सहकार ही रास्ता

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भारत में सहकारिता आंदोलन की शुरूआत स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ ही शुरू हुई थी। आजादी के वर्षों बाद भारत की सरकार व यहां के जागरूक लोगों को अहसास हुआ कि आर्थिक आजादी का सपना सहकारिता के रास्ते पर चलकर ही साकार हो सकता है

भारत में सहकारिता आंदोलन की शुरूआत स्वतंत्रता की लड़ाई के साथ ही शुरू हुई थी। स्वतंत्रता संग्राम के परिणाम स्वरूप वर्ष 1947 में भारत को राजनीतिक आजादी मिल गयी। राजनीतिक आजादी के जश्न में भारत के लोग ऐसे डूबे कि उन्हें आर्थिक आजादी का भान ही नहीं रहा। इसके कारण भारत को आर्थिक दासता से मुक्ति दिलाने वाला सहकारिता आंदोलन धीरे-धीरे पीछे छूटता चला गया। आजादी के वर्षों बाद भारत की सरकार व यहां के जागरूक लोगों को अहसास हुआ कि आर्थिक आजादी का सपना सहकारिता के रास्ते पर चलकर ही साकार हो सकता है। अब सहकारिता पर विशेष जोर दिया जाने लगा है।

वैसे तो माना जाता है कि भारत में बंगभंग आंदोलन के लगभग साथ-साथ वर्ष 1904 में सहकारिता आंदोलन की शुरूआत हो गयी थी। छोटे-बड़े कई झंझावात को झेलते हुए यह आंदोलन आज विराट रूप धारण कर चुका है। इसमें दो मत नहीं कि देश के विकास में यह आज महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसके चलते देशवासी आर्थिक रूप से समृद्ध तो हुए ही हैं, साथ ही बेरोजगारी की समस्या को कम करने में भी इसकी भूमिका अनिवार्य मानी जा रही है। एक अनुमान के अनुसार इस समय देशभर में पांच लाख से अधिक सहकारी समितियां सक्रिय हैं, जिनमें करोड़ों लोगों को रोजगार मिल रहे हंै। ये समितियां समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों में काम कर रही हैं, लेकिन कृषि, उर्वरक, कपड़ा उत्पादन व दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में इनकी भागीदारी सर्वाधिक है। अब तो बैंकिंग के क्षेत्र में भी सहकारी समितियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। लेकिन, बिहार जैसे राज्यों में सहकारी आंदोलन राजनीतिक उदेश्यों की पूर्ति का साधन बनकर अनेक विसंगतियों के जाल में फंसता रहा है।

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आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए संस्था के रूप मंे संगठित हुए लोग जब समन्वय के साथ व्यवसाय चलाकर समाज की आर्थिक सेवा तथा अपने सभी सदस्यों का आर्थिक उत्थान कराते हैं, तो यह कार्य सहकारिता हो जाता है। इस प्रकार के व्यवसाय में लगने वाली पूंजी संस्था के सभी सदस्यों द्वारा आर्थिक योगदान के रूप में एकत्रित की जाती है। पूंजी में आर्थिक हिस्सा रखने वाला व्यक्ति ही उस सहकारी संस्था का सदस्य होता है। भारत में सहकारिता की निश्चित व्याख्या करने व उसे व्यवस्थित करने के लिए अंग्रेजों ने 1904 में कानून बनाया था। कानून बनने के बाद अनेक पंजीकृत संस्थाएं इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए उतरीं। सहकारिता में समाजहित को देखते हुए इस कार्य मंे स्वतंत्रता आंदोलन मंे लगे नेता व कार्यकर्ता भी लगे थे। बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में गुजरात में सहकारिता आंदोलन को जो ऊंचाई मिली वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। बिहार में जयप्रकाश नारायण एवं उनकी पत्नी प्रभावतीजी के प्रयास से खादी के क्षेत्र में जो प्रयाग हुआ था वह अनुकरणीय उदाहरण है। सबके प्रयास से सहकारी संस्थाओं की संख्या में वृद्धि भी हुई, लेकिन सहकारिता का जो मूल तत्व था वह धीरे-धीरे समाप्त हो गया। सहकारी संस्थाओं में दलीय राजनीति हावी होने लगी। हर जगह लोभ एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया। समितियों के सदस्य निष्क्रिय होते चले गए और सरकारी हस्तक्षेप बढ़ता गया। ऐसे हालात में सहकारिता को स्वायत्तता देने की मांग उठी क्योंकि इसके बिना सहकारिता आंदोलन को पुनर्जीवित करना असंभव था।

