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सर्वोच्च न्याय

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पूर्ण पीठ ने अयोध्या में राजनीतिक और धार्मिक रूप से संवेदनशील दशकों पुराने मंदिर-मस्जिद भूमि विवाद पर 9 नवम्बर को जो ऐतिहासिक फैसला सुनाया उसे साधारण हिन्दू या साधारण मुसलमान व्यक्तिगत जीत या हार के रूप में नहीं देख सकता है। लेकिन जीत और हार एक अलग स्तर पर हुई है। जब संबंधित पक्ष अदालत में जाते हैं और निर्णय प्राप्त करते हैं, तो कुछ हार जाते हैं और अन्य जीत जाते हैं। मंदिर समर्थक रामलला विराजमान को उसके पक्ष में फैसला सुनाया गया, जबकि मस्जिद समर्थक सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दावों को खारिज कर दिया गया। इस मामले की सुनवाई 40 दिनों तक चली। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में यह दूसरी सबसे लंबी कार्यवाही थी।

कोर्ट का मानना है कि इस मामले में मुस्लिम पक्ष के पक्ष में पूर्ण न्याय किया गया है। संयोग से भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) के निष्कर्षों को बाधित करने का प्रयास भी फेल हो गया। इस झूठ को फैलाने का प्रयास किया गया था कि ध्वस्त मस्जिद के नीचे पाए गए अवशेष ईदगाह या जैन संरचना के थे – या अस्तबल भी। मुस्लिम पक्ष यह दावा करने की हास्यास्पद हद तक चले गए थे कि जिस सामग्री से एक मंदिर की उपस्थिति का संकेत मिलता है उसे बाहर से आयात किया गया था और विवादित जगह पर रखा गया था। सब कुछ हिन्दू समुदाय के विश्वास व भरोसे को कम करने और उन्हें झूठा साबित करने के लिए किया गया था।

2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कम से कम एक तिहाई विवादित भूमि मुस्लिम पक्षकारों को दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कुछ नहीं दिया। अयोध्या में मस्जिद के निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन उपलब्ध कराने के लिए सरकार को निर्देश देने के लिए संविधान की धारा 142 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग करने के लिए यह एकमात्र रियायत थी। अनुच्छेद 142 में कहा गया है- ‘‘अपने अधिकार क्षेत्र की कवायद में सुप्रीम कोर्ट इस तरह के निर्णय को पारित कर सकता है या ऐसा आदेश दे सकता है, जो किसी भी कारण या मामले से पहले लंबित पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक है, और ऐसा किया गया कोई भी आदेश या आदेश इतने लम्बे समय तक पूरे भारत के क्षेत्र में लागू करने योग्य होगा। इस तरह से जब तक कि संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के तहत या उसके द्वारा निर्धारित किया जा सकता है, जब तक कि उस प्रावधान में ऐसा प्रावधान नहीं किया जाता है, इस तरह से राष्ट्रपति द्वारा आदेश के अनुसार निर्धारित किया जा सकता है।’’

आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर की अगुवाई वाले तीन सदस्यीय दल के समझौता प्रयासों के दौरान कथित तौर पर दिएगए तर्कों में से एक यह था कि मस्जिद के निर्माण के लिए विवादित स्थल से दूर मुस्लिम पक्ष को जमीन दी जाए, जिसके बदले में मुस्लिम पक्षकारों को उस स्थान पर अपने दावे को छोड़ना होगा जिसे हिन्दू भगवान राम के जन्म का स्थान मानते हंै। लेकिन इसे उन कट्टरपंथियों ने खारिज कर दिया जो विवादित जमीन पर अपने अधिकार की मांग पर अड़े हुए थे। उन्हें यह विश्वास दिलाकर गुमराह किया गया कि उनकी जीत होगी।

