गत 5 मार्च को पूरे देश में 13 प्वाइंट रोस्टर के खिलाफ भारत बंद का आह्वान किया गया था। शिक्षा विशेषकर विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था में कई आरक्षित वर्ग पिछड़ न जाए, इसके लिए यह बंद बुलाया गया था। 7 मार्च को सरकार ने अध्यादेश लाकर 13 प्वांइट रोस्टर प्रणाली को खत्म कर दिया और उसके जगह पर अब 200 अंकीय रोस्टर प्रणाली लागू किया। अब विभाग को एक इकाई न मानकर विश्वविद्यालय को एक इकाई माना गया है। इस विवाद में कुछ मौलिक मुद्दे अनुत्तरित रह गए। भारत जैसे विराट, विशाल और ज्ञान की शाश्वत परंपरा वाले देश में उन मुद्दों पर भी चर्चा होना आवश्यक है।
सामान्य बातचीत में गुरु और शिक्षक तथा शिष्य और विद्यार्थी को एक ही समझ लिया जाता है। लेकिन, वास्तव में इनमें काफी अंतर है। गुरु वह सत्ता है जो किसी व्यक्ति को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। शिष्य एक दीप के समान होता है जिसे प्रज्वलित नहीं किया गया है। अपनी अग्नि से गुरु शिष्य के दीपक को प्रज्वलित करता है और फिर अंधकार की सत्ता को समाप्त कर प्रकाश की सत्ता स्थापित करता है। वहीं, शिक्षक विद्यार्थी को कुछ सूचनाएं प्रदान करता है। उन सूचनाओं और जानकारियों के आधार पर वह बाजार में अपनी रोटी-दाल की व्यवस्था करता है। भारतीय चिंतन में गुरु को ही मान्यता दी गई है। यहां शिक्षा भी दो तरीके से दिये जाते हैं- दीप शिक्षा एवं पारस।
पश्चिम के चश्मे से देखने वाले को भारतीय मानस को समझ पाना बड़ा मुश्किल है। यहां सभी चीजों को अलग-अलग नहीं बांटा गया है। जीवन चलाने के लिए अर्थ और काम की जरूरत है। लेकिन, वह धर्म आधारित (नियमानुकूल) होना चाहिए और इसका ध्येय मोक्ष को प्राप्त करना है। यहां शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा का सम्यक चिंतन किया गया है। ऐसे कई उदाहरण मिलेंगे जब एक अशिक्षित व्यक्ति ने भी भटके लोगों को राह दिखाई है। रामकृष्ण परमहंस बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे। लेकिन, उन्हांेने बैरिस्टर नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बना दिया। जब पश्चिम भारत को हेय दृष्टि से देखता था और भारत के बारे में उस जगत को अल्प ज्ञान था, तब स्वामी विवेकानंद ने भारतीय ज्ञान परंपरा की विराट सत्ता का साक्षात्कार पश्चिम जगत को कराया था। ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे-पड़े मिलेंगे, जिसने भारत की सोई हुई सत्ता को जागृत करने का कार्य किया। समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी महाराज के माध्यम से भारत की स्वातं़त्र्य चेतना को जागृत किया। दस गुरुओं ने अपनी अस्थियां जलाकर भारत में स्वातंत्र्य चेतना पैदा की। वह ज्ञान परंपरा लगातार चलती रही। यवनों की तलवार भी उस परंपरा को खंडित नहीं कर सकी। कुछ वर्ष पूर्व मैं मध्य प्रदेश के धार नगर गया था। वाग् देवी सरस्वती की प्रतिमा के समक्ष सैकड़ांे शिक्षक ज्ञान की परंपरा को जागृत कर रहे थे। अलाउद्दीन खिलजी की तलवार के समक्ष उन्होंने कटना स्वीकार किया। लेकिन, उस परंपरा के साथ समझौता करना स्वीकार नहीं किया। नालंदा विश्वविद्यालय और तक्षशिला विश्वविद्यालय को कैसे समाप्त किया गया, यह किसी से छिपा नहीं है। हमारे चिंतक मनीषियों ने इन सब आशंकाओं को पहले ही समझ लिया था। इसलिए यहां ज्ञान की श्रुत परंपरा स्थापित की। आज भी भारत में कई स्थानों पर गुरु अपने शिष्यों को श्रुत परंपरा के माध्यम से शिक्षा व ज्ञान देते हैं।
