कुछ इस तरह से समाप्त हुआ RCP कथा, आखिरकार अपने प्लान में सफल हुए नीतीश के चाणक्य
पटना : जदयू नेता और पार्टी के भरोसेमंद सिपाही आरसीपी सिंह पर से पार्टी के सर्वमान्य नेता का भरोसा उठ गया है। जिसका प्रत्यक्ष तमाम उनका राज्यसभा का टिकट ना देना है।
नीतीश की परछाई की तरह चलते थे आरसीपी
आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार की दोस्ती कोई एक या दो वर्षों की नहीं है, बल्कि एक राजनेता और एक आईएएस की यह दोस्ती लगभग 32 साल पुरानी है। पिछले 32 सालों से आरसीपी नीतीश के साथ उनकी परछाई बन कर रहे।
बिहार की राजनीति की तनिक भी समझ रखने वाला यह जरूर जानते होंगे कि यह वहीं आरसीपी सिंह है जिनके बारे में कहा जाता था कि बिहार की सरकार सही मायने में यहीं चलाते हैं, किस अधिकारी की कहां ड्यूटी लगेगी, किस काम से सरकार को क्या फायदा या नुकसान हो रहा है सारे चीजों की जानकारी इनके पास ही होती थी। कहा तो यहां तक जाता है कि इनके ही इशारों पर उस दौरान बिहार की राजनीति का पत्ता हिलता था।
विरोधी भी जानते थे बिना आरसीपी टैक्स के नहीं होता कोई काम
सबसे बड़ी बात की विधानसभा में भी विपक्षी दलों द्वारा यह कहा जाता था कि यदि आपको बिहार में कोई काम करना है तो आरसीपी टैक्स के फार्मूले से होकर गुजरना होगा, तभी यह काम संभव है। ऐसा माना जाता है कि उस दौरान शासन से लेकर प्रशासन तक सभी लोग जानते थे कि लेकिन सही मायने में सरकार पटना के स्टैंड्र रोड के उस बंगले से चल रही है जिसमें आरसीपी सिंह रहते है। वहीं, अब इसी आरसीपी सिंह को जदयू ने इस बेदर्दी से आउट किया, जिसकी कल्पना उन्होंने सपने में भी नहीं की होगी।
ऐसे हुई एक IAS की मंत्री से दोस्ती
वैसे तो बात करें यदि नीतीश और आरसीपी की दोस्ती की तो 1990 में जब नीतीश कुमार केंद्र मंत्री थे तो उसी दौरान उनकी नजर आरसीपी सिंह पर पड़ी थी। इस दौरान आरसीपी उत्तर प्रदेश काडर के आईएएस अधिकारी हुआ करते थे। आरसीपी सिंह केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा के निजी सचिव के तौर पर काम कर रहे थे। इसके बाद नीतीश कुमार जब रेल मंत्री बने तो उन्होंने आरसीपी सिंह को अपना विशेष सचिव बनाया।
नीतीश से नाराज होने पर ललन ने ही करवाया था समझौता
इसके बाद 2005 में जब बिहार विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने आरसीपी सिंह को दिल्ली से बिहार बुला लिया। इसके बाद 2005 से 2010 के बीच आरसीपी सिंह नीतीश कुमार के प्रधान सचिव के तौर पर कार्यरत रहे। वहीं,इसी 2010 में जब राज्यसभा चुनाव का समय आया तब आरसीपी सिंह नीतीश के सामने राज्यसभा जाने को लेकर अड़ गए और नीतीश कुमार की ड्यूटी को छोड़कर अपने घर नालंदा में जाकर रहने लगे। इसके बाद आज जिनका इनसे सबसे अधिक द्वंद चल रहा है वहीं राजनेता एक अधिकारी को मनाने उनके घर गए और पार्टी ने आरसीपी को राज्यसभा भेजा।
सांसद बनने के बाद और बड़ा बढ़ा आरसीपी का पावर
राज्यसभा सांसद बनने के बाद भी आरसीपी सिंह का पावर और अधिक बढ़ गया है इसके बाद सरकार के सारे फैसले में बैक डोर में इनका ही हाथ होता था। इनका जदयू पर इस तरह का दबदबा था कि इनको संगठन में महामंत्री बना दिये गये थे। पार्टी उनके कहे मुताबिक चलती थी। इस दौरान कई सरकारी अधिकारी आरसीपी सिंह के बंगले का चक्कर काटते थे, चर्चा ये होती थी कि अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग की लिस्ट भी आरसीपी बाबू ही तैयार करते थे। लेकिन, 2020 में विधानसभा चुनाव के बाद जब नीतीश कुमार ने जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ा तो अपने उत्तराधिकारी के तौर पर आरसीपी सिंह को ही चुना गया।
115 से 43 पर लाने की भी मिली सजा
इसके अलावा आरसीपी सिंह को टिकट न देने का मुख्य वजह बताया जा रहा है कि जब आरसीपी सिंह को जदयू का कमान दिया गया था उस समय जदयू के पास कुल सीटिंग विधायकों की संख्या 115 थी और ये सभी विधायक अपने क्षेत्रों में काफी दबदबे वाले विधायक बताया जाते थे लेकिन इसके बावजूद जब 2020 में विधानसभा का चुनाव हुआ तो जदयू बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई और जदयू को मात्र 43 सीट आई।
