सहकारी ढांचे की औपचारिक शुरुआत से पहले देश के अनेक हिस्सों में सहकारिता का विचार और सहकारी गतिविधियां छुटपुट रूप से चलती रहती थीं। ग्रामीण समुदाय मिलजुल कर पानी के जलाशय बनाने और ग्रामीण वन लगाने में दिलचस्पी लेते थे। गांव के लोग फसल तैयार होने के बाद जरूरतमंदों को अगली फसल की बुआई से पहले अनाज उपलब्ध कराते थे या सामूहिक रूप से बीज की व्यवस्था करते थे।
उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में किसानों के लिए संस्थागत आर्थिक सहायता उपलब्ध नहीं थी। सबसे पहले 1858 में और फिर 1881 में अहमदनगर के जिला जज विलियम वैडरवर्न ने जस्टिस राना डे के साथ विचार कर कृषि बैंक की स्थापना का प्रस्ताव रखा। मद्रास के गवर्नर ने फ्रेंडरिक निकलसन को मार्च 1892 में इस प्रस्ताव की संभावना की जांच का काम सौंपा, जिन्होंने 1895 और 1897 में दो खंडों में अपनी रिपोर्ट सौंपी। सन् 1901 में दुर्मिक्ष आयोग ने ग्रामीण कृषि बैंकों की स्थापना की सिफारिश की, जिसके आधार पर उत्तार पश्चिम प्रांविस एवं अवधा सरकार ने कदम उठाये। सहकारी समितियों के लिए कानूनी आधार तैयार करने के लिए सरकार ने एडवर्ड ला कमेटी गठित की, जिसके सदस्यों में निकलसन भी शामिल थे। उस कमेटी की सिफारिश के आधार पर 25 मार्च, 1904 को सहकारी समिति विधोयक लागू किया गया। सहकारी ऋण के लिए सहकारी ऋण सहकारी कानून नाम सुझाया गया और 1911 तक 5300 सहकारी समितियां गठित हुई, जिनकी सदस्य संख्या तीन लाख हो गयी। 1904 के सहकारी कानून में समितियों का गठन, सदस्यों की पात्रता, पंजीकरण, सदस्यों के दायित्व, मुनाफे का निबटान, सदस्यों के शेयर तथा हितों, समितियों के विशेषाधिाकार, सदस्यों के खिलाफ दावे, लेखा परीक्षा, निरीक्षण और जांच, भंग करना, करों से छूट और नियम बनाने के अधिाकार आदि का प्रावधाान किया गया। सहकारी समिति कानून, 1912 लागू कर सहकारी संस्थाओं को इसके अंतर्गत संगठित किया गया, ताकि सहकारी संस्थाएं अपने सदस्यों को गैर ऋण सेवाएं उपलब्धा करा सकें। इस कानून ने सहकारी संस्थाओं के फेडरेशन गठित करने का भी प्रावधाान किया। इस कानून के अंतर्गत आवास सहकारी समितियों का भी गठन होने लगा। वर्ष 1919 में रिफार्म एक्ट पारित कर सहकारी विषय राज्यों को हस्तांतरित किया गया। इसके बाद समय-समय पर सहकारी संस्थाओं के लिए अनेक कानून बनाये गये। आजादी के बाद योजना आयोग के गठन से सहकारी आंदोलन को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का दायित्व मिला।
भारत में सहकारिता आंदोलन का एक लम्बा एवं विस्तृत इतिहास है। लगभग 100 वर्ष से भी अधिक की अवधि के दौरान आंदोलन ने विविध प्रकार के कार्य किए हैं तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सामाजिक आर्थिक बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। आज यह आंदोलन चीनी, दुग्ध, ऋण एवं उर्वरक आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में महान शक्ति के रूप में उभरकर सामने आया है। आज अनेकों सहकारी ब्रांड केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी घर-घर प्रचलित हो गए हैं। सहकारिता ने निःसंदेह अपने को प्रभावशाली आर्थिक विकास के मॉडल के रूप में सिद्ध किया है, जो इसके संपूर्ण विकास को सुनिश्चित करता है।
