फरवरी के प्रथम सप्ताह में जब बिहार विधानसभा भवन का शताब्दी वर्ष गर्व पूर्वक मनाया गया, तो किसी को भनक नहीं थी कि अगले ही महीने इस ऐतिहासिक भवन में कुछ ऐसा घटेगा, जिससे लोकतंत्र शर्मसार हो जाएगा। पुलिस बिल पर बहस के दौरान ’माननीयों’ द्वारा लात-घूंसे चलाना या सदन के अंदर पुलिस बल बुलाकर सदस्यों को बाहर करवाना, ऐसी घटना ने लोगों को अचंभित कर दिया। लेकिन, जो लोग विगत तीन दशकों से सदन की गतिविधियों को गौर से देख रहे हैं, उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ होगा। उनके लिए यह घटना, लालू यादव के शासनकाल के दौरान होने वाली अराजकता का दोहराव मात्र था। राजद की अगली पीढ़ी ने पुलिस विधयेक पर चर्चा के समय किए गए अमर्यादित व्यवहार से यह पुनः सिद्ध कर दिया कि वे असल में उस अराजक राजनीतिक शैली के वाहक हैं, जिसका सूत्रपात उनके आदर्श नेता ने 1990 के दशक में किया था।
रोमन-कैथलिक स्थापत्य शैली की खूबियों को समेटे बिहार विधानसभा भवन ने कई सरकारें, कई मुख्यमंत्री, कई विधानसभा अध्यक्ष देखे। आजादी के बाद सत्रहवीं विधानसभा आते-आते हजारों की संख्या में नए-पुराने सदस्यों को इसने पुष्पित-पल्लवित होते देखा। फिर इस भवन को वे दिन भी देखने पड़े, जिसे लोकतंत्र के लिए अशोभनीय कहा जाता है। सदन की कार्यवाही के दौरान किसी सदस्य का अपशब्द कहकर उपहास करना, आसन पर छिंटाकशी करना, व्यक्तिगत सुविधानुसार सदन के सत्रों का आरंभ या समापन कराना, बिना बहस विधेयकों को पारित कराना जैसे अनगिनत धब्बे हैं, जो जेपी के तथाकथित उत्तराधिकारियों ने लोकतंत्र की सफेद पट्टिका पर चस्पा किए हैं। बिहार में सत्ता जाने के बाद विपक्ष में रहते हुए भी 2010 में राजद के सदस्यों ने सदन का सिर झुकाने वाले कृत्य किए।
’बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक, 2021’ पर चर्चा होने से पूर्व राजद कार्यकर्ताओं ने रापजधानी पटना की सड़कों पर अराजकता फैलाई। इसके बाद जब बिल पर बहस होने लगी, तो आसन को घेरने से लेकर विधानसभा अध्यक्ष को बंधक बनाने जैसा अमर्यादित, गैरकानूनी, शर्मनाक कार्य किए गए। यह सब करने के पीछे सिंगल लार्जेस्ट पार्टी होने का दंभ दिखाना और जनादेश से बनी हुई सरकार को अस्थिर करना था। बिहार के सुधि मतदाताओं को दलों व उसके सदस्यों की अराजक स्वभाव को देखते हुए भविष्य में मतदान करने का निर्णय लेना चाहिए, अन्यथा प्रबुद्धजन पर मूढ़ों का शासन चलते रहेगा।