जनक का पुनौरा

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सीतामढ़ी शहर से लगभग पांच किलोमीटर पश्चिम में पुनौरा ग्राम है। इसका पौराणिक नाम पुण्यारण्य (पुनौराधाम) है। यह स्थान महर्षि पुंडरीक के कर्म भूमियों में थी। यहां एक राम-जानकी मंदिर और एक सीताकुण्ड है जिसका पुरातन, धार्मिक और ऐतिहासिक माहात्म्य है। कहते हैं कि यहां पुण्डरीक ऋषि का आश्रम था जिससे इस स्थान का नाम पुण्डरीक ग्राम पड़ा जो कालान्तर में पुनौरा और सम्प्रति पुनौरा धाम के रूप में प्रचलित हुआ। लोगों का मानना है कि वर्तमान में जहां कुण्ड है वहीं माता सीता की उत्पत्ति हुई थी। यही वह स्थान है जहां महाराज जनक ने मिथिला में सूखा पड़ने पर स्वयं खेत में हल चलाया था और उस क्रम में एक कलश से धरती की बेटी सीता का अवतरण हुआ था। पुनौरा के संबंध में श्री महंथ राजेश्वर दास जी और श्री कौशल किशोर दास जी ने लेखन-कार्य किया है। सन् 1934 ई० के भूकम्प से पूर्व पुनौराधाम स्थित श्री जानकी जन्म कुण्ड की छटा न्यारी थी। इसके जल में कुुछ विशेषताएं थीं। इसमें नियमित स्नान करने से वस्त्र गेरुए तथा नारंगी रंग के हो जाते थे। इसके जल में पंडित लोग प्रतिदिन स्नान कर अपनी पगड़ी पर नहीं मिटने वाले रंग चढ़ाते थे। इसी के प्रभाव से वे जगत में ख्याति प्राप्त करते थे और शास्त्रार्थ में सदा विजयी होते थे। सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में सिद्धयोगी बाबा आशा राम जी महाराज वर्षों तक डाकोर जी में योग सिद्धि करने के बाद तीर्थाटन के क्रम में जगत् जननी भक्त हितकारिणी श्री सीताजी की अवतरण भूमि पुण्योर्वरा पुनौराधाम में श्री सीताजन्मकुण्ड पर पधारे थे। वे जलावगाहन से कृतार्थ और सम्मोहित होकर यहीं रम गए। उनके समय में संक्रामक रोगों से पीड़ित लोग इस कुण्ड में स्नान कर चंगे हो जाते थे। यह कथा भी प्रचलित है कि ग्रामीण क्षेत्रों से अगर कोई सज्जन घी अथवा द्रव्य पदार्थ के लिए याचना करने इनके पास आते तो इसी कुण्ड मंे जितने की आवश्यकता होती उतनी जल निकाल पात्र में भरकर दे देते थे, जो घी के रूप में परिवर्तित हो जाता था। सहूलियत से व्यवस्था हो जाने पर जब वे सज्जन घी लौटा जाते तो उसे वे पुनः उसी पुण्यकुण्ड में डाल देते थे। इस तरह आदान-प्रदान कर लोग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से किया करते थे। ये सब पुण्योर्वराशक्ति का ही प्रभाव था।
कहा जाता है कि बाबा आशारामजी सिर्फ लंगोट (कौपीन) धारण करते थे। एक जोड़ा चरण पादुका उनके पास थी, जिसको पहनकर वे कहीं जाते-आते थे। इंकड़ी का दो मंजिला तथा तीन मंजिला मंदिर बनाकर उसमें वे राम जानकी की युगल मूर्ति की झांकी को दर्शित करते थे। कहते हैं कि महाशक्ति दर्शन देकर चमत्कृत कर देती थी। लोग इस भूमि के दर्शन मात्र से मनोवांछित फल प्राप्त कर लेते थे।
उन्हीं के समकालीन एक सिद्ध संत स्वामी परम हंसजी महाराज थे। एक बार प्राणान्तकाल में अर्द्धरात्रि के समय उन्होंने बाबा आशाराम जी को ऊपर की बुलाहट की सूचना दी। इस पर उन्होंने कहा कि अभी जाने का समय नहीं है, मृत्यु देवता को लौटा दें। प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में भक्त लोग आकर दर्शन करेंगे, तभी गमन करना ठीक होगा। इस तरह तीन बार दूत को लौटा दिया। तब तक सवेरा हो चला था। उन्हें लोग परमहंस जी महाराज को श्री सीता जन्मकुण्ड पर ले गए और उन्हें स्नान कराने के बाद मुख्य घाट पर विराजमान कर दिया। उसके तत्काल बाद बड़ी संख्या में मौजूद भक्तों के बीच उनका ब्रह्माण्ड विच्छिन्न हो गया। लोग विस्मय विमुग्ध विस्फारित नेत्रों से उन्हें निहारते रह गए। उसके बाद पुण्डरीक क्षेत्र पर उनकी आन्तरिक अभिलाषा के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया। इससे बढ़ कर विलक्षणता का उदाहरण क्या हो सकता है?