हाल के वर्षों में सहकारी क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में उभर कर सामने आया है। विकास के सहकारी मॉडल ने हमारे देश की सामाजिक आर्थिक समस्याओं के समाधान में अपनी प्रभावशीलता सिध्द कर दी है। 6 लाख से अधिक सहकारी संस्थाओं के साथ देश के कोने-कोने में पहुंचने के लिए सहकारी संस्थाओं का एक विस्तृत नेटवर्क है। सामाजिक आर्थिक गतिविधियों के लगभग सभी क्षेत्रों में सहकारिताओं की सफलता की कहानियों के नमूने मौजूद हैं।
सहकारी क्षेत्र ने यह दिखा दिया है कि देश के विकास की सफलता के लिए सहकारी क्षेत्र अपरिहार्य हैं। उन्होंने यह दिखा दिया है कि वह ब्रांड बना सकते हैं, जो सहकारी क्षेत्र में निहित शक्ति दर्शा सकता हैं। एक सामान्य मनुष्य का प्रतिदिन का अस्तित्व सहकारी ब्रांड पर आधारित है। उदाहरण के लिए सहकारी दुग्ध ब्रांड इतना प्रचलित है कि अगर यह ब्रांड बाजार में उपलब्ध नहीं है तो हम अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकते। उसी प्रकार इफको का यूरिया ब्रांड किसानों के अस्तित्व के लिए इतना ही निर्णायक है। सहकारी ब्रांड में किसानों का विश्वास उनकी अधिकतम प्रसिद्धि को दर्शाता है। आर्थिक मंदी के मौजूदा समय में इसकी ताकत वास्तविकता बताने के लिए खुद साक्ष्य है। जब सहकारी क्षेत्र के प्रतिद्वंदी निजी क्षेत्र ने हथियार डाल दिए तो उस अवधि के दौरान भी सभी स्तरों पर सहकारी क्षेत्र ने आगे बढ़ना जारी रखा।
सहकारी संस्थाएं जिनका एक विस्तृत सामाजिक ढ़ांचा है- सभी प्रकार के समाज, जिसमें गरीब एवं कमजोर वर्ग शामिल हैं। सहकारिता में सम्मिलित होने के लिए अपील करती है। समाज के कमजोर वर्ग जो विकास की प्रक्रिया में आगे बढ़ना चाहते हैं, वे अपने कल्याण के लिए सहकारिता को धुरी मानते हैं। सफल एवं सक्षम सहकारी समितियां, जनजातीय सहकारी समितियां आदि इस संबंध में स्पष्ट उदाहरण हैं। कमजोर वर्ग जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, आदिवासी आदि ने सहकारिता के माध्यम से अपना रहन-सहन का ही स्तर ऊंचा नहीं किया है, बल्कि वर्तमान में विकास की प्रक्रिया के प्रबंधन का भी अनुभव किया है। सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पुनः सहकारिता के माध्यम से लागू करने पर अपनी सहमति दे दी है तथा इसके द्वारा वह कमजोर वर्गों की सहायता कर रही हैं, ताकि वह दिन प्रतिदिन के जीवन में अपनी आवश्यकताओं को समुचित तरीके से पूरा कर सकें। देश में महिलाओं एवं युवकों के गरीब तबके को रोजगार के अवसर का लाभ प्रदान करने के लिए सहकारी संस्थाएं एक आदर्श संस्थाएं के रूप में उभर कर सामने आई हैं।
