मौलिकता ढूंढ़ती शिक्षा

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हजारों वर्षों से विदेशी आक्रमण के कारण अपनी ज्ञान परंपरा को भूल चुके भारत को फिर से उठने का सामथ्र्य इसकी अपनी मौलिक शिक्षा ही दे सकता है। राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने केे बावजूद भारत में यहां की प्रकृति, संस्कृति व संस्कार के अनुकूल शिक्षा व्यवस्था खड़ी नहीं हो सकी। इतना ही नहीं, स्वतंत्र भारत में जो शिक्षा दी जाती रही है वह भारत केे गौरवशाली अतीत को धूमिल करने वाली रही। बहुत वर्षों बाद उसमें सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन, बहुत देर के बाद।

लंदन स्थित इंडिया आफिस लाइब्रेरी में ब्रिटिश सरकार के भारत से संबंधित दस्तावेज से यह पता चला कि 18वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत में जब अपनी शिक्षा लागू करने की कोशिश कर रहे थे, तब भारत की परंपरागत शिक्षा का सर्वेक्षण किया गया। उस दस्तावेज से पता चलता है कि भारत में लगभग हर गांव में एक विद्यालय होता था। बड़े गांव में जनसंख्या के अनुपात में एक से अधिक विद्यालय होते थे। शहरों में भी अनेक विद्यालय होते थे। उस समय उन विद्यालयों में भारतीय ग्रंथों के साथ ही साहित्य, संस्कृति, गणित, व्याकरण, भारतीय विज्ञान और शिल्प की शिक्षा दी जाती थी। आजादी के बाद गांधीवादी विचारक धर्मपाल ने इंडिया आफिस लाइब्रेरी से दस्तावेजों की जो छायाप्रति एकत्रित किए थे, वे भारत में शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने की योजना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उस समय अंग्रेजों ने जो सर्वेक्षण किया था, उसमें बंगाल प्रेसीडेंसी, मद्रास प्रेसिडेंसी, पंजाब और मुंबई प्रेसीडेंसी के आंकड़े उपलब्ध थे। इस सर्वेक्षण में लिखा हुआ था कि किन जातियों के कितने छात्र विद्यालयों में पढ़ते थे और किन जातियों के शिक्षक पढ़ा रहे थे। धर्मपाल जी ने पाया कि उनमें जिन्हें तथाकथित निचली जातियां कहा जाता है या अछूत जातियां कहा जाता है उन जातियों के शिक्षक पढ़ा रहे थे। उन जातियों के बच्चे बड़ी संख्या में पढ़ भी रहे थे। इससे स्पष्ट होता है कि भारत में लोगों को निचली जाति का बताने का प्रचार, जो अंग्रेजों ने किया है, वह बड़ा झूठ है। तथाकथित उच्च जातियों सहित निचली या पिछड़ी जातियांे के बच्चे बराबरी से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। अक्षर ज्ञान के साथ वे अपने-अपने शिल्प में तथा तकनीक में कुशल हो जाते थे। विद्यालयों में ही बच्चों को इस्पात बनाने की विधि, चेचक का टीका लगाने की विधि, उपचार की विधि, यहां तक कि आयुर्वेद, जड़ी-बूटियों, शल्य चिकित्सा, आहार-विहार, स्वच्छता और सुव्यवस्था का ज्ञान देकर उन्हें दक्ष बनाया जाता था। यह सब जानने के बाद अंग्रेजों ने योजनापूर्वक भारत के विषय में नितांत झूठा प्रचार किया। समाज व स्थानीय शासकों के सहयोग से चलने वाले ऐसे विद्यालयों को नष्ट करने का प्रयास किया। वर्ष 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद भी अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति ही यहां चलती रही। धर्मपालजी ने साक्ष्यों के आधार पर पुस्तक लिखी, जिसका नाम ’द ब्यूटीफुल ट्री’ है। महात्मा गांधी भारत के ऐसे विद्यालयों के बारे में जानते थे। दक्षिण अफ्रिका से भारत आने के बाद उन्हें लगा था कि भारत को आजाद कराने के लिए सबसे पहले यहां की शिक्षा व्यवस्था को सुधारना होगा। भारतीय संस्कारों से युक्त शिक्षा देने के उद्देश्य से ही उन्होंने यहां बुनियादी विद्यालयों की स्थापना कराने का अभियान चलाया। बिहार के चंपारण में उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही शिक्षा, स्वच्छता व अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाया। गांधीजी ने शिक्षा के लिए सबसे पहले बुनियादी विद्यालयों की स्थापना करायी। इन विद्यालयों को बाद में गांधी विद्यालय कहा गया। इन विद्यालयों में शिक्षा के साथ-साथ खेती, शिल्प आदि की भी शिक्षा दी जाती थी।

