टी एन शेषन: जिनकी वजह से लालू को सत्ता मिली भी और गई भी!

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अब जबकि बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है और बिहार के तमाम गतिविधियों पर निर्वाचन आयोग की नजर है, यह जानना जरूरी है कि आज अगर नेता निर्वाचन आयोग के निर्देशों का अदब से पालन करते हैं, तो इसके पीछे जाने-माने प्रशासक टीएन शेषन का योगदान है। यह शेषन ही थे, जिनके कारण निर्वाचन आयोग नामक संस्था का प्रताप बिहार ने पहली बार महसूस किया था।

वैसे तो चुनाव आयोग को स्वतंत्र संवैधानिक संगठन कहा जाता था। लेकिन, व्यवहार में उसकी छवि सत्तारूढ़ दल के इशारे पर चलने वाले नखसिख विहिन संगठन की थी। चुनाव आयोग की स्वतंत्र व सक्षम संस्था की छवि देने वाले मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन थे।

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भारत में निष्पक्ष और स्वतंत्र माहौल में चुनाव का विश्वास जगाने इसका श्रेय उनको को जाता है। सख्त चुनाव आयुक्त की पहचान बनाने वाले शेषन नौकरशाही में भी सुधार के लिए जाने जाते हैं। ईमानदारी और कानून के प्रति अपनी निष्ठा की वजह से वे चुनावी अखाड़े के माहिर खिलाड़ियों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। इस वजह से राजनीतिक गलियारे में टीएन शेषन को सनकी और तानाशाह जैसे विशेषण देने वालों की कमी नहीं थी।

लेकिन, दूसरी ओर आम लोगों के बीच उनकी छवि व्यवस्था में क्रांति लाने वाले संवेदनशील मानव, मेहनती व सक्षम प्रशासक की बन रही थी। अपने कार्यकाल में वे बुद्धिजीवियों और निम्न मध्य वर्ग के नायक बनकर उभरे थे। चुनाव सुधार के लिए किए गए उनके काम भारत के इतिहास में दर्ज हो गए है। कड़े विरोध व प्रशासनिक असहयोग के बावजूद चुनाव संबंधी कानूनों को कड़ाई से लागू करवाने में सफल होने वाले शेषन ने अपने कार्यकाल में कुछ ऐसे कार्य किए जो असंभव लगता था।

पीवी नरसिम्हा राव से लेकर लालू प्रसाद यादव को भी उन्होंने नहीं बख्शा

पहली बार भारत के मानस ने जाना कि चुनाव आयोग की शक्तियां क्या होतीं हैं? उस समय के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से लेकर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव किसी को भी उन्होंने नहीं बख्शा। भारी दबाव के बावजूद वे झुके नहीं। वे पहले चुनाव आयुक्त थे जिन्होंने लीक से हटकर कुछ कड़े निर्णय लिए और उसे कार्य रूप में उतार भी दिया। उनके कार्यकाल में ही बिहार में पहली बार चार चरणों में चुनाव करवाया गया था। इस दौरान गड़बड़ी की आशंका पर चुनाव की तारीखें बदल देने के निर्णय लिए गए थे। बूथ कैप्चरिंग और कमजोर वर्ग के मतदाताओं को बूथ तक नहीं पहुंचने देने के लिए बदनाम रहे बिहार में मतदान केंद्रो पर उन्होंने केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को तैनात किया था।

जब शुरू हुआ मतदाता पहचानपत्र का प्रयोग

टीएन शेषन ने चुनाव में नीचे तक होने वाले धांधली को रोकने के लिए मतदाता पहचानपत्र का निर्णय लिया था। टीएन शेषन के कार्यकाल में ही चुनावों में मतदाता पहचानपत्र का प्रयोग शुरू हुआ था। उनके इस निर्णय का चुनावी अखाड़े के माहिर खिलाड़ियों ने जोरदार विरोध किया था, वही लोग आज वर्चुअल रैली का भी विरोध कर रहे हैं। वोटर आईडी को बहुत खर्चीला बताते हुए इसमें घोटाले की भी आशंका व्यक्त की गयी थी। लेकिन, शेषन राजनीति के उन खिलाड़ियों के प्रपंच के आगे नहीं झुके। कई राज्यों में तो मतदाता पहचान पत्र तैयार नहीं होने की वजह से उन्होंने चुनाव तक को स्थगित करवा दिया था।

