सम्राट, नित्यानंद और शाहनवाज मुख्यमंत्री पद की दौड़ में
नीतीश कुमार के उपराष्ट्रपति बनने की संभावना पुरजोर
बिहार की राजनीति में अगले कुछ महीनों के अंदर एक भारी उलट-फेर की संभावना बन रही है। फिलहाल पांच राज्यों की चुनावी चर्चा से माहौल गरम है। मगर इन चुनावों के बाद एक दूसरी दिशा में भी हलचल शुरू होगी। ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कुर्सी बदल जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की प्रशंसा और दो बड़े समाजवादी नेताओं के साथ उनकी तुलना अकारण नहीं है। मगर इससे राजद या किसी अन्य विपक्षी दलों को बहुत ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हां, नीतीश कुमार को नापसंद करने वालों को थोड़ा सकून जरूर मिलेगा। मगर यहां अहम सवाल है कि अगर नीतीश कुमार नहीं तो फिर कौन बनेगा बिहार का अगला मुख्यमंत्री? यह एक अग्नि सवाल है।
हम सब जानते हैं कि बिहार की वर्तमान एनडीए सरकार का कार्यकाल नवंबर, 2025 तक है। अगर गठबंधन बना रहा, तो यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। फिलहाल गठबंधन को लेकर कोई संकट नहीं है। फिर भी यह सवाल तो है ही कि अगर मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार खाली करते हैं, तो उस पर कौन काबिज होगा? क्या भाजपा अपना मुख्यमंत्री बनाएगी? भाजपा की ओर से कौन-कौन चेहरे मुख्यमंत्री पद की होड़ में हैं? जदयू का क्या रुख होगा? क्या जिस तरह से भाजपा ने नीतीश कुमार को समर्थन दिया है, वैसे ही जदयू भी भाजपा के साथ सहयोग का भाव रखेगा? ये सारे सवाल हैं और इन्हें लेकर राजनीतिक गलियारे और अंदरखाने में चर्चा भी शुरू हो चुकी है।
क्या था वह समझौता?
गौर करें कि एम. वैंकया नायडू उपराष्ट्रपति पद से इस वर्ष 10 अगस्त को सेवानिवृत्त होंगे। इसके पहले 24 जुलाई को वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जब नीतीश कुमार को एनडीए का मुख्यमंत्री बनाया गया, तो सभी लोग भाजपा और जेडीयू के बीच डील की बात कर रहे थे। क्या था वह समझौता? दरअसल बदले हालात में एनडीए में सबसे बड़े दल के रूप मेें उभरने के बावजूद भाजपा ने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी स्वीकार करने का आग्रह जरूर किया, मगर इसके साथ ही यह भी तय कर दिया कि अगर बीच में नीतीश कुमार अपनी कुर्सी खाली करते हैं, तो बिहार में मुख्यमंत्री भाजपा के किसी नेता को बनाया जाएगा। भाजपा के शीर्श नेताओं का इशारा साफतौर पर 2022 के मध्य में नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति पद के लिए मनोनीत होने के बाद की स्थिति के आंकलन पर आधारित था। भाजपा के विश्वस्त सूत्रों के अनुसार नीतीश कुमार भी अपनी सहमति दे चुके हैं।
नीतीश कुमार को करीब से जानने वाले और अनेक राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि 2021 के उत्तरार्ध और 2022 की शुरुआत से ही नीतीश कुमार की कार्यशैली और बॉडी लग्वेंज से यह दिखने लगा है कि अब वे यहां अपनी पारी समेटने के मूड में आ गए हैं। नीतीश कुमार इस साल बतौर मुख्यमंत्री अपनी सेवा के 17 वें वर्श में हैं। केन्द्र की वाजपेयी सरकार के मंत्रिमंडल में कार्य कर चुके नीतीश कुमार भाजपा की रीति-नीति से भी अच्छी तरह अवगत हैं। प्रादेशिक राजनीति के चरम ओहदे पर इतने