क्या कहा वशिष्ठ ने कि अवाक् रह गए लालू !
बात पुरानी लेकिन बिहारी अस्मिता एवं गौरव से जुड़ी होने से आज भी चेतना को झकझोरती है। मुख्यमंत्री का आवास। हर तरफ हलचल। नहला-धुला कर नए कपड़ों से लकदक हुआ एक वृद्ध तथा उसे घेरे नेताओं-अफसरों की भीड़। इसी बीच मुख्यमंत्री का वहां आगमन होता है। वे उस वृद्ध को कुछ खाने को देते हैं। थोड़ी देर बाद मुख्यमंत्री भोजपुरी में उससे पूछते हैं- आउर का दीं? तब वृद्ध ने जवाब दिया-तोहरा पासे का बा कि हमरा के देबऽ, चार आना पइसा बा त दे दऽ। सभी अवाक! वह वृद्ध और कोई नहीं, बिहार के मशहूर गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह थे जो तत्कालीन मुख्यमंत्री को किसी दार्शनिक सा जवाब दे रहे थे।
दरअसल, वशिष्ठ बाबू पिछले छह वर्षों से लापता थे, और अचानक एक दिन सारण जिले में किसी ने उन्हें खोज निकाला। अब इसे नीयति का दोष कहें अथवा सरकारी तंत्र की लापरवाही कि एक अतिप्रतिभावान व्यक्ति जो पहले अमेरिका से पीएचडी करे, फिर नासा में वैज्ञानिक की हैसियत से कार्य करे, आईआईटी व आईएसआई जैसे विश्व प्रसिद्ध संस्था में लेक्चर दे और फिर एक दिन कहीं किसी ढाबे पर जूठे बर्तन धोते पाया जाए। कड़वा सच यह है कि जिस इंसान ने महान वैज्ञानिक एल्बर्ट आइंस्टाइन के सिद्धांत को कटघरे में खड़ा कर दिया तथा जिसके गणितीय शोध का लोहा संपूर्ण विश्व ने माना, वह आज मानसिक बीमारी से पीड़ित होकर गुमनामी की जिंदगी जी रहा है।
साधारण सिपाही के घर हुआ जन्म
डाॅ. वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म 2 अप्रैल 1942 को भोजपुर में बसन्तपुर गांव के एक साधारण सिपाही के घर में हुआ था। गांव से प्रारम्भिक शिक्षा के बाद इनका दाखिला नेतरहाट में हुआ, जहां से मैट्रिक में बिहार में इन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। साइंस कॉलेज, पटना में बीएससी (प्रतिष्ठा) प्रथम वर्ष में ही इनकी प्रतिभा को देख पटना विश्वविद्यालय ने इन्हें तीनों वर्षों की परीक्षा एक साथ प्रथम वर्ष में ही देने की छूट दे दी, और उन्होंने सारे पुराने मापदंडों को ध्वस्त कर दिया। तब तक वशिष्ठ नारायण गणित के कठिन प्रश्न को कई तरीकों से हल करने के लिये मशहूर हो चुके थे।
उसी समय इंजीनियरिंग काॅलेज में गणित सम्मलेन का आयोजन किया गया जिसमें विश्व प्रसिद्ध गणितज्ञ डा. जॉन एल केली अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से पधारे। आयोजकों ने वशिष्ठ नारायण का परिचय डा. केली से कराया। वशिष्ठ की प्रतिभा से डा. केली बहुत प्रभावित हुए और तत्काल अमेरिका आकर आगे की पढ़ाई का निमंत्रण दे दिया। वशिष्ठ ने अर्थाभाव के कारण वहां जाने में असमर्थता जतायी। डा. केली ने उनका सारा खर्च वहन करने का भरोसा दिलाया। पटना विवि प्रशासन ने स्नातक डिग्री लेने के बाद उनका पासपोर्ट व वीसा बनवाकर उन्हें डा. केली के पास कैलिफोर्निया भेजवा दिया। डा. केली ने भी अपना वादा निभाया और अपने मार्गदर्शन में रिसर्च कराया। वशिष्ठ नारायण ने भी पूरे लगन और मेहनत के साथ रिसर्च कर पीएचडी की डिग्री प्राप्त कर कीर्तिमान स्थापित किया। कम उम्र में एक अति कठिन टाॅपिक ’रिप्रोड्यूसिंग कर्नल्स एंड आॅपरेटर्स विद ए साइक्लिक वेक्टर’ पर 1969 में पीएचडी प्राप्त कर लेने के कारण वे अमेरिका में भी मशहूर हो गए।