पहली बार शेषन जैसे चुनाव आयुक्त के कारण चुनावी अखाड़े का स्वरूप बदलने लगा था। शेषन के प्रयास से बदलाव का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसने मतदाताओं के सोए हुए अधिकार बोध को जगा दिया था। लोग अपने मत का महत्व समझने लगे थे और उसकी रक्षा के लिए एकजुट भी होने लगे थे।

रिपोर्ट में सामने आई माफियाओं की समानांतर सरकार की बात

लेकिन, चुनावी अखाड़े में अब भी बाहुबल और धनबल का बोलबाला था। उनका कार्यकाल 1990 से 96 तक रहा। उनके कार्यकाल में ही चुनाव प्रक्रिया को अपराधियों व धनपशुओं के चंगुल से मुक्त कराने की आवाज चारों ओर से उठने लगी थी। इसका परिणाम यह हुआ था कि केंद्र सरकार को पूर्व केंद्रीय गृहसचिव एनएन वोहरा की अध्यक्षता में इस समस्या पर अध्ययन के लिए एक समिति बनानी पड़ी। एनएन वोहरा समिति की रिर्पोट में आपराधिंक गिरोहों द्वारा धनबल एवं बाहुबल से लोकतंत्र की जड़ को कमजोर करने के षड्यंत्रों का खुलासा किया गया है। इसमें स्पष्ट कहा गया कि बड़े माफिया गिरोहों ने राजनीति और भ्रष्ट नौकरशाही को धन के बल पर अपने शिकंजे में जकड़ रखा है। रिपोर्ट में माफियाओं की समानांतर सरकार की बात कही गयी है।

तस्करों के बड़े-बड़े सिंडिकेट देश के भीतर छा गए हैं

05 दिसंबर 1993 को तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव एनएन वोहरा ने अपनी सनसनीखेज रिपोर्ट गृहमंत्री को सौंपी थी। रिपोर्ट में कहा गया था ‘इस देश में अपराधी गिरोहों, हथियारबंद सेनाओं, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले माफिया गिरोहों, तस्कर गिरोहों, आर्थिक क्षेत्रों में सक्रिय लॉबियों का तेजी से प्रसार हुआ है। इन लोगों ने विगत कुछ वर्षों के दौरान स्थानीय स्तर पर नौकरशाहों, सरकारी पदों पर आसीन लोगों, राजनेताओं, मीडिया से जुड़े व्यक्तियों तथा गैर-सरकारी क्षेत्रों के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन व्यक्तियों के साथ व्यापक संपर्क विकसित किए हैं।

इनमें से कुछ सिंडिकेटों की विदेशी आसूचना एजेंसियों के साथ-साथ अन्य अंतरराष्ट्रीय संबंध भी हैं।’ वोहरा रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस देश के कुछ बड़े प्रदेशों में इन गिरोहों को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दलों के नेताओं और सरकारी पदों पर आसीन व्यक्तियों का संरक्षण हासिल है। समिति ने यह भी कह दिया था- ‘तस्करों के बड़े-बड़े सिंडिकेट देश के भीतर छा गए हैं और उन्होंने हवाला लेन-देन, कालेधन के प्रसार सहित विभिन्न आर्थिक कार्यकलापों को प्रदूषित कर दिया है। उनके द्वारा भ्रष्ट समानांतर अर्थव्यवस्था चलाए जाने के कारण देश की आर्थिक संरचना को गंभीर क्षति पहुंची है। इन तत्वों ने जांच-पड़ताल तथा अभियोजन अभिकरणों को इस तरह ध्वस्त कर दिया है कि लोकतंत्र के मान्यमूल्य व उद्देश्य ही संकट में पड़ गए हैं।’

कहाँ है 1993 में गठित एनएन वोहरा समिति की रिपोर्ट से जुड़े महत्वपूर्ण रिकॉर्ड

वोहरा समिति के उस रिपोर्ट ने शेषन द्वारा चलाए गए अभियान को बल दिया था। उस रिपोर्ट में महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर राज्य के बारे में ज्यादा जोर दिया गया था। लोकतंत्र व देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण उस रिपोर्ट को सरकार के अधिकारियों ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था। जब उसकी चर्चा थमने लगी तब एक आरटीआई आवेदन दायर किए जाने के बाद यह सवाल खड़ा हुआ- संगठित अपराधियों, माफियाओं और नेताओं के बीच के संबंधों की जांच के लिए 1993 में गठित एनएन वोहरा समिति की रिपोर्ट से जुड़े महत्वपूर्ण रिकॉर्ड आखिरकार कहाँ हैं?

