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हिंदू हित/अहित पर मंदिरों की उदासी क्यों?

आखिरकार जनवरी, 2020 में केरल के मालाबार चर्च को समझ में आ गया कि मुसलमानों का ’लव जेहाद’ ईसाई समुदाय के वजूद के लिए वास्तविक चुनौती है। उसने अपने सभी संगठनों को यह निर्देश देने का फैसला किया कि ईसाई युवाओं को इस ’खतरे’ से सावधान करने का अभियान चलाया जाए।

लेकिन, सहिष्णु बहुसंख्यक हिंदू समाज अब भी मुगालते में है कि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हिंदुओं ने तो धर्म के लिए युद्ध करने और फल की चिंता किये बिना कर्म करने का दर्शन देने वाली भगवत् गीता से भी युद्ध से पलायन और अकर्मक रहने का सुविधाजनक तर्क ढूँढ़ लिया है। हमने मान लिया कि जब-जब अधर्म बढ़ेगा, भगवान अवतार लेकर हमारे दुख दूर करने का वचन तो पूरा करेंगे ही, हमें सिर्फ मंदिर में फूल-माला-पैसा चढ़ाना है।

अधिकतर हिंदू (आस्तिक) सामूहिक अस्तित्व के लिए नहीं, केवल व्यक्तिगत कल्याण और मोक्ष की कामना के लिए मंदिर जाता है. ..और पुजारी-महंत केवल चढ़ावे की धनराशि पर नजर रखते हैं।

मंदिर टूटें, मूर्तियां तोड़ी जाएं, उन्हें चोर ले जाए, धर्म ग्रंथ फाड़े जाएं, धर्मान्तरण के हथकंडे अपनाये जाएं, संस्कृत का अध्ययन मरणासन्न हो जाए, जन्मदिन पर केक काटने की परम्परा हिंदू घरों में प्रचलित हो जाए, पीपल-वट जैसे पूजनीय पेड़ काटे जाएं, पवित्र नदियों में शहर के नाले बहाये जाएं, दहेज के लिए लड़कियां मारी जाएं…इनमें से कोई भी मुद्दा परम अकर्मण्य हिंदू आस्था केंद्रों को जरा भी विचलित नहीं करता।

ये बड़े गर्व से अपनी संपत्ति बताते हैं कि इनकी दैनिक या वार्षिक कमाई क्या है। जो समुदाय इन पर धन निछावर (या बर्बाद) करता है, उसके सामूहिक कल्याण, परिष्कार और प्रबोधन में मंदिर की कोई भूमिका क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या यह बिना जिम्मेदारी के धन-सम्मान पाने का मामला नहीं है? क्या हमारे बड़े-बड़े मंदिर और स्वर्ण शिखर वाले देवालय पचास साल बाद के गजनवियों, खिलजियों और बाबरों के द्वारा लूटे जाने के लिए संपदा जुटा रहे हैं? और याद रखिये अब अगर मंदिर लूटे गए, तो गजनवी-खिलजी बाहर से नहीं, किसी पड़ोसी मोहल्ले या शहर से आया हो सकता है।

मंदिर के आचार्यों-मठाधीशों ने आधी सदी बाद के संकट से निपटने के लिए अब तक कोई तैयारी शुरू क्यों नहीं की?
लव जेहाद, मिशन स्कूलों की तालीम और हर जुमे को हजारों मस्जिदों में होने वाली तकरीरों का असर नागरिकता कानून के विरोध के बहाने जामिया मिलिया विश्वविद्यालय (दिल्ली), शाहीन बाग, सेंट स्टीफेंस कालेज, जेएनयू, आइआइटी (कानपुर) और मुम्बई के गेट-वे आफ इंडिया तक अपने विराट रूप में प्रकट हुआ, लेकिन हमारे मंदिरों ने भगवान की मूर्तियों से ध्यान हटा कर अपने आस-पास के संकटों पर विचार करना भी जरूरी नहीं समझा। कोई धर्म संसद तक नहीं बुलायी गई। क्या सब-कुछ केवल दो लोगों (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह) पर छोड़कर 100 करोड़ के हिंदू समाज को सो जाना चाहिए?

25 साल के भीतर इस्लामी लव जेहाद ने भारत में हिंदू कन्याओं को प्रभावित करने के लिए अपने ब्रांड अम्बेसडरों की पूरी आकाश गंगा (स्टार लाइन) बना दी। रत्ना पाठक (शाह), गौरी (खान), अमृता सिंह (खान), किरण राव (खान), सारिका (हसन), करीना कपूर (खान) और मलाइका(अरोड़ा) के स्टार-धर्मान्तरण को निर्विरोध सामाजिक स्वीकृति मिलना क्या सामान्य घटना है? क्या इससे देश के जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ने की प्रवृत्ति नहीं बढ़ेगी?

नागरिकता कानून से हिंदू शरणार्थियों को लाभ होने वाला है, लेकिन कोई शीर्ष मंदिर प्रबंधन इसके समर्थन में खड़ा नहीं हुआ, क्यों? मुसलिम समाज को नागरिकता कानून से कोई नुकसान नहीं, लेकिन जुमे की नमाज के बाद मस्जिद के पास और जामिया जैसे मुसलिम संस्थानों में ही कानून के खिलाफ ज्यादा तकरीरें हो रही हैं, ऐसा क्यों?

दरअसल, एक हजार साल से मंदिरों-मठों ने सामाजिक मुद्दों को अछूत मान लिया है, इसलिए हमारे बीच मणिशंकर, ममता, दिग्विजय, दीपिका, सत्या, अनुराग, कन्हैया जैसे हिंदू विरोधी महानुभाव पैदा होते हैं। हमारे आसपास के किसी बड़े मंदिर-मठ, काशी विश्वनाथ मंदिर, तिरुपति बालाजी, सिद्धि विनायक ( मुंम्बई), महावीर मंदिर (पटना), वैष्णो देवी मंदिर, अयोध्या के महंत, द्वारिकाधीश मंदिर न्यास, संत समुदाय और कुबेर जैसी संपदा के स्वामी चारों शंकराचार्यों को न तो ’लव जेहाद’ का संकट दिखाई पड़ा, न इस उपमहाद्वीप के करोड़ोें पीड़ित हिंदुओं के हित में लाये गए नागरिकता कानून से कोई प्रसन्नता हुई।

जब भगवान सर्वव्यापी है, तो मंदिर क्यों जाएं? जब मंदिर के चढ़ावे हिंदू समाज के काम नहीं आने वाले हैं, तो क्यों वहां सोना-चांदी दान करें? हमारे कर्म के अनुसार जब ईश्वर फल देता ही है, तब बिचैलियों (पंडित-पुजारी) की सेवा क्यों की जाएँ? उन मंदिरों का बहिष्कार क्यों न किया जाए जो ’लव जिहाद’ और नागरिकता कानून जैसे मुद्दों पर मौन रहे? क्या सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर तटस्थ रहना केवल मंदिरों की जिम्मेदारी है, चर्च और मसजिदों की नहीं?