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अपने समय के महान सन्त श्री सिद्धबाबा इसी जानकी जन्मकुण्ड में स्नान करने के बाद प्रतिदिन सीतामढ़ी नगर में स्थित जानकी मंदिर में पूजा करते थे। अखिल भारतीय संत सम्मेलन में सम्मिलित एक परम सिद्ध योगी सन्त अपने कई गृहस्थ और विरक्त शिष्यों के साथ जब मां सीता की प्राकट्स्थली पुनौराधाम से सीता जन्मकुण्ड पर पधारे, तब शिष्यों ने प्रश्न किया कि हमलोग कैसे समझेंगे कि यही वह स्थान है, जहंँ जगन्माता श्री सीता का प्रादुर्भाव हुआ था। यह सुनकर स्वामीजी मुस्कराते हुए बोले ‘बेटे तुम्हारी बाह्य दृष्टि पर धूमिल पर्दे पड़े हंै। इतनी शक्ति कहां जो समझोगे? एकाग्रचित्त होकर कुण्ड के जलमध्य देखो। आज्ञा पाकर सबके सब ध्यानावस्थित होकर देखने लगे। अलौकिक मन मोहक आलोक में एक लहलहाता हुआ लाल कमल प्रस्फुटित हुआ जिससे दिव्य सौंदर्यशालिनी सिंहासनारूढ़ भूमिजा की कमनीय आभा जनमन को आश्चर्य चकित करती हुई आविर्भूत हुई। पुलकित लोचनों से अपलक निहारते हुए हर्षातिरेक से भरे लोग कृतार्थ हो गए। कुछ ही क्षणों के बाद वह विलक्षण दृश्य विलीन हो गया। यह सर्वत्र चर्चा का विषय बन गया। इसकी सूचना पाकर दार्शनिक सम्मेलन के प्रतिभागियों ने यहां आकर श्रद्धान्वित हो घंटों कुण्ड के घाट पर गरुड़ घंटी बजाकर अर्चना और आरती की।
उत्तराखण्ड के एक सिद्ध योगी ने श्री जानकी जन्मकुण्ड पर 48 घंटों की निरन्तर समाधि धारण कर यह सिद्ध कर दिया कि संसार की सुखदायिनी भूमिजा इसी पुण्योर्वरा भूमि से प्रकट हुई थीं।
मन्दाकिनी तट पर स्थित ब्रह्मावर्त बिठूर निवासी साकेतवासी रावल्लभशरण जी महाराज सरकार स्वामी इस पुण्य तीर्थ में तीन बार पधारे थे। उन्हें श्री हनुमतलाल जी का सान्निध्य प्राप्त था। उनमें संगीतबद्ध प्रवचन द्वारा जन मन को विभोर कर देने की अद्वितीय क्षमता थी। उन्होंने पुनौराधाम की गोपनीयता का दिग्दर्शन कराते हुए बताया कि स्वयं रामजी कभी बाहर जाने के लिए इच्छुक नहीं रहे, लेकिन जब श्री सियाजी की प्रेरणा हुई तब परमधाम के दर्शन और जनकपुरी की परिक्रमा करने का उन्हांेने निश्चय किया।
देवर्षि नारद ‘पद्मपुराण’ में पुण्डरीक तीर्थ का वर्णन करते हुए मर्यादा पुरुषोतम श्री रामचन्द्रजी से कहते हैं कि इस आश्रम पुनौराधाम में प्रवेश मात्र से प्राणी पवित्र हो जाता है, क्योंकि यह भूमिपुत्री का अवतरण स्थान है। यहाँ एक रात्रि बिताने पर दूसरे जन्म में माँ जानकी के सेवक और दूत बनने का सुयोग प्राप्त होता है।