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धर्मपाल जी का स्पष्ट विचार है कि जैसे तरह-तरह के जानवर होते हैं। शेर, गाय, भालू , चीता। सभी पशु ही हैं। लेकिन, सबके स्वभाव अलग-अलग हंै। उसी प्रकार मनुष्य समाज के भी स्वभाव अलग-अलग होते हैं। भारत का जो अपना स्वभाव है वह यूरोप के स्वभाव से बिल्कुल अलग है। शिक्षा का संबंध समाज के मूल स्वभाव से है। भारत के स्वभाव में सत्य, अहिंसा, संयम, दूसरे के धन के प्रति गिद्ध दृष्टि न रखना, भोग को प्रधानता न देना है, जबकि यूरोपीय देशों के स्वभाव में छलपूर्वक रणनीति बनाकर संसाधनों पर कब्जा करना है। आत्मकेंद्रित होकर केवल अपने बारे में ही सोचना है। ऐसे में यूरोप के माडल वाली शिक्षा से भारत का स्वाभाविक विकास एवं संपूर्ण कल्याण संभव नहीं है।

धर्मपाल जी, गांधी जी की इस बात को भी मानते थे कि भारत कभी भी पराधीन नहीं था। केवल इसके थोड़े से समर्थ और सबल लोग अचानक अंग्रेजों की चकाचैंध और यूरोप की चकाचैंध में आ गए थे। उसकी नकल करने लगे थे और अपने समाज से इन लोगों ने दूरी बना ली थी। लेकिन, वही वर्ग भारत की शिक्षा व्यवस्था को संचालित करता रहा।

1901 में लार्ड कर्जन ने शिमला में एक गुप्त शिक्षा सम्मेलन किया था, जिसमंे 152 प्रस्ताव स्वीकृत हुए थे। इस सम्मेलन में किसी भारतीय को नहीं बुलाया गया था। इस सम्मेलन के निर्णयों का प्रकाशन भी नहीं हुआ था। यह भारतीय शिक्षा के विरुद्ध बहुत बड़ा षड्यंत्र था। प्राथमिक शिक्षा की उन्नति के लिए कर्जन ने भारी रकम की स्वीकृति दी थी। लेकिन, शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था, शिक्षा अनुदान पद्धति और पाठ्यक्रम में सुधार जैसे कार्य अपने नियंत्रण में रखा। इसका उद्देश्य भारत की शिक्षा को अंग्रेजी पारिस्थितिक में ढालना था। माध्यमिक स्कूलों पर सरकारी शिक्षाविभाग और विश्वविद्यालय दोनों का नियंत्रण आवश्यक मान लिया गया। लार्ड कर्जन ने विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा की उन्नति के लिए 1902 में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया। पाठ्यक्रम, परीक्षा, शिक्षण, कालेजों की शिक्षा, विश्वविद्यालयों का पुनर्गठन इत्यादि विषयों पर अंग्रेजों का एकाधिकार था। इस आयोग में भी कोई भारतीय न था। अंग्रेजों की दी गयी व्यवस्था हाल तक भारत की उच्च शिक्षा में मौजूद रही है।

अंग्रेजों ने यह सिद्धांत भारत में स्थापित किया कि भारत का विकास तभी होगा जब यहां के लोगों को अंग्रेजी में शिक्षा दी जाएगी, जबकि यह सिद्धांत शिक्षा के मान्य सिद्धांत से बिल्कुल विपरीत था। पूरे विश्व के शिक्षा शास्त्री यह मानते हैं कि बच्चे अपनी मातृभाषा में तेजी से शिक्षाग्रहण करते हैं। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए। लेकिन, दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत में शिक्षा अंग्रेजी में देने का माहौल बनाया गया। सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा के कारण अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी कान्वेंट माॅडल वाले स्कूल खुल रहे हैं, जिसमें बच्चों पर अंग्रेजी में शिक्षा ग्रहण करने के लिए दबाव बनाया जाता है।