सन् 1929 में देश की सहकारी संस्थाओं को एक शीर्ष संस्था के अंतर्गत संगठित करने के लिए अखिल भारतीय सहकारी संस्थान का गठन किया गया। भारतीय प्रांतीय बैंक संगठन के इसमें विलय के बाद इसे भारतीय सहकारी संघ के नाम से पुनर्गठित किया गया। इसके बाद 1961 में भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ नाम रखा गया। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ अपने सदस्य सहकारी समितियों के सदस्यों, कर्मचारियों और पदाधिाकारियों के लिए राष्ट्रीय सहकारी शिक्षा केंद्र के अंतर्गत डिप्लोमा पाठयक्रम के अलावा अन्य कार्यक्रम भी आयोजित करता है। इसके साथ ही सहकारी शिक्षा क्षेत्रीय परियोजनाएं, सहकारी शिक्षा क्षेत्रीय महिला परियोजनाएं, पूर्वोत्तार राज्यों के लिए सहकारी शिक्षा क्षेत्रीय परियोजनाएं और राज्य सहकारी संघों द्वारा चलायी जा रही सहकारी शैक्षणिक गतिविधियों का निरीक्षण एवं मार्गदर्शन भी किया जाता है। विपणन सहकारी संस्थाओं की शीर्ष संस्था नेफेड है, जिसने वर्ष 2009-10 में 4706.65 करोड़ रुपए का कारोबार किया। इनमें खाद्यान, दालें, तेल एवं तिलहन के आयात-निर्यात के अलावा समर्थन मूल्य योजना के अतंर्गत तिलहनों व दलहनों की खरीद भी शामिल है। देश में सहकारी विपणन संस्थाओं की संख्या 10710 और विशिष्ट वस्तु केंद्रित संस्थाओं की संख्या 5585 है। जिनकी सदस्या 53.70 लाख किसानों की है। कुछ विशिष्ट वस्तु केंद्रित विपणन संघों ने महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, केरल, गुजरात, राजस्थान, असम, कर्नाटक आदि में अपनी अलग पहचान बनायी है। नेफेड मूल्य समर्थन की गतिविधियों में लगातार योगदान दे रहा है और कुछ चुनिंदा वस्तुओं के आयात निर्यात के लिए केंद्रीय एजेंसी के रूप में काम करता है। देश में विपणन सहकारी संस्थाएं खाद, बेहतर बीज, कीटनाशक, कृषि उपकरण और कृषि यंत्र जैसे कच्चे माल किसानों तक पहुंचाने और उत्पादों की भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए कार्य कर रही हैं। चीनी उत्पादन में 371 सहकारी चीनी मिलों की भागीदारी 50 प्रतिशत है। सहकारी चीनी मिलों ने ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सिंचाई सुविधााओं के विकास, सड़क निर्माण, डेयरी और मुर्गी पालन को बढ़ावा, शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना, चिकत्सा सुविधा, क्षेत्रीय विकास और रोजगार सृजन की दिशा में जो योगदान दिया है उसने ग्रामीण क्षेत्रों का चेहरा बदलने में मदद की है। बागानी फसलों, चाय, काफी, रबर, सुपारी, कोकोआ, इलायची, फल एवं सब्जी, खाद्यान्नों एवं तिलहनों के प्रसंस्करण में भी सहकारी क्षेत्र के योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
इफको और कृभको जैसी सहकारी संस्थाओं ने उत्पादन में किसानों की सेवा में उत्कृष्टता के नये रिकॉर्ड स्थापित किये हैं। इफको की स्थापना 3 नवंबर, 1967 को हुई थी जिसने 2008-09 में 441.95 करोड़ रुपये का कर पूर्व लाभ अर्जित किया है। वर्ष के दौरान 71.68 लाख मी. टन उर्वरकों का अभी तक सर्वाधिक उत्पादन तथा 112.58 लाख मी. टन उर्वरकों की बिक्री और परिवहन का रिकॉर्ड बनाया है। इफको ने साधाारण बीमा, ऊर्जा, सूचना प्रौद्योगिकी, किसान सेज के क्षेत्र में भागीदारी का विस्तार करते हुए विदेशों में भी अनेक संयुक्त-प्रयास शुरू किये हैं। इफको किसान सेवा ट्रस्ट, इंडियन फार्म फोरेस्ट्री डेवलपमेंट को-ऑपरेटिव और सहकारी ग्रामीण विकास, न्यास के माधयम में किसानों के सर्वागीण विकास के लिए कार्यरत है।
