भारतीय जनमानस क्यों मनाता है गुरु पूर्णिमा? क्या है आज के दिन का महत्व

0

श्रुति-स्मृति परंपरा के रूप में आदि काल से चलने वाली भारत के ज्ञान प्रवाह को लिपिबद्ध कर एक नई परंपरा की स्थापना करने वाले महर्षि वेदव्यवास की जयंती को भारतीय जनमानस गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाते है। कथा है कि कलिकाल के आने के पूर्व ही महर्षि वेदव्यास ने वेद सहित सभी प्रमुख ग्रंथों को लिपिबद्ध कर उसे सुरक्षित व संग्रहित कर दिया था ताकि भारत की संस्कृति व ज्ञान परपंरा आगे भी दृढ़ता से चलती रहे।

यह पर्व हमारी ज्ञान चेतना और उसके लिए अपेक्षित संस्कारों को जागृत रखने का एक अनुष्ठान है। लेकिन, वर्तमान में यह अनुष्ठान कर्मकांड बनकर रह गया है। गुरु का अर्थ अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला होता है। गुरु पद को लेकर हमारे हमारे शास्त्रों में सब कुछ स्पष्ट बताया गया है। लोक का प्रबोधन करने वाले संतों ने भी अपने प्रयास से गुरु पद के संबंध में समाज की स्पष्ट किया है। यही कारण है कि गुरु के सम्बंध में उपनिषद की ऋचाओं से लेकर संतों की वाणी तक आज भी भारतीय लोगों की जुबान पर बसती हैं।

swatva

कठोपनिषद में ऋषि आयोद धौम्य अपने शिष्य उपमन्यु के प्रश्नों का उत्तर देते हैं। गुरु के आदेशों का पालन करते हुए उपमन्यु अंततः उस अवस्था में पहुंच जाते हैं जहां उनके सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं, उनकी जिज्ञासा शांत हो जाती है। इसके बाद उनके चिदाकाश में गुरु स्त्रोत में रूप श्रेष्ठ चिंतन की धारा प्रस्फुटित होती है। वे कहते हैं गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुदेव महेश्वरः गुरुसाक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरवेनमः। उपनिषद के अनुसार अखंडमंडालाकर सम्पूर्ण ब्रह्मांड के सभी जड़ चेतन में व्याप्त परम्ब्रह्म को बोध करा देने वाले गुरु होते हैं।

इस प्रकार गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाए जाने वाली महर्षि वेदव्यास की जयंती भारतीय ज्ञान साधना की व्यापकता और युगानुकूल परिवर्तनों को ग्रहण करने की उसकी क्षमता का भी प्रतीक है। हमारे ऋषियों ने परंपरा से प्राप्त मूल सिद्धांतों की युगानुकूल व्याख्या की भी व्यवस्था बनायी है। महर्षि वेदव्यास सभी सम्प्रदायों के पितृ पीठ के प्रतीक हैं। इसीलिए उनके अवतरण दिवस को गुरू पूजन पर्व के रूप में मनाने की परंपरा चली।

भारतीय ज्ञान साधना में प्रस्थान त्रयी की परंपरा आज भी आधार स्तंभ है। भारत में सनातन धर्म के सभी सम्प्रदायों में जगत्गुरु होते है। जगत्गुरु वही होते हैं जो प्रस्थान त्रयी पर भाष्य लिखते हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा में गीता, ब्रह्मसूत्र यानी वेदांत और उपनिषद को संयुक्तरूप सें प्रस्थान त्रयी कहा गया है। महर्षि वेदव्यास के संकल्प व साधना के कारण भारतीय संस्कृति व ज्ञान परंपरा के ये सिद्धांत ग्रंथ वर्तमान में पुस्तक के रूप में उपलब्ध है।

मठाम्नाय महानुशासन में आदि शंकराचार्य ने कहा है कि सत्युग में जगत् गुरु या विश्वगुरु ब्रह्मा थे। त्रेता में ऋषि सत्तम, द्वापर में व्यासजी ओर कलियुग में मैं हूं। व्यासजी के बाद उनके जगत्गुरु शिष्य परंपरा में कलियुग में प्रथम विश्वगुरु आचार्य शंकर ही हुए। शंकर दिग्विजय के अनुसार आचार्य ने व्यासजी की स्तुति करते हुए कहा आपका प्रशिष्य होकर मैने अपनी छोटी बुद्धि से जो यह साहस किया हे उसे विचार कर मेरी सुक्ति और दुरुक्ति की रचना को सम करने में आप ही योग्य हैं। कश्मीर के विद्वान राजा कल्हण ने आचार्य शंकर को व्यास शिष्य ही कहा है।

वैसे वेद, उपनिषदों में गुरु को नित्य व अनादि भी कहा गया है। शंकर ने भी कहा है कि गुरु चार प्रकार के होते हैं। परमात्मा, आत्मा और ब्रह्मविद्या की ही तरह गुरू भी एक नित्य सत्ता है जिसके प्रकाश में विद्या प्रकट होती है ओर उसे धारण कर आत्मा बंधन से मुक्त होकर परमानंद को प्राप्त करती है। दूसरे प्रकार के गुरू को स्वयं सिद्ध कहा गया है। जीवनमुक्त योगेश्वर जब जन्मधारण करते हैं तो बाल्यावस्था से ही वे ब्रह्मआभा से परिपूर्ण होते हैं। तीसरे प्रकार के गुरू वे होते हैं जो तप कर के पात्रता अर्जित कर ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर गुरू पद को प्राप्त करते हैं। तीसरे वे हैं जिन्हें कोई गुरू अपना ज्ञान देकर उन्हें अपनी परंपरा का गुरूपद दे देता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here