लम्बे समय तक कार्य करने वाले नीतीश कुमार के अनुभव का संसार भी काफी व्यापक है। राजनीतिक दूरदर्शिता और अवसर की पहचान की उनकी सूझ-बूझ की प्रशंसा उनके विरोधी भी करते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी जब किसी व्यक्ति के बारे में कुछ कहते हैं तो वह पूरी तरह सुविचारित और दूरपरिणामी होता है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 09 फरवरी, 2022 को अपने एक इंटरव्यू के दौरान अकारण ही नीतीश कुमार की प्रशंसा और उनकी तुलना दो बड़े समाजवादी नेताओं डॉ. राम मनोहर लोहिया और जार्ज फर्नांडिस से नहीं की है। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब किसी व्यक्ति के बारे में कुछ कहते हैं तो वह पूरी तरह सुविचारित और दूरपरिणामी होता है। प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तारीफ करते हुए राजनीति में परिवारवाद के खिलाफ उनका उदाहरण दिया। परिवारवाद पर बात करते हुए मोदी ने कहा, लोहिया जी का परिवार कहीं नजर आता है क्या? जॉर्ज फर्नांडिस का परिवार कहीं नजर आता है क्या? नीतीश बाबू हमारे साथ काम कर रहे हैं, वे भी तो समाजवादी हैं, उनका परिवार नजर आता है क्या? राजनीति में परिवारवादी पार्टियां प्रधानमंत्री के निशाने पर थीं। उन्होंने साफ कहा कि ऐसी पार्टियों में परिवार ही सर्वोपरि होता है, परिवार बचाओ, पार्टी बचे या न बचे। देश बचे या न बचे। ये जब होता है तो सबसे बड़ा नुकसान प्रतिभा का होता है। यह लोकतंत्र के लिए भी काफी धातक है। इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने राम मनोहर लोहिया, जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार की चर्चा की और कहा कि इन लोगों ने कभी भी अपने स्वजनों को राजनीति में लाने पर जोर नहीं दिया।
फरवरी के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादी नेताओं को परिवारवाद के कसौटी पर आड़े हाथ लिया था लेकिन इसी बयान में उन्होंने समाजवाद के बड़े चेहरे नीतीश कुमार की मुक्त कंठ से प्रशांसा की थी। प्रधानमंत्री के इस बयान को कुछ दिनों बाद नीतीश कुमार ने भी परोक्ष रूप से सराहा था। एक गठबंधन में रहते हुए भी प्रायः मोदी और नीतीश सार्वजनिक रूप से सुर मे सुर मिलाकर शायद ही बोलते है। ऐसे में दोने के हालिया बयान मजबूत होते आपसी राजनीतिक रिश्तों की झलक है। प्रधानमंत्री का कथन और उस पर नीतीश की समर्थनवादी प्रतिक्रिया भाजपा द्वारा बिहार को लेकर बनाई जा रही रणनीति को ही पुष्ट करते हैं।
बदलाव के साथ ही गठबंधन को जनमानस में प्रवाहमान बनाया जा सकता
2013 के मध्य से लेकर 2017 की जुलाई तक नीतीश कुमार एनडीए से अलग रहे। उनका यह विलगाव एक तरह से 2013 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर भाजपा की ओर से प्रोजेक्ट करने के विरोध में ही था। मगर 2014 के आम चुनाव के बाद जिस तरह से देश की जनता ने नरेन्द्र मोदी पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई और उसके साइड इफैक्ट में बिहार में जदयू का सूपड़ा साफ हो गया, उससे नीतीश कुमार विचलित जरुर हुए, मगर चार साल के अंदर ही उन्हें अपना और अपने दल का भविश्य कहां और कैसे सुरक्षित है, इसका अहसास हो गया। दीर्ध राजनीतिक अनुभव वाले नीतीश कुमार के राजनीतिक व प्रशासनिक फैसले को लेकर भले ही असहमति