गृह जिले खगड़िया के अलौली (सु) क्षेत्र से 1969 में पहली बार संसोपा के टिकट पर विधायक चुने गये।
1972 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद वे कटिहार के कोढा से उपचुनाव में उतरे, लेकिन जीत नहीं सके। पहली बार सन 1969 में राम विलास पासवान का नाम बिहार की राजनीति में चर्चा में आया था। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे संसोपा के विधायक बनकर पटना आए थे। बल्कि इसलिए कि विधायक चुनकर आते-आते उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) विधायक दल के नेता पद के उम्मीदवार के रूप में उन्होंने स्वयं को पेश किया था।
1969 में बिहार विधान सभा चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 50 विधायक विजयी हुए थे। उस समय पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र कायम थी। संसोपा विधायक दल के नेता पद का चुनाव हो रहा था। प्रसिद्ध समाजवादी नेता रामानंद तिवारी और धनिकलाल मंडल के बीच चयन कि चर्चा थी। लेकिन, अचानक राम विलास पासवान भी उम्मीदवार बन गए थे। उनके इस हिम्मत भरे कार्य से उस समय के पत्रकारों व नेताओं को आश्चर्य हुआ था। लेकिन, अपने इस निर्णय से वे अचानक सुर्ख़ियों में आ गए थे।
शालीन व्यवहार के धनी रामविलास जी दोस्तपरस्त व्यक्ति थे
राजनीति में जो लोग हैं या आते रहते हैं,वे पासवान जी से शालीनता,विनम्रता सीखें,यदि उनमें इन गुणों की कमी है। वे ऐसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आते थे, जिसके सदस्य में उत्पीड़क लोगों के लिए गुस्सा स्वाभाविक है। लेकिन, रामविलास पासवान के व्यवहार में वैसी तल्खी नहीं थी। रामविलास पासवान के जीवन से विधायिका के नए सदस्यों को सीखना चाहिए। वे संसद या विधान सभा के ‘जीरो आॅवर’ और ‘आधे घंटे के डिबेट’ की सुविधाओं का बेहतर इस्तेमाल करते थें। जिसके कारण उनकी छवि निखरी थी।