जब बिहार में सत्तारूढ़ दल की स्थिति असहज हो गयी थी

पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेश गांधी के अनुसार इस संदर्भ में सूचना हासिल करने के लिए उनकी ओर से दायर आरटीआई आवेदन केंद्रीय गृह मंत्रालय के कई विभागों में दो वर्षों तक घूमता रहा। संबंधित विभागों की ओर से यही जवाब मिला कि उनके पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है। गांधी ने सभी संलग्नकों और नोट शीट के साथ समिति की रिपोर्ट मांगी की थी। केंद्रीय सूचना आयोग ने मंत्रालय की आंतरिक सुरक्षा इकाई को निर्देश दिया था कि आवेदन जिस विभाग में है उससे सूचना एकत्र की जाए और उसे आयोग के पास शीघ्र भेजा जाए। इतने स्पष्ट और कड़े निर्देश के बाद संबंधित विभागों से टके सा जवाब आया कि उसके पास सिर्फ रिपोर्ट है, लेकिन कोई संलग्नक और नोट शीट उपलब्ध नहीं है। साल 1993 के मुंबई विस्फोटों के बाद इस समिति का गठन किया था।

देश के तत्कालीन गृह सचिव एनएन वोहरा के नेतृत्व में गठित उस समिति को यह जिम्मेदारी दी गई थी कि उन अपराधियों व माफियाओं के गिरोहों की गतिविधियों के बारे में जानकारी एकत्र करें, जिन्होंने सरकारी अधिकारियों और नेताओं से संबंध बना लिए हैं और उनको संरक्षण प्राप्त कर लिए हैं। समिति में रॉ, खुफिया ब्यूरो और सीबीआई के अधिकारी भी बतौर सदस्य शामिल थे। इसने 1993 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में बिहार के सिवान, दरभंगा, किशनगंज और चतरा इन चार संसदीय क्षेत्रों के केस स्टडी को प्रमुखता से शामिल किया गया था। इसके कारण उस समय बिहार में सत्तारूढ़ दल की स्थिति असहज हो गयी थी।

टी एन शेषन की वजह से सत्ता मिली और गई!

लालू की राजनीतिक यात्रा पर आधारित किताब ‘गोपालगंज टू रायसीना’ में लालू यादव ने टीएन शेषन से अपनी तनातनी का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि 90 के दशक में तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयुक्त टीएन शेषन शायद मेरे बारे में इस झूठे प्रचार के झांसे में आ गए और उन्होंने मान लिया कि मेरी पार्टी चुनावी हिंसा और बूथ कब्जे में शामिल रही होगी।

हालांकि, वंचितों की आवाज को मुखर करने की बातों को लेकर लालू यादव चुनावी मैदान में थे। लेकिन, वंचित समाज की बात लालू यादव कर रहे थे वे अभी तक वोटिंग अधिकार से मुक्त थे। लेकिन, टीएन शेषन के प्रयासों से वह तबका पोलिंग बूथ तक पहुंचे और लालू यादव के पक्ष में जमकर वोटिंग की और लालू को सत्ता मिली। उस चुनाव में आजादी के बाद दलित और पिछड़ी जाति के सबसे अधिक विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे और लालू दूसरी बार बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे।

लालू यादव को लगता है कि टी एन शेषन के कारण उन्हें दोबारा सत्ता मिली, तो लालू यादव को यह भी याद रखना चाहिए कि यह वही शेषन है, जिनके द्वारा स्थापित मानदंडों ने चुनाव आयोग को इतना सशक्त कर दिया कि 2005 में लालू-राबड़ी सरकार की अराजकता को खत्म कर बिहार में एक नई बयार बहाने का अवसर दिया।

 

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