कृभको की स्थापना 17 अप्रैल, 1980 को हुई थी। वर्ष 2008-09 में कृभकों ने 17.43 लाख मी. टन यूरिया तथा 10.85 लाख मी. टन अमोनिया का उत्पादन किया। वर्ष के दौरान 269.34 करोड़ रुपये का कर पूर्व लाभ अर्जित किया है। कृभको अमोनिया के अलावा जैविक खाद के उत्पादन और यूरिया, बीज एवं प्रमाणीकृत बीजों की बिक्री भी करती है।
डेयरी सहकारी के साथ देश के 1.2 करोड़ किसान परिवारों की आजीविका जुड़ी हुई है। एक लाख से भी अधिक गांव डेरी सहकारियों के माधयम से डेरी सहकारी समितियों को मजबूत कर रहे हैं। ऑपरेशन फ्लड ने श्वेत क्रांति कर कई महानगरों को दुग्धा संकट से उबारा है। महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराने में डेरी सहकारी सभी क्षेत्रों में अग्रणी हैं, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 11 क़रोड़ परिवारों की महिलाएं अपने घर पर गायों और भैंसों की देखरेख और उन्हें दूहकर परिवार की आय बढ़ाने में योगदान करती हैं। देश के सभी राज्यों में डेयरी सहकारी दुग्धा उत्पादकों से उचित मूल्य में दूधा की खरीद कर उन्हें उचित मूल्य में उपभोक्ताओं तक पहुंचा रही है। देश की रक्षा मंत्रालय की अधाीनस्थ विभिन्न सुरक्षा इकाइयों के लिए 2008-09 में राष्ट्रीय सहकारी दुग्धा परिसंघ ने 5.57 करोड़ लीटर दूधा, 362 करोड़ लीटर टेट्रा मिल्क पैक, 4818 मी. टन दुग्धा उत्पादों की आपूर्ति की। भारत-तिब्बत सीमा पुलिस को 190.46 मी. टन दुग्धा उत्पादों की आपूर्ति की गयी। रेलवे स्टेशनों और रेलवे परिसरों में मिल्क पार्लर के लिए 598 स्टाल विभिन्न दुग्धा सहकारी संघों/यूनियन को आबंटित किये गये।
चीनी उत्पादन में सहकारी चीनी मिलों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। देश में 31 मार्च, 2009 को कुल 624 चीनी मिलों में से 317 मिलें सहकारी क्षेत्र में थी। राष्ट्रीय शहरी सहकारी बैंक्स एवं ऋण समितियों का परिसंघ नैफकब शीर्षस्थ संस्था है। भारतीय राष्ट्रीय श्रमिक सहकारी संघ में 206 समितियां अब तक सदस्य बन चुकी हैं, जो श्रमिक सहकारी आंदोलन को बढ़ावा देती हैं। राज्य सहकारी बैंकों के राष्ट्रीय परिसंघ के अधाीन 97224 प्राथमिक कृषि सहकारी, 371 जिला केंद्रीय सहकारी बैंक और 31 राज्य सहकारी बैंक शामिल हैं। राष्ट्रीय सहकारी मत्स्य संघ ने वर्ष 2008-09 में केंद्र प्रायोजित ग्रुप बीमा योजना के अंतर्गत 25 लाख से अधिाक मछुवारों को यह सुविधाा प्रदान की। देश के 19 राज्यों एवं चार संघ शासित राज्यों में फैली यह 24 घंटे की बीमा योजना है। देश में 15 हजार से भी अधिाक प्राथमिक मत्स्य सहकारिताएं हैं।
’कोआॅपरेटिवस इन जैनरेशन ऑफ एम्पलायमेंट – ए स्टडी’ में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में सहकारिता का महत्वपूर्ण योगदान एवं अंशदान है। कृषि ऋण में करीब 43 प्रतिशत , उर्वरक उत्पादन में 25 प्रतिशत, चीनी उत्पादन में 50 प्रतिशत, हैंडलूम में 54 प्रतिशत, गेहूं की वसूली में 33 प्रतिशत तथा ग्रामीण स्तर पर भंडारण क्षमता में 65 प्रतिशत तक सहकारी क्षेत्र का अंशदान है। सहकारी क्षेत्र प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से 159.40 लाख लोगों को रोजगार उपलब्धा कराने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र है।
