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भ्रम पर विराम

अयोध्या के इतिहास में 9 नवंबर का दिन फिर से विशेष बन गया, क्योंकि राम जन्मभूमि को लेकर पूरे देश में सैकड़ों वर्षों से छाए भ्रम के घने कोहरे अब छंट गए हैं। शोध के आवरण में परिकल्पना को साक्ष्य बताने की प्रवृत्ति अब भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और सर्वसमावेशी संस्कृति से हार चुकी है। भारत के 130 करोड़ लोगों के हृदय में बसने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की कथा को एक मिथक करार देने की सारी दलिलें अब अप्रामाणिक और अप्रासांगिक हो चुकी है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से रामजन्म भूमि पर उत्खनन से प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य अब वैसे प्रमाण बन गए हैं जिन्हें नकार कर भ्रम का वातावरण बनाने का कोई भी प्रयास दंडनीय अपराध होगा।

जन्मभूमि को लेकर न्यायालय मंे चले मुकदमे में बाबरी ढांचे के पक्षकरों को देश के कुछ वामपंथी बुद्धिजीवियों के खूब सहयोग मिल रहे थे। न्यायालय में चल रहे मुकदमे के समानांतर इन बुद्धिजीवियों ने पूरे देश में अभियान चलाकर रामायण को एक मिथक बताने का प्रयास किया था। रामायण यदि मिथक है तो उस कथा के नायक राम एक कल्पना हैं। ऐसे में राम जन्मभूमि की प्रामाणिकता स्वतः संदिग्ध हो जाती। इन बुद्धिजीवियों ने इतिहास, पुरातत्व और विविध साहित्यिक स्रोतों की भी मनमानी व्याख्या शुरू कर दी थी। रामभक्त तुलसीदास को भी इस विवाद में घसीटते हुए दावा कर दिया था कि उन्होंने राम जन्मभूमि के संबंध में कुछ भी नहीं लिखा है। इसी आधार पर तर्क दिया जाता था कि राम जन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद निर्माण के आरोप सही नहीं हैं। कई बार तुलसीदास रचित रामचरितमानस पर भी सवाल खड़े किए गए कि अगर बाबर ने राम-मंदिर का विध्वंस किया तो तुलसीदास जी ने इस घटना का जिक्र रामचरित मानस में क्यों नहीं किया। इन दावों का सच्चाई से कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि रामचरितमानस की रचना तुलसीदास ने केवल राम के चरित्र का वर्णन करने के लिए की थी। उनकी यह रचना 80 वर्ष की उम्र में पूरी हुई थी। ऐसे में रामचरितमानस में राम जन्मभूमि पर मलेच्छों के अत्याचार का वर्णन कैसे संभव हो सकता है।

तुलसी शतक के प्रमाण

इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जब बहस शुरू हुई थी तब चित्रकुट में निवास करने वाले जगद्गुरु रामानंदाचार्य श्री रामभद्राचार्यजी महाराज को भारतीय साक्ष्य कानून के तहत विशेषज्ञ गवाह के तौर पर बुलाया गया था। इसके बाद श्रीरामभद्राचार्य जी महाराज ने तुलसीदास रचित तुलसी शतक से राम जन्मभूमि मंदिर के संबंध में साहित्यिक प्रमाण प्रस्तुत किए। उनके इस प्रमाण के बाद तुलसीदास को इस मामले में घसीटने वालों के मुंह बंद हो गए। तुलसी दासजी ने अपनी एक महत्वपूर्ण रचना तुलसी शतक में इस घटना का विस्तार से मार्मिक वर्णन किया है, जिसे पढ़कर कोई संवेदनशील आदमी आज भी व्यथित हो सकता है। अयोध्या पर मुगलों के बर्बर हमले का जिक्र करते हुए तुलसीदास लिखते हैं-

मंत्र उपनिषद ब्रह्माण्हू बहु पुराण इतिहास।
जवन जराए रोष भरी करी तुलसी परिहास।।

सिखा सूत्र से हीन करी, बल ते हिन्दू लोग।
भमरी भगाए देश ते, तुलसी कठिन कुयोग।।

सम्बत सर वसु बाण नभ, ग्रीष्म ऋतू अनुमानि।
तुलसी अवधहि जड़ जवन, अनरथ किये अनमानि।।