व्यावहारिक दृष्टिकोण से तो सहकारिता का मुख्य उद्देशय आर्थिक है। इसे निजी व्यापार संगठन के तौर पर भी देखा जा सकता है जिसका स्वामित्व व नियंत्रण संयुक्त रूप से इसकी सेवा का उपयोग करने वाले सदस्यों के हाथों मे होता है। जब इसका विस्तार हुआ तब स्थानीयता से आगे बढ़कर एक बहु-राज्य सहकारी समिति तक की अवधारणा विकसित हुई। इस दृष्टि से पंजीकरण की प्रक्रिया भी बदला। निःसंदेह सहकारी संगठन कानूनी तौर पर स्थापित संघ है जो कि उसके सदस्यों के स्वामित्व में है एवं सदस्यों के द्वारा ही लोकतांत्रिक तरीके से नियंत्रित किया जाता है। इस प्रकार सहकारिता का अस्तित्व ईमानदारी, खुलापन, सामाजिक जिम्मेदारी और दूसरों की देखभाल की मानसिकता में है। विभिन्न राज्यों में सहकारिता की गतिविधियां उन राज्यों के सहकारी समिति अधिनियम और सहकारी समिति नियमों के द्वारा नियंत्रित होती हैं।

भारत में सहकारिता आन्दोलन ग्रामीण कृषकों के आर्थिक विकास हेतु अल्पकालीन फसली ऋण से प्रारम्भ हुआ था। उस समय सहकारिता का मूल उद्देश्य कृषकों को फसल उत्पादन के लिए उचित ब्याज दर व शर्तों पर ऋण उपलबध कराकर उन्हें महजनों के चंगुल से मुक्त कराना था। बिहार में पैक्स की परिकल्पना उसी के आधार पर की गयी है। कालान्तर में अल्पकालीन ऋण के साथ-साथ उर्वरक, बीज वितरण, प्रक्रिया इकाई, शीतगृह संचालन, उपभोक्ता वस्तुओं का वितरण, दीर्घकालीन ऋण वितरण, श्रमिकों का संगठन, दुग्ध विकास, गन्ना, उद्योग, आवास हथकरघा विकास आदि कार्यक्रम भी सहकारी समितियों के माध्यम से प्रारम्भ हो गये।

इस प्रकार सहकारी आन्दोलन कार्यक्रमों का क्षेत्र विस्तृत एवं व्यापक हो जाने के कारण निबन्धक, सहकारी समितियों का अधिकार अन्य नौ विभागों यथा-गन्ना, उद्योग, खादी ग्रामोद्योग, आवास, दुग्ध, हथकरघा, मत्स्य, रेशम एवं उद्यान विभाग के अधिकारियों को भी प्रदान कर दिया गया है। सहकारी समितियों का प्रबंध लोकतान्त्रिक रूप से निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है, जिससे जन सहभागिता को बढ़ावा मिलता है।

