‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ — बायोपिक कम बतकही ज्यादा

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‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ के रिलीज से पहले इसे प्रचारित किया जा रहा था कि इस फिल्म में राजनीतिक दलों व नेताओं की पोल खुलेगी। बीच में खबर आयी कि कुछ राज्य सरकारें इस फिल्म को बैन करना चाहतीं है। लेकिन, फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे हंगामा किया जा सके। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मीडिया सजाहकार रहे संजय बारु की इसी नाम से लिखी पुस्तक पर यह फिल्म बनी है। यहां यह बात स्पष्ट होना चाहिए कि यह फिल्म डॉ. मनमोहन सिंह की बायोपिक नहीं है, क्योंकि यह फिल्म किसी बायोपिक के मानको को पूरा नहीं करती। इसमें बालक मनमोहन सिंह, उनका परिवार, अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह, रिजर्व बैंक गवर्नर डॉ. मनमोहन सिंह, वित्त सचिव या वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बारे में नहीं है। 2004 से 2014 तक उनके प्रधानमंत्रीत्व काल के बारे में है और उसमें भी परमाणु संधि, चुनाव व घोटाले आदि में कांग्रेस पार्टी व गांधी परिवार से उनका संबंध कैसा था, इस पर यह फिल्म फोकस करती है। साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) पर किन लोगों का रसूख होता है और पार्टी के ही कुछ लोग कैसे अपनी ही सरकार के लिए समस्या खड़ी करते हैं, इसको भी फिल्म में दिखाया गया है। फिल्म पर सेंसर की कैंची चली है। कई संवादों को म्युट किया गया है।
इसके निर्देशक विजय रत्नाकर गुटे हैं। कहानी हंसल मेहता ने लिखी है। फिल्म का कथानक सपाट है। इसमें रोचकता नहीं है। असल जीवन के चरित्रों को कलाकारों द्वारा पर्दे पर उतारा गया है। लेकिन, कलाकार हुबहु दिखने की लालच में अभिनय की जगह नकल (मिमिक्री) करते लगते हैं। पूरी फिल्म में दो ही चेहरा याद रहता है। डॉ. डॉ. मनमोहन सिंह (अनुपम खेर) और संजय बारु (अक्षय खन्ना)। दोनों कलाकारों ने पूरी मेहनत से काम किया है। हलांकि अनुपम जितने सिद्धस्थ अभिनेता हैं, वे अगर मनमोहन की नकल कम भी करते, तो काम चलता। सोनिया गांधी के किरदार में सुजैन बर्नट ठीक—ठाक है।
कहानी सतही भले है। लेकिन, इस फिल्म की प्रोडक्शन वैल्यु समृद्ध है। सेट डिजाएन, परिधान आदि प्रमाणिक लगते हैं। सचिन कृष्ण ने कैमरे से ल्युटिन्स की दिल्ली को दिखाया है। सुदीप रॉय व साधु तिवारी का संगीत में जान नहीं है। पार्श्वध्वनि कुछ ज्यादा ही चुभती है। संवाद व दृश्यों की कमजोरी को ढंकने के लिए इसका खूब इस्तेमाल हुआ है। एक फीचर फिल्म को यथार्थवादी बनाने के लिए फिल्मकार ने कुछ नेताओं के बयान और राजनीतिक रैलियों के असली फुटेज का इस्तेमाल किया है। इसके अतिरेक से एक फीचर फिल्म के डॉक्युमेंटरी या डॉक्युड्रामा बनने का चांस रहता है। इससे फिल्मकारों को बचना चाहिए, क्योंकि इससे रोचकता में कमी आती है।
कई खामियों के बावजूद इस फिल्म के फिल्मकार की प्रशंसा होनी चाहिए कि उसने देश की राजनीतिक घटना पर फिल्म बनाने का साहस किया। इस औसत फिल्म को सिर्फ और सिर्फ देश के प्रधानमंत्री रहे महान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के लिए याद रखा जाएगा।

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