ये तो झोंके हैं पवन के
हैं ये घुंघरू जीवन के
ये तो सुर हैं चमन के
खो न जाएं ये तारे जमीं पर…
अगर आपको याद हो, तो ये बोल 2007 में आई फ़िल्म तारे जमीन पर की है। इस फ़िल्म के माध्यम से बचपन को सहेजने और सँवारने का संदेश दिया गया है। आप और हम जब कभी अपने बचपन की यादों में लौटते हैं तो आज भी उन यादों की शरारतों से आँखों में एक अज़ब सी चमक आ जाती है और शरीर हर्षित हो जाता है। लेकिन, क्या हमारे आस-पास के हर बच्चे की बचपन की तस्वीर हमारे बचपन से मिलती जुलती है? बेशक नहीं, अगर हम अपने आसपास देखें, तो एक कड़वी सच्चाई से रूबरू हो जाएंगे, जो है बालश्रम। इस बालश्रम के विरोध में कई सामाजिक कार्यकर्ता सामने आए, कई एनजीओ आए और कई कड़े कानून बनाए गए। लेकिन, फिर भी कहीं किसी रेस्तरां में बर्तन धोते, तो किसी फुटपाथ पर सामान बेचते, तो किसी रेल के डिब्बे में कचरा साफ करते आपको रोजाना कई बच्चे दिख जाते होंगे। दिवाली में जिन पटाखों को खरीदकर हम अपने बच्चों को खुश करते हैं उन पटाखों को बनाने में कितने बच्चों की आँखे चली जाती हैं, तो कुछ को फेंफड़े संबंधी समस्या हो जाती है और कुछ की तो मृत्यु भी हो जाती है। पर, हम ये सब बातें क्यों सोचें?
क्या हो गया जो चिल्लर पार्टी, स्लम डॉग मिलियनेयर, नन्हें जैसलमेर, झलकी जैसी फ़िल्में आती हैं और हमारे समाज का कुरूप चेहरा दिखाती है। मनोरंजन करने के सिवाय फ़िल्मों की हमारे जीवन में भूमिका ही क्या है? कैलाश सत्यार्थी जैसे लोगों का नाम सिर्फ सुनने और अखबारों में पढ़ने के लिये ही होता है।
माना कि गरीबी एक कारण है बाल मज़दूरी में वृद्धि का लेकिन मनुष्यों में संवेदनशीलता की कमी, बच्चों में उच्च शिक्षा की कमी ऐसे कई कारण हैं जिसके कारण इन मासूम बच्चों को ऐसा निर्मम जीवन जीने के लिये विवश किया जा रहा है। यदि भारत की बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक 7-8 करोड़ बच्चे अनिवार्य शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। ऐसे बच्चे ही गरीबी के कारण बाल मज़दूरी के तरफ ढकेल दिये जाते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में पाँच से चौदह साल के लगभग 26 करोड़ बच्चों में से लगभग एक करोड़ बच्चे बालश्रम की चपेट में हैं।
माना कि बाल मज़दूरी ने जिस प्रकार अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं इसका विरोध करना इतना आसान नहीं पर यदि हम थोड़ी कोशिश करें और खुद को संवेदनशील बनाएं, तो इतना मुश्किल भी नहीं। बालश्रम का विरोध करने और इसके प्रति जागरूकता फैलना के लिये ही 2002 से 12 जून को विश्व बालश्रम विरोधी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। आइए हम भी बालश्रम का विरोध करें…
(शांभवी शिवानी)