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महिलाओं की नजर में राम

रघुकुल के गौरव, मर्यादा पुरुषोत्तम राम भारतीय जनमानस में भगवान से ज्यादा एक ऐसे आदर्श चऱित्र हैं जो त्याग, न्याय, सदाचार और प्रेम के प्रतीक हैं। एक ऐसे राजा जिन्होंने परिवार और प्रजा के हित को सर्वोपरि रखा, राजमहल से निकलकर वन के कंटीले रास्तों पर चलते हुए जो भी प्रेम से मिला, उसे अपना बना लिया-जाति और वर्ण के भेद को भुलाकर। उन्होंने एक ऐसा चारित्रिक मापदंड स्थापित किया कि आज भी लोग कहते हैं….बनो तो राम की तरह बनो। लेकिन विष्णु के सातवें अवतार भगवान राम एक बिंदु पर आज भी प्रश्नसूचक के साथ मौन खड़े हैं। उनकी पत्नी वैदेही यानी सीता यानी जनकनन्दनी के प्रति उनका अनुराग अधिक था या विराग? वह अच्छे पुत्र हैं, अच्छे पुरुष हैं, उत्तम शासक हैं, परंतु एक पति के रूप में वे सीता के साथ नजर आते भी हैं और नहीं भी। स्त्री विमर्श की मुखर और मननशील महिलओं की नजर में राम का यही अंतद्र्वन्द्व स्वरूप गहरी विवेचना और आलोचना का विषय है।
युद्ध समाप्त हो गया है। रावण की मृत्यु के बाद एक चट्टान पर सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय के तराजू को तौलते हुए राम सागर तट पर एक चट्टान पर शांत बैठे हैं कि तभी एक स्त्री छाया के पास आने का आभास होता है। वह ठिठक जाते हैं। रणक्षेत्र में स्त्री का आगमन….क्यों और कैसे? जिज्ञासु मन अधीर हो उठता है, परंतु धरती पर लटके पैर स्वतः ही चट्टान पर आ जाते हैं, राम पालथी मारकर खुद को समेटकर बैठ गए हैं, इस भाव के साथ कि गलती से किसी पराई स्त्री की छाया का स्पर्श उनके किसी अंग से न हो जाए। स्त्री समीप आ गई है। बिना मुड़े, बिना देखे वह पूछते हैं….कौन हैं आप और क्या चाहती हैं? पता चलता है कि लंकापति रावण की पत्नी मंदोदरी अपने पति का संहार करने वाले को देखने आई है। वह कहती है…मैं देखना चाहती थी कि वह कौन है जिसने अजेय और प्रकांड विद्वान रावण को मार गिराया, देखना चाहती थी कि ऐसा कौन सा गुण है उस व्यक्ति में जो मेरे पति में नहीं था। क्या था वह भेद जो रावण से ज्यादा राम को श्रेष्ठ बनाता है। इससे पहले कि राम कुछ कहते, मंदोदरी अपने प्रश्न का स्वयं उत्तर देते हुए कहती हैं….अब समझ में आया वह भेद क्या है। एक तुम हो जो पराई स्त्री की परछाई को भी स्पर्श नहीं करना चाहते और एक रावण था जिसने पराई स्त्री को अपना बनाने के लिए सबकुछ दांव पर लगा दिया। स्त्री के प्रति राम का यह मर्यादित रूप अनुकरणीय भी है और प्रशंसनीय भी।
अब एक और प्रकरण। रावण की मृत्यु के बाद राम विभीषण को लंका का साम्राज्य देने के लिए उनके राज्याभिषेक की तैयारियों में जुट गए हैं और हनुमान जी को आज्ञा देते हैं कि सीता को सूचना दे दो कि हम सकुशल हैं और रावण मारा जा चुका है। लेकिन, जाते हुए पवनपुत्र को यह भी जता देते हैं कि अभी सीता से मिलने का समय नहीं आया है। इधर, सीता समाचार सुनने के बाद से ही राम को मिलने को आतुर हैं। पर, यह क्या? राम ने मिलने के बाद सीते-सीते के मधुर बोल नहीं बोले। बल्कि गंभीर और संयत वाणी में यह जरूर जता दिया कि एक पति से पहले मैं एक मर्यादित कुल का वंशज हूं। यह जानते हुए भी कि मेरी सीता अग्नि की तरह पवित्र है, मैं समाज और कुल को कैसे समझा सकूंगा….ये थे राम के वे बोल जो सिया को स्तब्ध कर जाते हैं। वज्रपात तो तब होता है जब वह सीता से कहते हैं….मेरी तरफ से तुम स्वतंत्र हो। किसी के साथ और कहीं भी जा सकती हो।
तब पूछा गया सीता का प्रश्न आज की महिलाओं का भी प्रश्न है। सभी को राम से इस बात का उत्तर चाहिए कि यदि सीता को अपनाना नहीं था, उसे पराए मर्द के बल प्रयोग का हवाला देकर तिरस्कार ही देना था तो फिर युद्व क्यों? सीता ने किसी और के साथ जाने की बजाय अग्नि में समाहित होने का निर्णय लिया। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि जो राम सीता की शुचिता पर तनिक भी संदेह नहीं करते, वह सिर्फ इसलिए विवाह के बंधन से विलग हो जाने के लिए तैयार हो चले हैं कि समाज का नजरिया बदलने का साहस उनमें नहीं। क्या यह मन को नहीं अखरता कि अपनी अर्धांगिनी से वह ये सारी बातें एकांत में न कहकर भरी सभा में लोगों के सामने उठाते हैं? और…जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर यह निर्णय भी सुना देते हैं कि उनके लिए सीता अब प्रिया नहीं, सिर्फ एक स्त्री हैं जिसकी पवित्रता पर संदेह का काला कलंक इतना गहरा है कि वह उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं।