स्वैच्छिक और खुली सदस्यता, प्रजातांत्रिक सदस्य-नियंत्रण, सदस्यों की आर्थिक भागीदारी, स्वायत्ता और स्वतंत्रता, शिक्षा प्रशिक्षण और सूचना, सहकारी समितियों में परस्पर सहयोग, सामाजिक कर्तव्य बोध ये कुछ विशेषताएं हैं जिसके बल पर समाज की दशा सुधारी जा सकती है। परिवर्तन लाया जा सकता है। इसीलिए सहकारिता एक आंदोलन है।
अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कुछ पश्चिमी देशों के तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति में काफी बड़ा बदलाव आया। इसे ही औद्योगिक क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। यह सिलसिला ब्रिटेन से आरम्भ होकर पूरे विश्व में फैल गया। औद्योगिक क्रांति शब्द का इस संदर्भ में उपयोग सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक ‘लेक्चर्स ऑन दि इंड्स्ट्रियल रिवोल्यूशन इन इंग्लैंड में सन् 1844 में किया। कुछ इतिहासकार व समाजशास्त्री इसे क्रान्ति मानते हैं क्योंकि इससे मनुष्य के जीवन निर्वाह के तौरतरिकों में भारी बदलाव आया था। इसके कारण समाज के स्वरूप में भी बदलाव आया था। इसके कुछ सकारात्मक तो कुछ अत्यंत नकारात्मक प्रभाव पड़े थे। इसके परिणाम रूपस्व उपनिवेशवाद का उदय हुआ। उपनिवेशवाद के साथ ही औपनिवेशिक मानसिकता व आचार-व्यवहार भी सामने आया। गुलाम देशों के प्राकृति संपदा का बेरहमी से लूट शुरू हुआ। उपनिवेशों के नागरिकों को सामान्य सुविधा से वंचित करने के षड्यंत्र का शिकार भारत भी हुआ। सहकार के बदौलत भारत के गांव स्वावलंबी थे। लेकिन, अंग्रेजों ने भारत के गांव के सहकार व्यवस्था को नष्ट कर दिया। आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने भारत की सहकार चेतना को भी जागृत करने का प्रयास किया था। आजादी के बाद महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया वह प्रयास भारत के कुछ राज्यों में तो बढ़ता रहा। वही कुछ राज्यों में सहकारित कुप्रबंधन व भ्रष्टाचार का शिकार होकर अपने पथ से भटक गया। अब लोग यह मानने लगे हैं कि भारत को बेरोजगारी, गरीबी से मुक्ति दिलाने का मार्ग केवल और केवल सहकारिता ही है।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में बिहार के गांवों से लोगों का पलायन तेज हुआ। इसके पूर्व बिहार के गांव से लोग दूसरे प्रदेशों में काम की खोज में बहुत कम ही जाते थे। बिहार में कृषि ही रोजगार का मुख्य साधन है लेकिन सहकारिता आंदोलन के कमजोर होने के कारण यहां कृषि व कृषि से संबंधित पेशा की हालत अत्यंत कमजोर हो गयी। ऐसे मंे कृषि घाटे का काम हो गया। छोटे जोत वाले किसान खेती छोड़कर मजदूरी करने को मजबूर हो गए। इस काल में बिहार में यातायात व बिजली की भी व्यवस्था ठीे नहीं थी। शहरीकरण के बदलते आर्थिक परिदृश्य के कारण गांवों के कुटीर उद्योगों का पतन हुआ। फलतः रोजगार की तलाश में लोग शहरों की ओर भागने लगे क्योंकि अब बड़े-बड़े उद्योग जहां स्थापित हुए थे, वहीं रोजगार की संभावनाएं थी। स्वाभाविक तौर पर शहरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो गई। नए शहर अधिकतर उन औद्योगिक केन्द्रों के आप-पास विकसित हुए जो लोहे, कोयले और पानी की व्यापक उपलब्धता वाले स्थानों के निकट थे। इस तरह शहरे अर्थव्यवस्था के आधार बनने लगे।

ऐसे आर्थिक असंतुलन राष्ट्रीय समस्या के रूप में सामने आए।

प्राचीन काल में भारत एक संपन्न देश था। भारतीय कारीगरों द्वारा निर्यात माल अरब, मिस्र, रोम, फ्रांस तथा इंग्लैंड के बाजारों में बिकता था और भारतवर्ष से व्यापार करने के लिए विदेशी राष्ट्रों में होड़ सी लगी रहती थी। इसी उद्देश्य से सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना इंग्लैंड में हुई। यह कंपनी भारत में बना हुआ माल इंग्लैंड ले जाकर बेचती थी। रेशम और मखमल के बने हुए कपड़े जैसे भारतीय वस्तुएं, इंग्लैंड में बहुत अधिक पसंद की जाती थी। यहाँ तक कि इंग्लैंड की महारानी भी भारतीय वस्त्रों को पहनने में अपना गौरव समझती थीं। परंतु यह स्थिति बहुत दिनों तक बनी न रह सकी क्योंकि यूरोपीय कंपनियों ने भारतीय कारीगरों के बीच सहकार के रिश्ते को तोड़ दिया। संरक्षण के अभाव में भारतीय कारीगर और व्यवसायी निर्बल होने के साथ ही बिखर भी गए। अपना पुश्तैनी पेशा छोड़कर दूसरा काम करने को वे मजबूर हो गए।

शशि शेखर

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