वेदों में ऐसे तीर्थ के महत्व को दर्शाया गया है – ‘तरति पापादिक यस्मत्’ अर्थात् जिसके माध्यम से मनुष्य जघन्य पापादि से विमुक्त हो जाय उसे तीर्थ की संज्ञा में विभूषित करते हैं। यह भौम तीर्थ के अन्तर्गत आता है। अयोध्या, मिथिला (जानकी जन्मभूमि पुनौराधाम), पुष्कर आदि इसी के परिचायक हैं। इन्हीं तीर्थों में सब तीर्थ अन्तर्निहित हैं, जो भारतवर्ष में किसी न किसी रूप में सुशोभित हैं। गंगा, गंडक, कमला, कौशिकी, लक्ष्मणा आदि नदियों के सन्निकट ऋषि-मुनि तथा सन्त-महात्माओं की ऐसी तपोभूमि भगवदीय अवतारों की लीलाभूमि है। निश्चय ही यह भौमतीर्थ विशेष पुण्यप्रद है। वेदान्त की दृष्टि से यहाँ का अणु-अणु पवित्र तथा तीर्थवत है। इस तीर्थ में वास करने और यात्रा करने की महिमा अवर्णनीय है। रामभद्राचार्य जी पुनौरा को शक्तिपीठों का ननिहाल कहते हैं। जगदम्बा यहीं पूर्ण स्वरूप में जन्मी। बाकी शक्तिपीठ सती के अंगो के आधार पर निर्मित है।
श्री जानकी जन्मकुण्ड
झाँकी
माता श्री जानकी के अवतरण का स्थल पुण्डरीक तीर्थ पुनौराधाम एक भव्य मनमोहक सरोवर के लिए भी प्रसिद्ध है। इसे सीता जन्म कुण्ड, जानकी जन्म कुण्ड और उर्विजा कुण्ड तीन नामों से अभिहित किया जाता है। इस पुण्य कुण्ड के चतुर्दिक् आम्र, पीपल, वट, अशोक आदि विभिन्न वृक्षों की शोभा न्यारी है। सैकड़ों वर्ष पुराने पीपल, कदम्ब तथा कबड़ा के लघुकानन कटकर विनष्ट हो गये। सिर्फ इमली के पेड़ पर चमगादड़ सदियों से उल्टे लटक कर तपस्या करते आ रहे हैं। कुण्ड के पश्चिमी भाग में लक्ष्मण की मृतक धार बुढ़िया के रूप में दृष्टिगत है। समीप ही पूर्व के जमीन्दारों का निवास स्थान है। पुनौराधाम बाईस टोलों में विभक्त है। उत्तर में जानकी जन्म नगर टोला है। यहाँ से खैरवा, रीगा चीनी मिल और हलेश्वरनाथ जाने के लिए कुछ दूर तक कच्चा मार्ग है। पूर्वी भाग में कई सन्त-महात्माओं की पुरातन भग्नप्राय समाधियां हैं। उसके बाद ‘यज्ञकुण्ड’ के रूप में जन्म कुण्ड से सटा एक सरोवर है। इससे पूरब विशाल और पुरातन श्री जानकी जन्म मन्दिर है, जिसमें श्री सीताराम जी की प्रस्तर और अष्टधातु की कश्मीरी पद्धति से निर्मित प्राचीन प्रतिमाएं हैं। मुख्य मन्दिर द्वार की दोनों तरफ गदा और गिरि धारण किए श्री हनुमत लाल जी हैं। इससे संलग्न ‘शिव पंचायतन मन्दिर’ है। मुख्य मन्दिर के उत्तर पुराना शिवालय है। शिवलिंग के अतिरिक्त पार्वती, दुर्गा, गणेश तथा नन्दी आदि देवताओं की प्रस्तर मूर्तियां दर्शनीय हैं। शिवालय से पूर्वोत्तर कोण की ओर एक चारदीवारी के अन्दर ‘यज्ञशाला’ है, जिसमें वैशाख मास शुक्ल पक्ष नवमी तिथि को महारानी जानकी के जन्मोत्सव के अवसर पर हवनादि होते हैं। ध्वज गाड़े जाते हैं। हजारांे लोग महाशक्ति सीता का गुणगान कर आनन्द मनाते झूमते हैं। मन्दिर के आस-पास फल-फूल तथा लताओं की हरियाली जनमन के विषाद को हर लेती है। मुख्य मन्दिर से पूरब पं० श्री राम शर्मा द्वारा संचालित गायत्री परिवार की युग निर्माण योजना के माध्यम से एक विशाल गायत्री मंदिर का निर्माण हुआ है। यहाँ शान्त वातावरण में गायत्री मन्त्रोच्चारण और हवन से हृदय में शान्ति स्थापित कर चित्त को ब्रह्मोन्मुख किया जा सकता है। गायत्री मन्दिर के उत्तर एक जामुन का सदियों पुराना वृक्ष है। कहा जाता है कि योगी