इतिहास लेखन का साक्ष्य है सिनेमा : प्रो. पीयूष कमल

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Prof. Piyush Kamal Sinha

समाज व संस्कृति का कालानुसार दास्तावेजीकरण करतीं हैं फिल्में

इतिहास लेखन में साक्ष्यों का बड़ा महत्व होता है। अन्य साक्ष्यों की भांति फिल्में भी इतिहास लेखन की दृष्टि से महत्वपूर्ण साक्ष्य हो सकती हैं। उक्त बातें फिल्म इतिहासकार एवं मगध विश्वविद्यालय के शिक्षक प्रो. पीयूष कमल सिन्हा ने कहीं। वे रविवार को पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी के आॅनलाइन कार्यक्रम में बतौर मुख्य वक्ता बोल रहे थे।

प्रो. सिन्हा ने वी. शांताराम, बिमल रॉय, राजकपूर की फिल्मों का उदाहरण देते हुए बताया कि समाजविज्ञानियों की भांति भारत के फिल्मकारों ने औपनिवेशिक काल को दर्ज किया है। उन्होंने ओएस फाउलर व सत्यजीत रे का जिक्र करते हुए कहा कि फिल्मों ने मनोरंजन के साथ—साथ देश व समाज के बदलते परिवेश का रोचक व प्रामाणिक चित्रण किया है। राजा हरिश्चंद्र, कालिया मर्दन, लंकादहन, कंसवध, लवकुश, भक्त प्रह्लाद जैसी फिल्मों ने धार्मिक इतिहास को आधुनिक माध्यम की सहायता से प्रस्तुत किया, वहीं औपनिवेशिक भारत के जीवन को भी 1930 व 40 के दशक की फिल्मों ने चित्रित किया है। ये फिल्में भारतीय मानस की गहराई से जुड़ी हैं।

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प्रो. सिन्हा ने कहा कि श्रमिकवर्ग की दशा का चित्रित करतीं फिल्में ‘दो बीघा जमीन’ ‘सत्यकाम’, ‘काला सोना’ आदि ने अपनी प्रासंगिकता सिद्ध की है। इसी प्रकार स्त्री विमर्श को लेकर दामिनी, दामुल, लज्जा जैसी फिल्में सामने आती हैं। दरअसल रूपहले पर्दे की कहानी समाज के बीच से होकर निकलती हैं। अपने विकासक्रम में सिनेमा ने मानवजीवन की संवेदनाओं को स्पर्श किया है। सिनेमा ने संस्कृति को अभिव्यक्ति प्रदान किया है। इस कड़ी में मदर इंडिया, नया दौर, पूरब और पश्चिम जैसी फिल्में उल्लेखनीय हैं।

तेजी से बदलते भारत का संकेत, उपभोग, मूल्यों का विखंडन, राजनीति का अपराधीकरण की झलक भी समकालीन फिल्मों में मिलती हैं। हमारे फिल्मकारों ने समाज के बदलते परिवेश से परहेज नहीं किया और
नए विमर्श को सिनेमा ने अनदेखी नहीं की। इसी का परिणाम है कि समय के साथ हमें सत्या, कंपनी, हथियार,गंगाजल, अपहरण, थ्री इडियट्स, मुन्नाभाई एमबीबीएस, ट्रैफिक सिग्नल, माचिस, पिपली लाइव जैसी फिल्में बनीं। ये फिल्में समाज में गूंजने वाली ध्वनि की प्रतिध्वनि हैं।

कई दर्शक सिनेमा के प्रत्येक घटना को सत्य मान लेते हैं। दृश्य को अधिक कलात्मक बनाने के लिए फिल्मकार उसमें फेरबदल करते हैं। फिल्म का मूल्यांकन करने के पूर्व आवश्यक बातों का ध्यान करना चाहिए। सर्वप्रथम निर्माण प्रक्रिया से अवगत होना चाहिए। कहानी, पटकथा लेखन, शूटिंग, वितरण। इनसे अवगत होकर ही सिनेमा को इतिहास लेखन के साक्ष्य के रूप में प्रयोग करना चाहिए।

आज इतिहासकारों के लिए आवश्यक है कि वे फिल्मों के ऐतिहासिक क्षमता को स्वीकार करें। इतिहास लेखन में फिल्में अपना योगदान दे सकती हैं। फिल्मों के रूप में हमारे पास साक्ष्यों की प्रचुरता है। इतिहास का आधिकारिक स्रोत हैं फिल्में।

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