जर्मनी, फ्रांस, जापान, रूस, चीन सहित विश्व के अन्य देशों में मातृभाषा में शिक्षा प्रदान की जाती है, ये प्रगति में भी हमसे कहीं आगे हैं। पर, हम आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता का तर्क देते हैं। यह तर्क गलत ही नहीं, बल्कि हानिकारक भी है। एक तर्क दिया जाता है कि दुनिया ग्लोबल हो गई और इस दौर में हमें आगे बढ़ने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता को स्वीकार करना होगा। लेकिन, वास्तव में हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश को आगे बढ़ाने के लिए नवाचार और शोध पर बल देना होगा। शोध के क्षेत्र ऐसे होने चाहिए, जो अंतर्विधात्मक अनुसंधान का उन्नयन करें। अनुसंधान की विषय-वस्तु गहन मानवीय महत्व की होनी चाहिए। शोध की विषय-वस्तु उनसे संबंधित होनी चाहिए, जिन्हें मूलभूत सुविधाओं की आवश्यकता हो, मगर ज्यादा महंगी भी न हो। शोध परियोजनाओं के चयन के समय राष्ट्रीय महत्व के क्षेत्रों की ओर ध्यान देना चाहिए। शोध परियोजना की निश्चित समय सीमा होनी चाहिए तथा किन्हीं भी परिस्थितियों में परियोजना की समयावधि नहीं बढ़ाई जानी चाहिए। भारत में शिक्षा को लेकर यह चुनौतियां हैं।

भारत में हमने अपने बच्चों को वह इतिहास पढ़ाया, जिसे पढ़कर उनके अंदर आत्मगौरव का बोध नहीं हो। हमारी पाठ्य पुस्तकों में लाला लाजपत राय, विपीनचंद्र पाल, गुरु गोविंद सिंह जैसे महापुरुषों को आतंकी बताया जाता रहा है। भारत की संस्कृति, इंतिहास पर पुस्तक वैसे लोगों ने लिखे जिन्होंने भारत के धर्म शास्त्रों को और भारतीय इतिहास ग्रंथों को बिल्कुल भी नहीं पढ़ा था। केवल यूरोपीय प्रेरणा से लिखे गए भारतीय इतिहास को ही पढ़ा था। ऐसे लोगों द्वारा लिखी गयी पुस्तकों में बड़ी-बड़ी आधारभूत गड़बड़ी रही है। ऐसी पुस्तकें हमारी कई पीढ़ियां पढ़ती रहीं। इससे भारत को भारी क्षति पहुंची है। इसमें सुधार का काम आसान नहीं है। अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन को नैतिक आधार देने के लिए आर्य आक्रमण के सिद्धांत को यहां पाठ्यक्रम में शामिल कराया था। शोध के नाम पर तथ्यों को तोड़मरोड़ कर यह बताया गया कि भारत में मूल रूप से निवास करने वाले द्रविड़ थे। जो शहरों में रहते थे। उन पर आर्यों ने आक्रमण किया और उनके शहरों को नष्ट कर दिया। अनार्यों को पराजित कर वे भारत पर शासन करने लगे। उसी प्रकार अंग्रेज भी यहां युद्ध जीतकर शासन कर रहे हैं। यहां ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनायी गयी, जिसमें अंग्रेजों को महान और नैतिक बताया जाने लगा, ताकि यहां के लोग नैतिक रूप से स्वयं को हीन समझने लगे। वहीं धर्मपालजी ने ब्रिटेन से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर यह बताया कि कंपनी शासन से लेकर सीधे क्राउन के शासन काल तक यहां नियुक्त होने वाले अंग्रेज अधिकारी व कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त होते थे। यहां से एकत्रित खजाना को वे ब्रिटिश सरकार के पास नहीं जमा नहीं कराते थे। बल्कि उसका उपयोग वे अपने ऐशो-आराम के लिए संपत्ति खड़ा करने में करते थे। भारत में भ्रष्टाचार का रोग अंग्रेजों ने फैलाया था। कैसे फैलाया, यह शोध व शिक्षा का विषय हो सकता है। अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी हमारे बच्चों को इसकी जानकारी नहीं दी गयी। अंग्रेजी भााषा और अंग्रेज श्रेष्ठ थे, इस प्रकार की हीन भावना से निकालने वाली शिक्षा से हमारी कई पीढ़ियां वंचित रहीं, जबकि यह आवश्यक था।

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