Dil Bechara में सुशांत का अनदेखा रूप, इन वजहों से देखें फिल्म
आजकल फास्ट फूड व करियरोन्मुखी जीवनशैली में हर चीज में नफा-नुकसान देखा जाता है। बचपन से भविष्य संवारने की नसीहत दी जाती है। दीर्घकालीक निवेश के सूत्र अखबारों व टीवी में बताए जाते हैं। लेकिन, रुकिए। जीवन ऐसा ही नहीं होता। यह थोड़कर हटकर भी हो सकता है। फिल्म ‘दिल बेचारा’ देखने के बाद जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण व्यापक हो सकता है। 2012 में प्रकाशित जॉन ग्रीन के उपन्यास ‘दी फॉल्ट इन आवर स्टार्स’ की कहानी पर यह फिल्म बनी है। इससे पूर्व 2014 में उपन्यास के शीर्षक से ही अमेरिका में एक फिल्म बन चुकी है।
इमानुएल राजकुमार जूनियर उर्फ मैनी (सुशांत सिंह राजपूत) कृत्रिम पैर के बल पर उछलकूद मचाने वाला मस्तमौला है। दूसरी ओर 24 घंटे आॅक्सिजन सिलिंडर पीठ पर लादे किज़ी बासु (संजना संघी) है। इस्पातनगरी जमशेदपुर में दोनों मिलते हैं और एक-दूसरे की यथास्थिति से अवगत होते हैं। असाध्य रोग के कारण मृत्यु बेसब्री से दोनों की प्रतीक्षा कर रही है। लेकिन, मैनी व किज़ी जिंदगी के छोटे पलों को भी बड़ा बनाकर जीते हैं। मैनी रजनीकांत का बड़ा फैन है। जैसे रजनीकांत अपनी फिल्मों में लार्दर दैन लाइफ किरदार अदा करते हैं, मैनी अपने असल जीवन में भी लार्जर दैन लाइफ जी रहा होता है। किसी को प्रेरणा कहीं से मिल सकती है। ‘दिल बेचारा’ का मूल दर्शन यही है। सुशांत ने अपनी अंतिम फिल्म में न भूलने वाला अभिनय किया है। ऐसा अभिनय शायद ही उन्होंने अपने पहले की फिल्मों में किया हो। इसमें कुलीन बंगाली परिवार की महक है और साथ में मैनी के दोस्त जेपी का ठेठ बिहारी अंदाज की झलक है। सुशांत के बिहार निवासी होने के निमित फिल्म के किरदारों में बिहारीपन इस अभिनेता के प्रति आदरांजलि हो सकती है।
हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा की बतौर निर्देशक यह पहली फिल्म है और दुर्योग ऐसा कि सुशांत सिंह राजपूत की यह आखिरी फिल्म है। सुशांत अब इस दुनिया में नहीं हैं। अगर होते, तो भी इस फिल्म का मूल्यांकन वैसे ही होता, जैसा अब हो रहा है। हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया, बद्रीनाथ की दुल्हनिया व धड़क जैसी मसाला फिल्में निर्देशित कर चुके शाशांक खेतान ने सुप्रतीम सेनगुप्ता के साथ मिलकर फिल्म की पटकथा लिखी है। ‘दिल बेचारा’ में फास्ट फूड वाले चटपटे मसाले नहीं हैं, बल्कि धीमी आंच पर पकने वाली मीठी खीर में डाली जाने वाली इलायची की सुगंध है। ‘दिल बेचारा’ में रफ्तार नहीं, ठहराव है। वह ठहराव अनायास नहीं है। उसमें स्थायित्व है, जीवन का बोध है। छटपटाहट छोड़कर, आसमान की ओर बाहें फैलाकर पूरी कायनात समेटने की खुशी है।
फिल्म ‘दिल बेचारा’ की कम अवधि अपने अपने आप पूरी कहानी का सूत्र है। यह सच है कि भारत में मल्टिपलेक्सों का दौर आने के बाद कम अवधि की फिल्में बनने लगीं। लेकिन, दो घंटे से कम लंबी फिल्म प्राय: कोई प्रयोगधर्मी फिल्मकार या कम बजट में कोई इंडी फिल्मकार ही बनाता है। आज में हिंदी सिनेमा में बड़े सितारों को लेकर बनने वाली व्यवसायिक फिल्में ढाई घंटे के आसपास होती है। सुशांत की पहली फिल्म ‘काय पो छे’ (2013) से लेकर ’ड्राइव’ (2019) तक सारी फिल्में दो घंटे या उससे ऊपर की हैं। उनकी सर्वाधिक हिट फिल्म एमएस धोनी: दी अनटोल्ड स्टोरी (2016) करीब सवा तीन घंटे की है। लेकिन, ‘दिल बेचारा’ पौने दो घंटे से भी कम में (101 मिनट) में संपन्न हो जाती है। ठीक वैसे ही जैसे इस फिल्म के दोनों मुख्य पात्र मैनी व संजना जीवन के 23वें वसंत में ही दुनिया छोड़ देते हैं। दूसरे, 70 वर्ष की जीवन प्रत्याशा वाले देश में सुशांत मात्र 34 साल की उम्र में चले गए। यानी सुशांत का असल जीवन व उनकी अंतिम फिल्म का किरदार, दोनों कम अवधि में फना हो गए। ‘दिल बेचारा’ की कम अवधि इन दोनों बातों का द्योतक है।
किजी बासु संगीतकार आयुष्मान वीर (सैफ अली खान) की प्रशंसक है। विचित्र व्यवहार वाला संगीतकार कहता है कि उसका गाना अधूरा है, क्योंकि जिंदगी ही अधूरी है। मस्ती से परे जाकर मैनी किजी को लिखता है कि जन्म कब लेना है और मरना कब है, ये हम डिसाइड नहीं कर सकते। लेकिन, जीना कैसे है, यह हम डिसाइड कर सकते हैं। अंतिम दृश्य में सुशांत का मुस्कुराता चेहरा एक कसक छोड़ जाता है कि काश, तुम भी जिंदा होते इस फिल्म के सौंदर्य को महसूस करने के लिए।
अलविदा सुशांत…