अक्षयराम जी की सर्वप्रथम खंती यहीं गड़ी थी। उन दिनांे यहाँ दूर-दूर तक सिर्फ जंगल था। एक बार कुछ लोगों ने दिन में योगी अक्षय राम जी को इसी जामुन पेड़ के नीचे बैठकर भजन करते देखा था। रात्रि में अचानक बहुत जोरों की आँधी आई, पत्थर पड़े, जंगल के कई पेड़ जड़ से उखड कर गिर गए। इससे आमलोग चिंतित हुए। उन्हें योगी की बड़ी चिन्ता हुई। रात में ही कई लोग योगी को देखने पहुँचे, तो वे लोग बड़े साहस के साथ बत्ती जला कर इस पेड़ के पास पहुँचे। देखा योगी योगक्रिया में लीन थे और आस-पास प्रकृति का किसी भी तरह का प्रकोप नहीं हो सका था। लगभग एक सौ मीटर में सबकुछ सामान्य था। लोग विस्मय-विमुग्ध होकर लौट आये।
इधर कुछ सज्जनों ने समाधियों के जीर्णोद्धार, श्री जानकी जन्म कुण्ड की खुदाई और परिक्रमा पथ को पक्का करने जैसे पवित्र कार्य करवाए हंै। तीर्थ यात्रियों के विश्राम के लिए एक साधारण धर्मशाला का निर्माण किया गया है। विवाह पंचमी का उत्सव मनाने के लिए एक आकर्षक सिंहासन सहित मड़वा को पक्का किया गया है। यात्रियों के जल पीने के लिए मुख्य मन्दिर के सामने और जानकी जन्मकुण्ड पर नलकूप लगाए गए हैं। गर्मी के दिनों में जल भरने तथा सिंचन कार्य के लिए सरकार की ओर से स्वास्थ्य केन्द्र खोला गया हैं। इसके लिए मन्दिर की ओर से जमीन दी गई है। यहाँ वर-वधुओं के परिणय तथा बालकों के यज्ञोपवीत के कार्य निःशुल्क कराये जाते हैं।
पुण्यारण्यम
जानकी जन्म भूमि ‘पुनौराधाम’ की महिमा का वर्णन पुराणों, संहिताओं और रामायणकारों ने काफी विस्तार व सुन्दरता से की है। जहाँ आदि शक्ति, महाशक्ति और वीर शक्ति सीता जी का प्रादुर्भाव स्थल है, उसकी महिमा का गुणगान साधारण नहीं है। यह गूढ़ विषय और गूढ रहस्य है। जन्म-जन्मान्तर तक जिनकी प्राप्ति के लिए बड़े बड़े ऋषि मुनि प्रयत्नशील रहे, पर पार न पा सके। इस महाशक्ति पीठ में आस्था और विश्वास के साथ निवास कर धर्मशास्त्रों का पठन पाठन तथा मनन ही एकमात्र उपलब्धि का स्रोत हो सकता है। मिथिला के संस्कृत साहित्यकारों ने अपने ग्रंथों में सीता की अवतरण स्थली पुनौराधाम का सराहनीय चित्रण किया है, जिससे यह ज्ञात होता है कि अवनी कुमारी सीता ने यहाँ अवतरित होकर ब्रह्माण्ड को सुख प्रदान करने के लिए ‘परमब्रह्म’ श्री रामचन्द्र जी की सहचरी के रूप में अपनी पावन लीलाओं से सबको चमत्कृत कर दिया था। धरती से विलक्षण बालिका का अवतरण विस्मयकारी रहस्य है। महाशक्ति की अवतरण स्थली के चतुर्दिक यशोगान गाती हुई, कहीं बागमती की धारा है, कहीं पुण्यसलिला सुरसरि का प्रवाह है, कहीं भैरव जी का पवित्र लिंग (भैरव स्थान) है, तो कहीं मीमांसा, न्याय और वेदों के पठन-पाठन में निरस्त पंडितों का निवास है। ठीक ही कहा जाता है कि धन्य है तीरभुक्ति (तिरहुत) देश जहाँ की मिट्टी भी वन्दनीय है।

(एलपी सिन्हा)

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