‘परीक्षा’ में पास हुए प्रकाश झा, इन वजहों से देखें यह फिल्म
अगर कोई अनुभवी खिलाड़ी लंबे समय बाद मैदान पर उतरे, तो उसके लटके-झटके में कमी हो सकती है, लेकिन उसके निष्णात कौशल में कमी नहीं दिखेगी। दिग्गज फिल्मकार प्रकाश झा की हालिया फिल्म ‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ देखने के बाद झा के बारे में यही खयाल आता है।
‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ में एक रिक्शेवाला द्वारा अपने बेटे को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने के संघर्ष की कथा है। बुच्ची (आदिल हुसैन) रिक्शे से बच्चों को रांची के महंगे निजी स्कूल में पहुंचाता है। लेकिन, विडंबना है कि उसका अपना बेटा बुलबुल कुमार (शुभम झा) सरकारी विद्यालय में पढ़ने को विवश है। पढ़ाई को जीने—मरने का प्रश्न समझने वाला बुच्ची कहता है— ”इस नरक से निकलने का एक पढ़ाई ही रास्ता है।” या ”हम औकात से ज्यादा सपना देख लिए।” ये दोनों संवाद वंचित तबके के पूरी मनोदशा को व्यक्त करते हैं। कैसे वह अपने बेटे को निजी स्कूल में दाखिला करवाता है और उसमें क्या बाधाएं आती हैं, ‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ इसी की दास्तां है। आदिल हुसैन के बेजोड़ अभिनय को छोड़ दें, तो पूरी फिल्म में प्रकाश झा की ही छाप है। संवादों, लहजों, दृश्यों, पात्र चित्रण आदि। उनकी फिल्मों में बिहार एक अलग रूप में दिखता है। बिहार से कटकर रांची अब झारखंड की राजधानी भले हो गई हो। लेकिन, यहां भी बिहार को आप महसूस करेंगे। अच्छा या बुरा, यह आप पर निर्भर है। एडिटर संतोष मंडल और सिनेमैटोग्राफर सचिन कृष्ण के साथ झा की पुरानी ट्यूनिंग हैं। एक ने अपने लेंस में कथा को कैद किया, तो दूसरे ने उपयुक्त स्थानों पर कैंची चलाकर दृश्यों को तराशा। बटुआ लौटाने वाला दृश्य अनावश्यक रूप से लंबा हो गया है। हालांकि, इतने दृश्यों के भीड़ में एकाध की फिसलन स्वीकार्य होना चाहिए। दोनों तकनीशियन झा के मनोभावों को पढ़ लेते हैं। यथार्थ की कथा को कृत्रिम सेट पर फिल्माना झा के लिए सहुलियत भरा कार्य है। लेकिन, इस फिल्म को उन्होंने रांची शहर के रियल लोकेशन पर फिल्माया है। झा के सिनेमाई चश्मे से हम रांची को देखते हैं— भदेस, ठेठ, धनपशु, नेता आदि।
समकालीन सच्चाईयों को चुटीले नाट्य प्रभाव के साथ फिल्मों में ढालना प्रकाश झा को पसंद है। इसमें व्यावसायिक कोणों को भी वे चतुराई से साध लेते हैं। सिनेमा जैसी महंगी विधा के लिए यह आवश्यक भी है। ‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ में एसपी कैलाश आनंद (संजय सूरी) का किरदार बिहार के चर्चित आईपीएस अधिकारी अभयानंद से प्रेरित है। पुलिस सेवा के अतिरिक्त वे गरीब बच्चों को आईआईटी प्रवेश परीक्षा की तैयारी करवाने के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
अपनी झोली में आधा दर्जन से अधिक राष्ट्रीय पुरस्कार बटोरने वाले प्रकाश झा खुरदरे यथार्थ को नाटकीयता के साथ फिल्माने के लिए जाने जाते हैं। दामुल और मृत्युदंड में चूभने वाला यथार्थ रखा, फिर गंगाजल व अपहरण में नमक-हल्दी जितने मसाले डाले। लेकिन, 2010 में ‘राजनीति’ में गरम-मसाला डालकर परोस दिया। फिर आरक्षण, चक्रव्यहू, सत्याग्रह उसी राह पर रही। 2016 में ‘जय गंगाजल’ जायी, तो लगा कि झा के तरकश में तीरों की कमी हो रही है। लेकिन, चार साल के अंतराल के बाद ‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ के मध्यम से उन्होंने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज की है। फिल्म की पूरी बनावट से मानो वे कह रहे हों कि वे अभी अप्रासंगिक नहीं हुए हैं। उन्होंने पुन: सिद्ध किया है कि वे बिहार से निकले एक यथार्थवादी सिने शिल्पी हैं।
‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ शीर्षक से स्पष्ट होता है कि फिल्म शिक्षा व्यवस्था से संबंधित होगी। यह है भी। लेकिन, झा की फिल्म में जाति व राजनीति न हो, तो फिल्म पूरी नहीं होती। हालांकि यह कथानक की विषयवस्तु के अनुरूप तर्कसंगत भी है। झा की विशेषता है कि वे एक विषय पर फिल्म बनाते हैं, साथ-साथ समाज की कई अन्य विसंगतियों को भी रेखांकित करते हैं। जैसे ‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ में केंद्र में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा है। लेकिन, उसकी परिधि में दलित समाज, बाहुबल की राजनीति, आर्थिक असमानता, राजनीतिक महत्वकांक्षा भी है। परिधि के विषयों को अधिक जोर देने के कारण केंद्रीय विषय थोड़ा धुंधला हो गया है। झा की मजबूरी है कि 2 घंटे से भी कम अवधि की फिल्म में क्या दिखाएं और क्या छोड़ दें? क्योंकि एक फिल्मकार के रूप में वे समाज को संश्लिष्ट रूप में देखते है। यही गुणधर्म उनकी फिल्मों को विशेष बनाती हैं, तो कभी—कभी कमजोर भी। अगर, आपको ‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ देखते समय लगे कि फिल्म शिक्षा के असल समस्याओं से भटक रही है, तो समझिए कि उसके पीछे झा का यही गुणधर्म काम कर रहा है।
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि विगत वर्ष ही पूर्णरूपेण बनकर तैयार यह फिल्म एक ऐसे समय पर रिलीज (Zee5) हुई है जब देश में नई शिक्षा नीति लागू हो रही है और कोरोनाकाल में आॅनलाइन माध्यम से शिक्षा की परंपरागत पद्धति बड़े बदलाव से गुजर रही है। इस संदर्भ में ‘परीक्षा— दी फाइनल टेस्ट’ एक प्रासंगिक फिल्म बन पड़ी है।