सिनेमा विधा की एक विशेषता है कि यह एक साथ कई बातें कह देती हैं और इसमें सबसे बड़ी भूमिका सशक्त पटकथा की होती है। अनु मेनन निर्देशित और विद्या बालन अभिनीत फिल्म ‘शकुंतला देवी’ आज रिलीज हुई है। यह फिल्म अंकगणित की विश्वप्रसिद्ध विदूषी शकुंतला देवी की बायोपिक है।
फिल्म में शकुंतला देवी के जीवन से जुड़ी घटनाओं को बचपन से लेकर उनकी प्रसिद्धि तक को दर्शाया गया है। पटकथा नॉनलीनियर कथानक के साथ आगे बढ़ती है इससे सपाट कहानी को दिलचस्प बनाने में मदद मिली है। पेशे से इन्वेस्टमेंट बैंकर और तीन अंग्रेजी उपन्यास लिख चुकीं नयनिका महतानी ने इसकी कथा—पटकथा लिखी है। अपनी पहली पटकथा में ही उन्होंने फिल्मी क्राफ्ट की बुनावट को समझा है। सपाट कथानक में नाटकीयता का ज्वार—भाटा उत्पन्न करना उन्हें बखूबी आता है। पटकथा के ढांचे में चुटीले संवाद कसावट भरते हैं। इस फिल्म के संवाद लिखने वाली इशिता मोइत्रा ने दृश्यें के अनुरूप हास्य से लेकर गंभीर संवाद कलाकारों के हिस्से में प्रदान किया है। विनोदी संवादों के कारण ही शकुंतला का मस्तमौला किरदार खुलकर सामने आता है। साथ ही मां—पत्नी के अलावा एक औरत का औरत होना जैसे गंभीर संवाद पूरी फिल्म के बहुपरतीय होने की शर्त पूरी करने में मदद करते हैं।
अगर फिल्मकार की दृष्टि व्यापक हो, तो वह सामान्य कथानक को भी न केवल रुचिकर ढंग से प्रस्तुत करता है, बल्कि कथानक को बहुत रखिए बनाकर सामान्य अर्थों के मुकाबले कई गहरे संदेश भी छोड़ जाता है। अनु मेनन इस में सफल हुई हैं। फिल्म ‘शकुंतला देवी’ न सिर्फ मानव कंप्यूटर शकुंतला देवी के जीवन घटनाओं का वर्णन करती है, बल्कि उनके जीवन की आड़ लेकर विवाह संस्था, परिवार संस्था और अभिभावक संस्था पर भी एक विमर्श का मंच तैयार करती है। शकुंतला देवी की बायोपिक से परे जाकर अगर दृष्टिपात करते हैं तो यह इस फिल्म की बड़ी विशेषता प्रतीत होती है।
जब से इस फिल्म के निर्माण की खबरें आने लगीं और निर्माण के बाद इसके पोस्टर तथा ट्रेलर आदि जारी हुए तब से मन में एक सामान्य धारणा थी कि इस फिल्म में अंकगणित की जादूगरनी का जीवन परिचय होगा। लेकिन, फ़िल्म उससे आगे निकल गई। फिल्म देखने के पहले लगा था कि यह फिल्म स्कूली बच्चों को जरूर देखना चाहिए, ताकि वह शकुंतला देवी जैसी जीनियस से परीक्षा सकें। फिल्म देखने के बाद यह भाव यथावत रहा कि यह फिल्म किसी छात्र या छात्रा को गणित के प्रति प्रेरित कर सकती है। लेकिन, इससे जरूरी यह लगा कि इस फिल्म को छोटे बच्चों के अभिभावकों को जरूर देखना चाहिए क्योंकि इसमें बच्चों की परवरिश और मां-बाप के रूप में दंपतियों के साहचर्य की भी सूक्ष्मता से चर्चा की गई है। फिल्म देखते हुए एक सुधि दर्शक के रूप में हमारा ध्यान इन पहलुओं पर जाना चाहिए, तब ही इस फिल्म के भाव का अधिकतम संप्रेषण हो सकेगा।
शकुंतला देवी के पात्र को विद्या बालन ने पूरी सहजता के साथ जिया है। एफर्टलेस एक्टिंग उनकी विशेषता है। इस तरह की एक्टिंग दूसरे कलाकारों के बूते की बाहर की चीज है। परितोष बनर्जी के किरदार में जिशु सेनगुप्ता विद्या बालन की अभिनय धार के साथ बहते हैं। शकुंतला देवी की बेटी अनुपमा बनर्जी के किरदार को सान्या मल्होत्रा ने उतारने की भरसक कोशिश की है। अनुपमा के पति अजय कुमार की भूमिका में अमित साध औसत हैं। ताराबाई के किरदार में शिबा चड्ढा अल्पावधि में ही अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं।
प्रोडक्शन वैल्यू की कसौटी पर फिल्मकार की मेहनत दिखती है। एक ही फिल्म में 50 के दशक के लंदन से लेकर 90 के दशक का बैंगलोर तक दिखाना श्रमसाध्य कार्य है। मकान, वाहन, परिधान, तकनीक, अखबार और चिट्ठियां… सबको कालानुसार दर्शाने की कोशिश हुई है। किरदार से लेकर प्रॉप्स तक में सूक्ष्म शोध की झलक है।
फिल्म शकुंतला देवी न सिर्फ एक महान हस्ती की बायोपिक है, बल्कि तेजी से बदल रहे सामाजिक समीकरण में स्वयं के लिए अपने अनुकूल माहौल तलाशने और अपने करीबियों के लिए सहज वातावरण उपलब्ध कराने की कशमकश पर सिनेमाई प्रतिवेदन भी है। निर्देशक अनु मेनन को अपने करियर में अब तक की सबसे अच्छी फिल्म बनाने के लिए बधाई।