रामजनम महीन मंदिरहिं, तोरी मसीत बनाए।
जवहि बहु हिंदुन हते, तुलसी किन्ही हाय।।

दल्यो मीरबाकी अवध मंदिर राम समाज।
तुलसी ह्रदय हति, त्राहि त्राहि रघुराज।।

रामजनम मंदिर जहँ, लसत अवध के बीच।
तुलसी रची मसीत तहँ, मीरबांकी खाल नीच।।

रामायण घरी घंट जहन, श्रुति पुराण उपखान।
तुलसी जवन अजान तहँ, कइयों कुरान अजान।।

तुलसी शतक के इन दोहों का अर्थ यह है कि क्रोध से ओतप्रोत यवनों ने बहुत सारे मन्त्र (संहिता), उपनिषद, ब्राह्मणग्रन्थों (जो वेद के अंग होते हैं) तथा पुराण और इतिहास संबंधी ग्रन्थों का उपहास करते हुये उन्हें जला दिया। हिंदुओं को शिखा (चोटी) और यज्ञोपवित से रहित कर दिया। उनके घरों को उजाड़कर अपने पैतृक स्थान से भगा दिया। हाथ में तलवार लिए हुए बर्बर बाबर आया और लोगों की हत्या कर दी। यह समय अत्यन्त भीषण था। उन्होंने उस बर्बर घटना के काल का भी उल्लेख अपने पदों में किया है। उन्होंने अपने पदों में ज्योतिषीय शैली में लिखा है। सम्वत् 1585 विक्रमी (सन 1528 ई) अनुमानतः ग्रीष्मकाल में जड़ यवनों ने अवध में वर्णनातीत अनर्थ किए। जन्मभूमि का मंदिर नष्ट कर, उन्होंने एक मस्जिद बनाई। साथ ही तेज गति उन्होंने बहुत से हिंदुओं की हत्या की। मीर बाकी ने मंदिर तथा रामसमाज (राम दरबार की मूर्तियों) को नष्ट किया। राम से रक्षा की याचना करते हुए विदीर्ण हृदय तुलसी रोये। तुलसीदास जी ने अपनी इस रचना के माध्यम से स्पष्ट किया है कि अयोध्या के मध्य जहां राममंदिर था वहां नीच मीरबाकी ने मस्जिद बनाई।

राम जन्मभूमि विवाद जब उलझता चला गया तब 5 मार्च, 2003 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को वहां उत्खनन कर यह पता लगाने का आदेश दिया कि बाबरी ढांचे के नीचे जमीन के अंदर मंदिर के अवशेष के प्रमाण हैं कि नहीं। उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 12 मार्च, 2003 से उत्खनन कार्य शुरू कर दिया। लगभग सात वर्षों बाद 2010 में एएसआई ने उत्खनन रिपोर्ट तैयार कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय को सौंप दिया। 30 सितंबर, 2010 को न्यायालय ने एएसआई की रिपोर्ट को मंजूर कर लिया। एएसआई की 574 पृष्ठों वाली रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि विवादित ढांचे के नीचे खुदाई में नक्काशीदार पत्थर, कसौटी पत्थरों के खंभे, देवी-देवताओं की खंडित प्रतिमाएं, मंदिर में प्रयोग होने वाले नक्कासीदार सामग्री, आमलक, काले पत्थर के खंभों के ऊपर लगने वाली अष्टभुजीय आकृतियां मिली हैं। इसके अलावा वहां मिले 50 खंभों की नीव से यह प्रमाणित होता है कि वहां पूर्व में हिंदू मंदिर था। वर्ष 1986 में जब न्यायालय के आदेश से रामलला के मंदिर का ताला खुला था, तब बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सैयद शहाबुद्दीन ने कहा था कि अगर यह सिद्ध हो जाए कि बाबरी ढांचे से पहले वहां कोई मंदिर था और मस्जिद उसे तोड़कर बनायी गयी है, तो हम शरीयत के अनुसार उसे मस्जिद नहीं मानेंगे।

उत्खनन रिपोर्ट आ जाने के बाद एएसआई के निदेशक मो. केके ने स्पष्ट कहा कि बाबरी ढांचे का निर्माण मंदिर के ध्वंसावशेष पर हुआ है। एएसआई के अनुसार विवादित जगह व उसके आसपास करीब एक वर्ग किलोमीटर में कल्चरल माउंड है। कल्चरल माउंड यानी विविध कालखंडों की संस्कृतिक गतिविधियों के साक्षी रहे पुरातात्विक अवशेषों से भरा टीला है। एएसआई ने वहां के भूस्तरों को नौ काल खंडों में बांटा है। सबसे प्राचीन कालखंड ईसा से करीब 1000 वर्ष पूर्व का है। इस प्रकार वहां प्राचीन राम जन्मभूमि होने के पुरातात्विक प्रमाण मिले हैं।