हो, मगर उनकी छवि जो एक सच्चे समाजवादी की है, उसपर कभी कोई सवाल नहीं उठता है। पूरी तरह से भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने में भले ही नीतीश कुमार पूर्णतः सफल नहीं रहे हैं, मगर व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ ऐसा कोई गंभीर आरोप चस्पां नहीं है, जिसे लेकर विपक्ष वितंडा खड़ा कर सके। वंशवादी व परिवारवादी राजनीति के प्रबल विरोधी नीतीश कुमार आज भाजपा के शीर्श नेतृत्व के पसंद केवल इसलिए नहीं हैं कि उनके नाम पर विगत चुनाव या इसके पहले 2010 में राजग ने बिहार में चुनावी सफलता हासिल किया, बल्कि इसलिए भी कि नीतीश कुमार की छवि आज भी साफ-सुथरी और गुणवत्तापूर्ण राजनीति के अनुकूल है। मगर, इन सबके बावजूद आगामी वर्शों व अगले चुनावों में भी नीतीश कुमार इतने ही प्रभावी होंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। भाजपा के शीर्श चिंतकों का भी मानना है कि बदलाव के साथ ही गठबंधन को जनमानस में प्रवाहमान बनाया जा सकता है।
आखिरी पारी के लिए सेफ पैसेज ढूँढ रहे नीतीश!
तीसरे नम्बर के दल का नेता होकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना नीतीश कुमार को 2020 में गवारा नहीं था। शुरूआत में उन्होंने आनाकानी भी की थी। कई राजनीतिक विश्लेषकोें का मानना है कि 2025 में यानी आगामी बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा एक बार फिर नीतीश कुमार को ही चेहरा बना कर चुनाव लड़े, शायद ऐसा संभव नहीं है। इस बात का अहसास नीतीश कुमार को नहीं है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है। राजनीतिक की लंबी पारी खेलने वाले नीतीश कुमार खुद भी आंकलन कर ही रहे होंगे। ऐसे में वे भी चाहेंगे कि उन्हें अपनी आखिरी पारी के लिए कोई सेफ पैसेज मिल जाए। फिलहाल एनडीए में बने रहकर उपराष्ट्रपति के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करना उन्हें ज्यादा रुचेगा। भाजपा को जिस तरह से बहुमत हासिल है, वैसे में मनोनयन में कोई अड़चन भी नहीं है।
नीतीश कुमार को नेता मानने की विवशता से बाहर निकलने के लिए भाजपा में छटपटाहट
प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के बाद अब तक किसी बिहारी शख्सीयत को राष्ट्रपति तो छोड़िए, उपराष्ट्रपति के ओहदे तक पहुंचने का भी अवसर नहीं मिला है। हां, बिहार में राज्यपाल रहे रामनाथ कोविंद को 2017 में देश के 14वें राष्ट्रपति के तौर पर बिहार के राजभवन से सीधे राष्ट्रपति भवन जाने का मौका मिला, जबकि इसके पहले 1967 में बिहार के राज्यपाल रह चुके जाकिर हुसैन देश के तीसरे राष्ट्रपति बने थे। वे 1957 से 1962 तक बिहार के राज्यपाल रह चुके थे। राष्ट्रपति बनने के पहले जाकिर हुसैन का निर्वाचन 1962 में उपराष्ट्रपति के पद हुआ था। इस पद पर वे 5 वर्शों तक रहे थे। अगर नीतीश कुमार का मनोनयन उपराष्ट्रपति के तौर पर होता है तो यह जहां बिहार के लिए गौरव की बात होगी, वहीं भाजपा की भी बिहार में अपना मुख्यमंत्री बनाने की वर्शों से दमित आकांक्षा इस रास्ते से पूरी हो सकती है। जदयू से अधिक संख्या बल होने के बावजूद सदन में नीतीश कुमार को अपना नेता मानने की विवशता से बाहर निकलने के लिए भाजपा में एक छटपटाहट तो है ही।
भाजपा का मुख्यमंत्री का चेहरा कौन