इसके बाद वशिष्ठ प्रतिष्ठित नासा में एसोसिएट साइंटिस्ट प्रोफेसर के पद पर बहाल हुए, जो किसी के लिए भी एक सपना होता है। परंतु, कुछ ही महीनों में उन्हें देशप्रेम सताने लगा और वे 1972 में भारत लौट आए, जबकि यूएसए उन्हें अपनी नागरिकता प्रदान करना चाह रहा था।
बेमेल शादी ने किया विक्षिप्त
भारत लौटने पर इनकी नौकरी पहले आईआईटी कानपुर में लगी। उसके बाद टाटा इंस्टिट्यूट आॅफ फंडामेंटल रिसर्च, मुंबई और बाद में भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई), कोलकाता में लगी। वशिष्ठ नारायण बहुत ही साधारण पृष्ठभूमि के थे। इसके विपरीत उनका विवाह वंदना रानी सिंह से 1973 में एक संभ्रांत परिवार में हो गया। वे खान-पान और रहन-सहन तथा विचार से भी साधारण थे और संयुक्त परिवार के समर्थक थे। इसके विपरीत उनकी पत्नी आधुनिक और एकल परिवार विचार-धारा वाली थी। यही वह समय था जब वशिष्ठ नारायण असामान्य व्यवहार करने लगे। वशिष्ठ नारायण सिंह की भाभी प्रभावती जी बतलाती हैं कि “छोटी-छोटी बातों पर बहुत गुस्सा हो जाना, पूरा घर सिर पर उठा लेना, कमरा बंद करके दिन-दिन भर पढते रहना, रात भर जागना उनके व्यवहार में शामिल था”।
कुल मिलाकर यह शादी बेमेल साबित हुई। तलाक की प्रक्रिया में वशिष्ठ इतने प्रताड़ित और अपमानित हुए कि वे पागल हो गये। 1974 में पहली बार सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी ने उन पर प्रहार किया जिसके परिणामस्वरूप 1977 आते-आते उनकी नौकरी छूट गयी और मानसिक आरोग्यशाला कांके में भर्ती होना पड़ा।
बेहतर इलाज हेतुं अपने छोटे भाई अयोध्या सिंह के साथ 1986 में पुणे जाने के क्रम में वह बीच रास्ते में एक बड़़े स्टेशन पर उतर कर लापता हो गये। काफी प्रयास के बाद भी नहीं मिले। सन 1992 में बसन्तपुर का नजदीकी बाजार गंगा पार डुमरी, जिला छपरा पड़ता है। वहां उनके नजदीक गांव के दो युवकों ने किसी होटल में जूठे प्लेट धोते हुए देख कर पहचानते हुए कहा-अरे इ त बसीठ काका बाड़न। इसकी पुष्टि दूसरे लड़के ने भी की। किसी तरह उनपर निगरानी रखते हुए लड़कों ने स्थानीय थाने को सूचना दी। खबर तेजी से फैलते हुए डीएम के मार्फत तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद तक पहुंची। लालू ने वशिष्ठ बाबू को तत्काल पटना बुला लिया। फिर वशिष्ठ बाबू को उनके पैतृक घर बसन्तपुर पहुंचा दिया गया।
आज आलम ये है कि एक कृशकाय वृद्ध, जो आज भी हाथ में पेन लिए घर के चारों ओर भटकता रहता है, कभी खुद से बातें करते हुए खुश होता है, तो कभी अपने आप पर ही नाराज होते हुए गालियां देता है- इस दृश्य को देखकर उनके परिजनों की आंखें छलक जाती हैं। वशिष्ठ बाबू को नीयति ने एक हाथ से अमूल्य प्रतिभा दी, तो दूसरे हाथ से उनका सबकुछ छीन लिया। दुःखद पहलु यह है कि वशिष्ठ नारायण के साथ ही गणित के न जाने कितने रहस्य विलोपित हो गए।
(डाॅ. नीरज कृष्ण)