1991 में चार वामपंथी इतिहासकारों आरएस शर्मा, एम अतहर अली, डीएन झा और सूरज भान ने अयोध्या पर एक रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट में घुमा फिराकर यह कुतर्क दिया गया कि राम जन्मभूमि श्रीराम का जन्मस्थान नहीं है, और न ही बाबर ने कोई मंदिर तोड़कर राम जन्मभूमि पर किसी भवन (बाबरी ढांचा) का निर्माण किया। इस रिपोर्ट को तथा अन्य मुस्लिम पक्षकारों ने हाथों हाथ लिया, यह जानते हुए भी कि मंदिर के अकाट्य प्रमाणों को छिपाकर यह रिपोर्ट तैयार की गयी थी।

जाहिर है, मुस्लिम पक्ष कानूनी रूप से अपने दावों को स्थापित करने में विफल रहे और उनके द्वारा प्रस्तुत सभी तथ्य मददगार साबित नहीं हुए। यह आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि उनके तथाकथित साक्ष्य पक्षपाती इतिहासकारों और शिक्षाविदों द्वारा प्रदान की गयी राय के रूप में थे। वे इस तथ्य का मुकाबला नहीं कर सकते थे कि हिन्दू दशकों से इस स्थल पर प्रार्थना कर रहे थे और 1949 से मस्जिद में कोई नमाज अदा नहीं की गयी थी। यह बात यहां सही साबित हुई कि जब सच से सामना होता है तो झूठ के पैर कांपने लगते हैं।

जब राम मंदिर का आंदोलन प्रारंभ हुआ, तब इन्हीं पक्षपाती इतिहासकारों और शिक्षाविद् वामपंथियों ने राम जन्मभूमि के इतिहास और पुरातात्विक प्रमाणों को झुठलाने के लिए अपनी सेवाएं अर्पित कर दीं। वे उन मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जा खड़े हुए जो राम जन्मभूमि को लेकर मुस्लिम समाज को गुमराह कर रहे थे, और किसी भी कीमत पर सच को सामने नहीं आने देना चाहते थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और वक्फ बोर्ड की तरफ से तथाकथित सबूत पेश करने वाले यही लोग रहे हैं। अदालत ने उन्हें बार-बार फटकार लगायी, उनकी बोलती बंद होती गई। इनके फर्जी सबूतों की धज्जियां उड़ती गयीं। यानी इतिहास के साथ की गयी इस लम्बी धोखाधड़ी का पर्दाफास भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से हो गया।

धीरे- धीरे ही सही, अब देश में यह धारणा बलवती होने लगी है कि हिन्दू संस्कृति को सब बुराइयों की जड़ कहने वाले और पूजा-उपासना को अफीम कहने वाले वापंथियों ने हमेशा भारत के इतिहास को विकृत करके प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं , वामपंथियों ने ‘नेहरूवाद’ को भारत का विचार बताकर उसे सब ओर स्थापित किया। नेहरू का कथन ‘मैं दुर्घटनावश हिन्दू हूं’ कम्युनिस्ट विचार को जंचता भी है।

आगे रास्ता साफ है। एक भव्य राम मंदिर अब अविवादित स्थल पर बनेगा। शीर्ष अदालत ने सरकार को तीन महीने के भीतर एक ट्रस्ट का गठन करने के लिए कहा है, जो मंदिर के निर्माण की देखरेख करेगा। हालांकि सरकार को ट्रस्ट के निर्वाचक सदस्यों चुनने की स्वतंत्रता है, बेहतर होगा अगर विवाद में शामिल प्रमुख पक्षों को शामिल किया जाए, जैसे कि निर्मोही अखाड़ा, जिसके भूमि के स्वामित्व का दावा अदालत द्वारा खारिज कर दिया गया था। यह अच्छा होगा अगर जमीनी स्तर पर अयोध्या में मुस्लिम और हिन्दू श्रीराम के जन्मस्थान पर राम मंदिर के निर्माण और पवित्र शहर में किसी अन्य स्थल पर मस्जिद के निर्माण के लिए एक साथ आएं।