भारत में उसी परंपरा के कारण अशिक्षा का अंधकार कभी नहीं था। 1835 के पूर्व जब लाॅर्ड मैकाले संपूर्ण भारतवर्ष को घूमकर आए, तो उन्होंने विस्मय भरी टिप्पणी की थी कि संपूर्ण भारत में न तो अशिक्षा है और न ही गरीबी। अंग्रेजी शासन की दीर्घकालीन व्यवस्था के लिए उन्होंने सिफारिश की थी कि यदि इस देश को लंबे समय तक गुलाम बनाना है, तो यहां अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लागू करनी पड़ेगी और वहीं से भारत में अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था प्रारंभ हुई। दूसरे शब्दों में कहें तो वहीं से हमारे ज्ञान परंपरा का ह्रास प्रारंभ हुआ। किसी कवि ने बड़ी सटीक टिप्पणी की है-
‘‘जब पश्चिम अंधकार में था
तब भारत में साम गान का, स्वर्गिक स्वर था दिया सुनाई।
अज्ञानी मानव को हमने, दिव्य ज्ञान का दान दिया था।
अंबर के ललाट को चूमा, अटल सिंधु को छान लिया था।।’’
लेकिन, पश्चिमी ज्ञान परंपरा के अंधानुकरण के कारण हम अपनी सत्ता को भूलते चले गये। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चार पुरुषार्थ की चर्चा करने वाले भारतीय सिर्फ अर्थ और काम के पीछे भागने लगे। यह दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली का ही परिणाम है कि आज की शिक्षा व्यवस्था मनुष्य को संपूर्ण मानव बनने की शिक्षा नहीं देती, बल्कि एक ‘मनी मेकिंग मशीन’ (धन कमाने वाला रोबोट) बनने को प्रेरित करती है। जो भाई भूले बिछड़े, हाथ पकड़ ले साथ चले; रोटी, कपड़ा, शिक्षा, सुविधा सबको सुलभ कराने वाले लोग अब सिर्फ अपने और अपने परिवार की चिंता में उलझते चले गये। आज शिक्षा व्यवस्था के कारण ही वृद्धाश्रम बन रहे हैं। बलात्कारों की बाढ़ आ गयी है और व्यक्ति को सोने के लिए नींद की गोलियां लेनी पड़ती है।
आज आवश्यकता है कि शिक्षा व्यवस्था पर बहस होनी चाहिए। संपूर्ण मानव बनने की शिक्षा बचपन से ही दी जाए। भारत में गुरुकुल की परंपरा रही है। आश्रम को सभी सुविधाएं राज सत्ता की ओर से उपलब्ध करायी जाती थी। लेकिन, गुरुकुल व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप राज्य सत्ता की ओर से नहीं होता था। आश्रम स्वयं निर्णय लेता था और आश्रम का निर्णय इतना न्यायप्रिय होता था कि उसपर शक करने की कोई गुंजाइश नहीं बचती थी। दुर्भाग्य से आज शिक्षा व्यवस्था सत्ता की चेरी बन गयी है। छात्र संघांे के चुनाव में सभी दल अपनी गोटी लाल करने के चक्कर में लगे रहते हैं। विश्वविद्यालय स्वतंत्र नहीं हैं। प्राध्यापकों के पास अपने शिष्यों के बेहतर भविष्य एवं उनके समर्पण को बढ़ाने का कोई कौशल्य नहीं है। ऐसी परिस्थिति में 13 प्वांइट रोस्टर हो या 200 प्वाइंट रोस्टर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ने वाला।
संजीव कुमार