कहलगांव का घूमता शिवलिंग
आप किसी शिवलिंग की पूजा करने गए। मंदिर से निकलते वक्त आपने शिवलिंग के अपने सम्मूख स्थित भाग पर चंदन का टीका लगाया। फिर आप वहां से निकल गए। इसके बाद उस शिवलिंग के निकट और कोई नहीं गया। अगले दिन आप सबसे पहले उसी मंदिर परिसर में स्थित शिवलिंग के पास पहुंचे। वहां जो आपने देखा वह अद्भूत! अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक !!! पहले दिन प्रवेशद्वार के सामने स्थित शिवलिंग के जिस हिस्से पर आपने चंदन का टीका लगाया था। आज वही टीका अपने स्थान से शिवलिंग के दायीं तरफ थोड़ा हटकर लगा प्रतीत हुआ।
बांसुरी की ध्वनि और मंद-मंद घुर्णन
दरअसल चंदन का टीका अपने स्थान से नहीं खिसका था। खोजबीन करने पर लोगों ने बताया कि यह शिवलिंग ही अपनी धुरी पर मंद-मंद घूमता है जिससे उसपर लगा चंदन अगले दिन अपने स्थान से थोड़ा अलग लगा हुआ दिखाई पड़ता है। भागलपुर जिलंतर्गत कहलगांव स्टेशन से 12 किमी उत्तर कासड़ी पहाड़ी की तराई में बसे ओरियप गांव के निकट बांस के घने जंगलों के बीच स्थित बांसुरी देवी मंदिर परिसर में यह घूमता हुआ शिवलिंग है। बांस के जंगलों के बीच स्थित इस मंदिर परिसर में आने पर बांसुरी की सी आवाज आती रहती है। बांस के सघन वन से होकर आती हवा के कारण यह सुरीली ध्वनी यहां सुनाई पड़ती है।
मंदिर परिसर में कई पौराणिक स्मारक
यहां मुख्य मंदिर तो बांसुरी देवी का है लेकिन इसके परिसर में कई पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व के चमकीले पत्थर के स्मारक भी हैं। चमकीले पत्थर वाले इन पुरातन स्तंभों के बीच ही काले पत्थर का यह प्रचीन शिवलिंग भी स्थित है। सतह से शिवलिंग की ऊंचाई डेढ़ फीट और परिधि में गोलाई करीब तीन फीट है। शिवलिंग खुद-ब-खुद अपने स्थान पर बहुत ही मंद गति से घूमता है। यह खासियत इसे दुर्लभ और अपनी तरह के एकमात्र होने का दर्जा दिलाती है।
क्यों और कैसे घूमता है शिवलिंग
यह शिवलिंग क्यों और कैसे घूमता है? इसका कोई ठोस वैज्ञानिक कारण तो ज्ञात नहीं है, लेकिन यहां आने वाले शिवभक्त इसे साक्षात बाबा का चमत्कार ही मानते हैं। ओरियप के ग्रामीणों ने बताया कि बहुत पहले इलाके के लोगों ने इस शिवलिंग के चारों तरफ की मिट्टी खोदी। खुदाई गहरी होने के साथ-साथ नीचे शिवलिंग की परिधि भी बढ़ती गई। करीब तीस फीट नीचे भी इस शिवलिंग का मूल पाया गया। लेकिन और नीचे जब खुदाई बढ़ी तो पानी निकल गया। फिर खुदाई बंद कर मिट्टी भर दी गयी तथा सतह से शीर्ष तक का डेढ़ फीट का भाग छोड़ दिया गया जो अभी भी वर्तमान है एवं मंद गति से अपनी धूरी पर घूमता है। ग्रामीणों ने बताया कि शिवलिंग पर लगाया गया चंदन या टीका नहीं घूमता। यदि शिवलिंग पर लगे टीके को तीसरे-चैथे दिन तक छोड़ दिया जाए तो वह और ज्यादा खिसका हुआ मालूम पड़ेगा। ऐसा शिवलिंग के अपनी धूरी पर बहुत ही धीमे घूमने के कारण होता है जिससे चंदन खिसका हुआ मालूम पड़ता है।
पुरावशेषों की भरमार
बंसुरी देवी मंदिर परिसर में स्थित इस शिवलिंग के दायीं ओर एक छोटा एवं बाईं तरफ दो बड़े और एक मंझले आकार का काला शिला स्तंभ है। शिवलिंग के कुछ आगे दायीं ओर एक काले पत्थर का स्तूप है जिसके शीर्ष पर अष्टदल कमल बना हुआ है। इन पुरावशेषों के बीच, उत्तरवाहिनी गंगा और कोसी के संगम के निकट स्थित होने से इस दुर्लभ शिवलिंग का धार्मिक महत्व काफी बढ़ जाता है। बांसुरी देवी मंदिर परिसर में स्थित होने तथा इसके बगल में ही असावरी देवी का मंदिर होने से यहां श्रद्धालुओं की आवक तो बनी रहती है, पर यह नाकाफी है। जबकि यहां पर्यटन उद्योग की अपार संभावनाएं हैं। गंगा-कोसी संगम स्थल को जहनु मुनि की तपस्थली माना जाता है। जिस कासड़ी पहाड़ी की तराई में यह दुर्लभ शिवलिंग है उस पूरे क्षेत्र को दुर्वासा ऋषि का भ्रमण क्षेत्र के रूप में देखा जाता है। इसके तीन किमी पश्चिमोत्तर में बटेश्वर महादेव मंदिर है तथा तीन ही किमी पूर्वोत्तर में विक्रमशीला बौद्धविहार का खण्डहर स्थल है। पुरातत्व विभाग की टीम ने इस इलाके के कुछ जगहों पर खुदाई भी की थी जिसमें ई.पू़. 800 से लेकर पहली शताब्दी तक के अवशेष मिले। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है पाल कालीन अवशेषों का मिलना। धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व की इतनी खूबियों को अपने आंचल में समेटे इस इलाके पर यदि सरकार समूचित ध्यान दे तो यहां पर्यटन विकास की काफी संभावना है।