सूई धागा: यानी अच्छे वस्त्र की बिगड़ी बुनावट

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शरत कटारिया ने तीन साल पहले प्यारी सी फिल्म ‘दम लगा के हाइशा’ बनाई थी। लेकिन, इस बार ‘सूई धागा’ में वे ठीक से बुनावट नहीं कर सके। इसके चलते एक सुलझी हुई व प्यारी सी कहानी बॉलीवुडिया तड़क—भड़क का शिकार हो गई। इसको ऐसे समझिए। अपने अच्छी क्वालिटी का कपड़ा लिया, जिसकी बुनाई शानदार है। खुश होकर दर्जी के पास गए और कमीज सिलने को कहा। दर्जी ने अपनी कलाकारी का बेजोड़ नमूना पेश करते हुए आपकी कमीज के साथ न्यूटन—आइंस्टाइन जैसे प्रयोग कर डाले! यह सोचकर कि आप चटख—लटख वाली कलाकारी देख खुश होंगे। लेकिन, यह क्या! आप पाते हैं कि दर्जी के अधिक काबिल बनने के चक्कर में आपकी कमीज की ऐसी की तैसी कर दी है। जहां—तहां बटन, पैंबंद, आड़ी—तिरछी कटिंग और न जाने क्या—क्या? यशराज फिल्म्स की ताजा प्रस्तुती ‘सूई धागा’ के साथ भी यही हुआ।

​फिल्म की शुरूआत मौजी (वरूण धवन) और उसकी पत्नी ममता (अनुष्का शर्मा) के दैनिक जीवन के संघर्ष से होती है और उनके सपने को पूरा कर खत्म हो जाती है। मानो कि यह फिल्म नहीं बल्कि मौजी—ममता के सपनों का संकलन है। फिल्मकार ने कथानक का बनावट (ढांचा) तो ठीक तैयार किया। लेकिन, उसकी बुनावट में संतुलन नहीं बना सके। जैसे फिल्म के मूड के हिसाब से छोटे शहर के मध्यमवर्ग परिवार का ​सटीक चित्रण, सेट, किरदार व छोटी—छोटी बारिकीयों (प्रॉप्स) पर ध्यान दिया, जैसे ‘दम लगा के हाइशा’ में दिया। अब जब बुनावट की बारी आई, तो उसमें वे उलझकर रह गए। शुरू में कथा स्थापित ठीक से हो गई। लेकिन, मध्य के बाद जब कहानी में असल मोड़ आना था, वहां से एक यथार्थवादी कथा को पूर्ण व्यावसायिक फिल्म के मसाला के रूप में ढाल दिया गया। शुरू में रियल दिखने वाला किरदार लार्जर दैन लाइफ हो गया। शुरू में फिल्म देखने पर यह ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी या श्याम बेनेगल के बगिया के फूल जैसी मालूम पड़ती है। लेकिन, अंत की ओर बढ़ते हुए यह मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, यश चोपड़ा, राकेश रोशन, राजकुुमार संतोषी, इंद्र कुमार, डेविड धवन व आदित्य चोपड़ा के फिल्मों की नकल लगने लगती है। आदित्य तो इसके निर्माता भी हैं।

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इतना व्यापक प्लॉट होने के बावजूद यह फिल्म सवा दो घंटे में ही हांफने लगती है। रही सही कसर वरूण व अनुष्का की ओवर एक्टिंग पूरी कर देती है। लेखक कितना भी अच्छा किरदार लिख ले, वरूण उसको घसीट कर अपने प्रतिभा के सीमित दायरे में लाकर उसकी सृजनशीलता कुंद कर देते हैं। अनुष्का तो ऐसी नहीं थीं। उनसे उम्मीद थी कि भरभराते दृश्यों को संभालेंगी। लेकिन, वरूण की संगत में उन्होंने भी खानापूर्ति कर दी।
लेखक व फिल्मकार की तारीफ करनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने विषय बड़ा प्रासंगिक उठाया था। दर्शक भी सिर्फ विषय के कारण ही सिनेमाघर में टिक रहे हैं। बस, बाजार के लालच या निर्माण गृह के दबाव में इसका प्रस्तुतीकरण विकृत कर दिया। उम्मीद है शरत ‘सूई धागा’ से आगे बढ़ेंगे और एक शानदार फिल्म का तोहफा हमलोगों को देंगे।

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