अब तीसरा प्रसंग। यहां राम पत्नी के सम्मान का झंडा बुलंद कर अयोध्या आ चुके हैं। अग्निपरीक्षा मंें सीता का सुरक्षित निकल आना, पारिवारिक सहमति का आधार बन चुका है। राजगद्दी पर आसीन राम के बगल में सीता को रानी का दर्जा मिल चुका है। लेकिन, गुप्तचर की एक खबर राम को विचलित कर बैठी है। एक धोबी ने एक रात घर से बाहर रही अपनी पत्नी को यह कहते हुए घर से निकाल दिया है कि मैं राम नहीं जो घर से बाहर रही स्त्री को स्वीकार लूं। वह खुद से ही पूछ रहे हैं…क्या धोबी का कथन अकारण है? यदि नही ंतो समाज के अन्य वर्गों में भी यही बात हो रही होगी। एक राजा के रूप में क्या मैं सही मर्यादा को स्थापित कर पा रहा हूं और गर्भवती सीता का ख्याल आते ही यह बात बुरी तरह खटक जाती है कि कहीं लोग भावी संतान को भी रावण से जोड़कर न देखने लगें। यहीं से वह फैसला लेते हैं सीता के निर्वसन का। विवाह के बाद वह पतिधर्म निभाते हुए सारा राजसुख छोड़कर वन वन भटकने और रावण आतंक झेलने के लिए मजबूर हुई और जब मां बनने का सुख मिलने वाला है तो एक बार फिर पति ने समाज के सवालों पर मौन का ताला जड़ने के लिए सीता के सुख और सम्मान की बलि ले ली। जब सीता से लक्ष्मण ने विदा लेते हुए पूछा कि भैया को क्या जवाब दूंगा तो सीता का जवाब वेदना और तिरस्कार से उपजा एक गहरा कटाक्ष बन जाता है। वह कहती हैं….अभी तो वन में आई हूं। कुछ दिन बीत जाएं, वनवासियों की तरह रहने और बात करने का अंदाज सीख लूं तो बता सकूंगी कि क्या जवाब देना चाहिए।
इन सारे प्रसंगों और प्रकरण को वर्णित करने का कारण यह नहीं कि हम रामायण को पढ़ाना चाहते हैं, बल्कि यह चाहते हैं कि लोग जानें कि हर स्वाभिमानी स्त्री की नजर में राम का यह पक्ष क्यों अक्सर किरकिरी की तरह चुभता है, कचोटता है, उद्वेलित करता है। ऐसा नहीं कि स्त्री को राम से प्रेम नहीं, उनके बनाए आदर्श स्वीकार्य नहीं। हर स्त्री राम सा पुत्र चाहती है क्योंकि उनका पुत्र रूप अनुकरणीय है, अदभुत है। सौतेली मां के कहने पर वह सारा सुख त्यागकर वनवासी बन जाते हैं, एक आदर्श भाई के सारे दायित्व निभाते हैं, एक अच्छे राजा का धर्म निभाते हैं। लेकिन क्यों हर बार सीता को ही संताप झेलना पड़ता है, राम के रहते। क्यों उन्हें ही गुजरना पड़ता है अग्निपरीक्षा से, क्यों उन्हें ही मिलती है सजा दूसरे के मिथ्या आरोपों पर। वह भी राम के रहते। यह सारे प्रश्न पहले भी स्त्रियों को सालता रहा और आज भी सालता है। अब तो वे मुखर होकर इसे स्त्री विमर्श के दायरे में ले आई हैं और सीधी सच्ची, त्यागमई सीता के प्रति अन्याय का मुद्दा उठाती हैं।
वही, राम जो पत्थर बनी अहिल्या का उद्धार कर समाज को यह संदेश देते हैं कि स्त्री का ऐसा अपमान सभ्यता और संस्कृति का सूचक नहीं हो सकता। वही राम जो एक पत्नी का व्रत निभाते हैं, बहुपत्नीवाद को नकार कर विवाह संस्था में एक पत्नी का नया आदर्श स्थापित करते हैं, वही राम जो पराई स्त्री को देखना या उससे प्रमाद करना पाप समझते हैं, वही राम क्यों सीता को उसका सम्मान और स्थान कभी नहीं दिला पाते। इसीलिए तो स्त्री विमर्श में जब राम पर सवाल उठते हैं और उसके जवाब मेें लोग राजधर्म और नीति की दुहाई देकर, प्रारब्ध की बात कहकर इसे एक संयोग कहकर विराम देना चाहते हैं तब हर स्त्री में दबी हुई सीता उठती है और सवाल करती है…..आखिर क्येां? मेरे साथ ही ऐसा क्यांे? हे राम! त्ुाम तो सब जानते थे, फिर ऐसा व्यवहार क्यों? क्यों तुमने सीता नाम को सुख और सौभाग्य की बजाय संताप का पर्याय बना दिया। क्या मिला राम ऐसा करके? वह बेशक मंदिर में उनके साथ खड़ी दिखती हैं, जीवन में दूर रहकर भी वादा निभाने का साथ देती हुईं, परंतु राम नाम की आड़ में पीछे दुबकी सीता को स्त्री की नजर देख रही है और समझ रही है कि साथ रहने का नाटक करती हुई सीता असल में राम से उसी दिन दूर हो गई थी जब पहली बार राम ने उनकी शुचिता पर सवाल उठाया। और….आज भी सीता उतनी ही दूर है, क्योंकि राम के पास सीता के सवालों का कोई जवाब नहीं। उनका मौन उनकी व्यथा हो सकता है, सीता के यक्ष प्रश्नों का समाधान नहीं।

(शुभ किरण)