सहकारी आवास आंदोलन सम्पूर्ण देश में फैला हुआ है। कुछ वर्षों में आवास सहकारिताओं ने अपनी संख्या एवं आकार के साथ-साथ ढांचे में भी विकास किया है। आवास सहकारिताएं 3 स्तरीय ढ़ांचे के रूप में कार्य करती हैं जैसे- आधारभूत स्तर पर प्राथमिक सहकारिताएं हैं, जिनकी कुल 92000 समितियां हैं तथा जिनकी सदस्यता 65 लाख है। 26 अपेक्स संस्थाएं राज्यों में हैं तथा एक राष्ट्रीय आवास सहकारी संघ है। मार्च 2009 तक राज्यों में अपेक्स संस्थाओं ने एल.आई.सी., सहकारी बैंकों एवं अन्य वित्ताीय संस्थाओं से 10,159 करोड़ रुपये का ऋण लिया तथा 10,709 करोड़ रुपया सदस्यों में 23.84 लाख आवासीय इकाईयों को बनाने के लिए वितरित किया। नेशनल अर्बन हाउसिंग एण्ड हैबीटेट पॉलिसी में भारत सरकार ने आवास सहकारिताओं को बड़ी भूमिका सौंपी है। सभी के लिए आवास प्रमुख क्षेत्र है। प्रतिवर्ष 20 लाख अतिरिक्त आवास निर्माण के साथ सरकार ने वर्ष 1998-99 में आवास कार्यक्रम शुरू किया। प्रतिवर्ष सहकारिताओं को एक लाख आवासीय इकाइयों के निर्माण का कार्य सौंपा गया है। कार्यक्रम के प्रथम 11 वर्षों में सहकारिताओं ने 9.51 लाख आवासीय इकाइयों का निर्माण किया था। उसी प्रकार सहकारिताओं को ग्रामीण आवासीय इकाइयों का निर्माण का कार्य भी सौंपा गया है। राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम ने आवासीय ग्रामीण सहकारिताओं को वित्ताीय सहायता देनी शुरू कर दी है जिसका सम्पूर्ण सहकारी क्षेत्र पर हितकर प्रभाव पड़ेगा।
भारत में सहकारी ऋण ढांचा सहकारिता आंदोलन का सबसे पुराना एवं बड़ा ढ़ांचा है। इसमें ग्रामीण ऋण में अल्पावधि एवं दीर्घावधि ऋण संस्थाएं, वाणिज्यिक बैंक, आर.आर.बी., नाबार्ड एवं भारतीय रिजर्व बैंक आदि सम्मिलित हैं। शहरी ऋण में वाणिज्यिक बैंक, शहरी सहकारी बैंक एवं शहरी ऋण सहकारी समितियां आदि शामिल हैं। कर्जदार संस्था के निश्प्रभावशीलता में कृषि उत्पादनों की बढ़ोत्तारी, रोजगार सृजन एवं उसके द्वारा ग्रामीणों में आय बढ़ोत्तरी में सहकारी ऋण ढांचा एक निर्णायक भूमिका अदा कर रहा है। यह एक महत्वपूर्ण कदम है कि सहकारिताएं जिनके पास केवल 6 प्रतिशत कुल बैंकों की जमा राशि है। वह 50 प्रतिशत छोटे किसानों की अल्पावधि कृषि संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करती हैं। शहरी सहकारी ऋण ढांचा समाज के कमजोर वर्ग एवं मध्यम वर्गीय दर्जे की आवश्यकताओं को पूरा करता है। उनको मजबूत, व्यावहार्य, जीवनक्षम, स्वायत्ता, गतिशील एवं प्रजातांत्रिक बनाने में पहल की गई है।
वर्ष 2007-08 में 4,73,8970 लाख रुपये अल्पावधि, 1025270 लाख रुपये मध्यावधि एवं रुपये 20,2110 लाख दीर्घावधि के लिए उत्पादन अग्रिम ऋण के रूप में सहकारिताओं द्वारा प्रदान किए गए। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में सहकारिताओं का हिस्सा कृषि ऋण वितरण में 19 प्रतिशत, उर्वरक वितरण में 36 प्रतिशत, उर्वरक उत्पादन में 26 प्रतिशत, चीनी उत्पादन में 47 प्रतिशत, गेहूं उत्पादन में 33 प्रतिशत, पशु चारा उत्पादन एवं वितरण में 50 प्रतिशत, खुदरा उचित मूल्य दुकान में 20 प्रतिशत, तिलहन विपणन में 49 प्रतिशत एवं इससे भी अधिक है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बढ़ावा देने तथा उपभोक्ता को उचित मूल्य पर अच्छी वस्तुएं दिलवाने में उपभोक्ता सहकारिताएं एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं। सामान्यतः सभी पैक्स, लैम्पस एवं विपणन समितियां ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता समितियां चला रहे हैं। कुछ समितियों ने शहरी क्षेत्रों एवं अर्ध शहरी क्षेत्रों में विभागीय भंडार खोल रखे हैं। इसका मुख्य उद्देश्य मूल्य बढ़ोत्तारी को रोकना तथा निजी क्षेत्रों को कड़ी प्रतिस्पर्धा देना है। उपभोक्ता सहकारिताएं बड़ी संख्या में ग्रामीण क्षेत्रों में आवश्यक उपभोग वस्तुओं के वितरण के लिए तथा ग्रामीण गरीब वर्गों के जीवन स्तर के रखरखाव के लिए उत्तारदायी हैं।
सहकारिता खाद्य सुरक्षा के संबंध में बहुत बड़ी भूमिका निभा रही है। यद्यपि, अनेकों संस्थाएं खाद्य सुरक्षा के सुधार की प्रक्रिया में लगी हुई हैं। जिसमें भारत सरकार एवं उनके विभिन्न विभाग एवं संस्थाएं, किसान, एनजीओ समुदाय, निजी व्यावसायिक क्षेत्र आदि प्रमुख हैं। विश्व खाद्य समिति कार्य योजना द्वारा अच्छी तरह से सचेत किया गया कि जिन राज्यों में ग्रामीणों के लिए आर्थिक एवं सामाजिक संस्थाएं हैं उनको बढ़ावा दिया जाए।
महिलाओं एवं युवकों के लिए सहकारिता बहुत ही अहम् भूमिका अदा करती हैं क्योंकि इनके द्वारा महिलाओं की दैनिक प्रयोग तथा व्यावहारिता दोनों ही प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिलती है। भले ही केवल महिला सहकारिताएं हों अथवा पुरुष एवं महिलाओं की मिश्रित सहकारिताएं हों, यह महिला सदस्यों तथा उनके कर्मचारियों के लिए एक प्रभावशाली संगठनात्मक साधन उपलब्ध कराती हैं जिसके द्वारा कार्य करने के उत्ताम अवसर उपलब्ध कराकर, बचत एवं ऋण की सुविधाएं प्रदान कर, स्वास्थ्य, आवास, सामाजिक सेवाएं, शिक्षा एवं प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था कर उनके जीवन स्तर में सुधार लाया जा सकता है। सहकारिताएं महिलाओं को अनेक आर्थिक क्रियाकलापों में सहभागिता अदा करने तथा उनकी निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने का अवसर प्रदान कराती हैं। इस प्रकार की भागीदारिता द्वारा महिलाओं में आत्म-गौरव तथा आत्म-निर्भरता की भावना पैदा होती है। सहकारिताएं महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों में सुधार लाने में भी अपनी अहम भूमिका अदा करती हैं जिसके परिणाम स्वरूप समाज में समानता की भावना बढ़ती है तथा संस्थागत भेदभाव में परिवर्तन आता है।
सहकारी आंदोलन महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार बल्लभभाई पटेल तथा अन्य स्वतंत्रता पूर्व के महान देश भक्तों द्वारा पल्लवित एवं पोषित किया गया। समाज-सुधार एवं गरीब कृषकों के उत्थान में सहकारिता की भूमिका को उन्होंने अच्छी तरह समझा था। पंडित नेहरू जी ने देश में सहकारिता आंदोलन के महत्व को स्वीकार करते हुए उसको मजबूत करने में सार्थक पहल की थी। उनकी ही प्रेरणा एवं प्रयासों से देश में सहकारी संस्था हर क्षेत्र में योगदान कर रही है। उन्होंने कहा था कि मैं पूरे देश को सहकारिता से ओत-प्रोत देखना चाहता हूं।
अमित दूबे