जिसके बाद खुद जदयू के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार बैकफुट पर आ गए और वह इसको लेकर आत्ममंथन करने लगे कि इतने साल तक बिहार में शासन करने के बावजूद उनकी पार्टी तीसरे नंबर पर कैसे आ सकती है। इसको पीछे की वजह जानने का जिम्मा अपने दूसरे भरोसेमंद साथी ललन सिंह को दिया और ऐसा बताया जाता है कि उन्होंने इस को लेकर मुख्यमंत्री को कुछ नाम बताएं। हालांकि मुख्यमंत्री ने कभी इस को लेकर यह नहीं कहा कि आरसीपी सिंह के कारण जदयू बैकफुट पर आई।
विस चुनाव के दौरान ही तय हुई थी आरसीपी की रणनीति
वहीं, पार्टी सूत्रों की मानें तो ललन सिंह ने जो दो नाम बताएं, जिसके कारण बिहार में जदयू के तीसरे नंबर पर रही। इसमें पहले नंबर पर चिराग पासवान तो दूसरे नंबर पर खुद उनके ही पार्टी के नेता आरसीपी सिंह। ऐसा कहा जाता है कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान ही यह तय हो गया था कि यदि बिहार में एनडीए की सरकार बनती है तो मोदी कैबिनेट विस्तार में जदयू की भी हिस्सेदारी रहेगी, इस मामले को लेकर नीतीश कुमार ने जेडीयू की ओर से बातचीत करने के लिए आऱसीपी सिंह को अधिकृत कर दिया गया।जेडीयू के नेता कहते हैं कि खेल वहीं हुआ। आरसीपी सिंह जेडीयू की ओर से बात करने गये थे औऱ खुद मंत्री बनने का जुगाड़ कर आये।
खुद के कद को बड़ा करना चाहते थे आरसीपी
ऐसा बताया जाता है कि नीतीश कुमार की ओर से ललन सिंह को मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया गया था। लेकिन आऱसीपी सिंह ने विधानसभा चुनाव के दौरान ही भाजपा के साथ मिलकर यह तय कर लिया था कि वह उनके अलावा किसी और सांसद को मंत्री बनाने को राजी नहीं हो और हुआ भी ऐसा ही और आखिरकार आरसीपी मोदी कैबिनेट में मंत्री बन गए और धीरे – धीरे आरसीपी का मोह भाजपा के तरफ अधिक हो गया और वो अपने कद को बड़ा करने के लिए वह अंदर ही अंदर से भाजपा का का समर्थन करने लगे। इसको लेकर पार्टी के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष उनसे काफी नाराज हो गए।
इस वजह से नहीं मिली आरसीपी को टिकट
इसके अलावा आरसीपी सिंह को टिकट ना देने के एक और वजह बताए जा रहे हैं। यह वजह आरसीपी का जदयू के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ मधुर संबंध ना होना है। ऐसा कहा जाता है कि मोदी कैबिनेट में आरसीपी सिंह के शामिल होने के बाद नीतीश कुमार ने किसी तरह से ललन सिंह को माना किया था , लेकिन ललन सिंह अंदर ही अंदर बदला लेने का फैसला कर रखे थे, उन्होंने तभी एक सोची समझी रणनीति के तहत उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान उन्होंने आरसीपी से यह कहा कि उत्तर प्रदेश में भाजपा और जदयू एक साथ मिलकर चुनाव लड़े इसको लेकर वह भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से बातचीत करें या फिर यह स्पष्ट करें कि भाजपा उनके साथ आने को तैयार है या नहीं।
उत्तर प्रदेश चुनाव में भी नहीं जीत पाए पार्टी का भरोसा
इसको लेकर यह कहा जाता है कि ललन सिंह ने उनको 51 सीटों की लिस्ट सौंप दी और कहा कि इन सीटों को भाजपा से जदयू को दिला दें। जबकि वहां जदयू की हालत ये थी कि उसके पास कार्यकर्ता औऱ नेता कौन कहे, 51सीट पर उम्मीदवार तक नहीं था। लेकीन,आरसीपी सिंह ने भी इस चीज को सीधे माना न कर अंतिम समय तक जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और नीतीश कुमार को इस विश्वास में रखा कि भाजपा उनके मांगों पर तैयार हो गई है लेकिन ऐन मौके पर उन्होंने बात पलट ली और वहां जदयू को अकेले चुनाव लड़ना पड़ा। जिसका परिणाम हुआ हुआ कि जदयू को यहां पूरी तरह से हार का सामना करना पड़ा।
ललन की रणनीति में फंसे आरसीपी
वहीं, अब आरसीपी सिंह को जदयू ने संसदीय राजनीति से विदा कर दिया है, इस लिहाज से उनका मंत्री की कुर्सी जानी भी तय है। लेकिन खास बात ये है कि पार्टी में भी अब आरसीपी के लिए कोई जगह नहीं है। आरसीपी सिंह जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं और फिलहाल राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी पर ललन सिंह बने हुए हैं ऐसे में उन्हें वापस से राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी देना थेड़ी खीर साबित हो रही है। इसके अलावा जो नेता पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुका है वह नेता नीचे के किसी पद पर बिठाया नहीं जा सकता। यानि आरसीपी सिंह को अब संगठन में भी कोई जिम्मेवारी नहीं मिलेगी, ये भी तय है।