लेकिन, सबसे बड़ा सवाल है कि बिहार में भाजपा का मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा? वैसे बीजेपी के अन्तःपुर में कुछ नामों पर चर्चा शुरू भी हो चुकी है। इन नामों में एक नाम केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय का है। नित्यानंद राय को सीएम फेस बना कर भाजपा राजद के एमवाई समीकरण से वाई को अलग करने की चाल चल सकती है। लेकिन, इसे पार्टी का शीर्श नेतृत्व कितना अहमियत देता है, इस बारे में अभी स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। दूसरी ओर नित्यानंद राय मोदी मंत्रिमंडल में शामिल हैं। संभव है, कि उन्हें केन्द्रीय टीम का ही हिस्सा बना कर रखा जाए। विगत बिहार विधान सभा चुनाव में नित्यानंद राय और भूपेन्द्र यादव (भाजपा के बिहार प्रभारी) की टीम ने बढ़िया प्रदर्शन किया। भाजपा का वोट प्रतिशत घटने के बावजूद उसकी सीटें बढ़कर 74 पर पहुंच गई। इसी का परिणाम रहा कि इन दोनों नेताओं को पुरस्कार के तौर पर मोदी मंत्रिमंडल में शामिल और बरकरार भी रखा गया है।
दूसरी ओर नीतीश कुमार मंत्रिमडल के उद्योग मंत्री सैयद शहनवाज हुसैन भी इस होड़ में शामिल बताए जा रहे हैं। उनके समर्थकों का तर्क है कि भाजपा एक मुस्लिम चेहरे को सीएम बनाकर बिहार ही नहीं पूरे देश के मुसलमानों को यह मैसेज दे सकती है कि सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास केवल उसका नारा नहीं है। इसका सीधा लाभ उसे आगामी 2024 के आम चुनाव में मिलेगा। वाजपेयी मंत्रिमंडल में सबसे कम उम्र के मंत्री के तौर पर शामिल किए गए सैयद शाहनवाज हुसैन बिहार ही नहीं राष्ट्रीय भाजपा के भी एक चेहरा हैं। पिछले साल उन्होंने जम्मू-कश्मीर में भी भाजपा को पल्लवित-पुष्पित करने में अपना अहम योगदान दिया था। शाहनवाज हुसैन महत्वाकांक्षी भी हैं। संभव है अपनी ओर से पुरजोर कोशिश करें। मगर, अंतिम निर्णय तो भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व ही करेगा।
वहीं, एक तीसरा चेहरा भी इस दौड़ में शामिल है। वे हैं पंचायतीराज मंत्री सम्राट चौधरी। भाजपा सम्राट चौधरी पर एक बड़ा दांव खेल सकती है। जिस तरह से केन्द्रीय मंत्रिमंडल में बड़ी संख्या में ओबीसी को मंत्री पद देकर बीजेपी ने इस वर्ग को अपने से जोड़ने का प्रयास किया है, उसी तरह से बिहार में भी वह लव-कुश के एक बड़े घटक कुशवाहा समाज को सीएम बनाकर पूरे ओबीसी समाज को एक बड़ा मैसेज दे सकती है। कुशवाहा समाज के एक बड़े चेहरे स्व. शकुनी चौधरी के पुत्र होने के साथ ही सम्राट चौधरी का अपना भी एक बड़ा ‘राजनीतिक ऑरा’ है। बेलाग-बेलौस बातचीत करने और अपने नेतृत्व क्षमता से अपने काम को असरदार बनाने में माहिर सम्राट चौधरी विवादों से भी दूर रहते हैं। पार्टी के एक अनुशासित कार्यकर्ता-नेता की उनकी छवि सीएम पद तक उन्हें पहुंचाने में उनकी मददगार हो सकती है।
इन कयासों के बावजूद, यह देखना रोचक होगा कि बिहार का अगला सीएम कौन होता है? भाजपा के किस नेता की लॉटरी लगती और किस की तैयारी धरी रह जाती है। संभव है, मुकुट उसके सिर सज जाए, जिसके बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर रहा हो। हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर और महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़णवीस ऐसे ही नाम थे न!