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वृद्ध दिवस पर विशेष : जीवन की शाम में बेसहारा होते बुजुर्ग

राकेश प्रवीर, वरिष्ठ पत्रकार

हमारी संस्कृति में बड़े-बुजुर्गों के सम्मान की परंपरा रही है। जब किसी युवा या बच्चों को अपने बड़ों से कुछ ऊंची आवाज में बात करते देखा-सुना जाता था, तो उसे नसीहत दी जाती थी कि अपने बुजुर्गों के साथ सम्मान से पेश आओ। अमूमन कहा जाता है कि ” वे लोग किस्मतवाले होते हैं जिनके सिर पर बुजुर्गों का हाथ होता है।” मगर ये सब बातें अब बीते दिनों की हो गई हैं। समाज में बुजुर्गों की वास्तविक स्थिति बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं है।

बदलते समय और छीजते जीवन मूल्यों के कारण अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि बुजुर्ग हमारे समाज में उपेक्षित होकर हाशिए पर जाने लगे हैं। उन्हें फालतू समझा जाने लगा है। ओल्ड एज होम्स की बढ़ती संख्या भी यही इशारा करती है कि समाज में बुजुर्गों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। एक सर्वे में उभर कर आया तथ्य भी कुछ ऐसा ही संकेत दे रहा है।

घर में कोई नहीं देता ध्यान

अनेक वर्षों तक अर्थोपार्जन कर परिवार की देखभाल, बच्चों की परवरिश, पढ़ाई-लिखाई कराने और उसे सबल बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करने वाला व्यक्ति जब वय की एक सीमा के बाद रिटायर हो जाता है, शारीरिक सक्रियता कम हो जाती है, तब वह अपने ही बच्चों की नजरों में नकारा, बेकार हो जाता है। पहले जो बेटा काम या ऑफिस से वापस आकर मां-बाप से दिन भर का हाल चाल पूछता था, वही बेटे अब अपने बुजुर्गों से परायों सा व्यवहार करते अधिकतर घरों में दिखाई देते हैं। संयुक्त परिवार के विघटन के बाद यह समस्या और गहरी हुई है। छोटे या माइक्रो शहरी परिवारों में तो बुजुर्गों की स्थिति और चिन्तनीय है। बेटे अगर शादी शुदा हैं तो अपने परिवार में मस्त और अगर सिंगल है, तो घर आकर मोबाइल और सोशल मीडिया ही जैसे उसकी पूरी दुनिया है। महज चार जनों के परिवार में भी कई-कई दुनिया पसरी नजर आती है। सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन के इस दौर में तो बुजुर्ग और भी ज्यादा उपेक्षित-अवहेलित हो गए हैं।

बदलता सामाजिक परिवेश और बदलती पारिवारिक स्थितयों ने परिवार के बुजुर्गों के लिए जिंदगी को और दुश्वार कर दिया है। घर के बुजुर्गों और नए परिवार बसाते बच्चों के बीच एक दूरी-सी पैदा हो गई है। और ये दूरी गांव और छोटे कस्बों से ज्यादा शहरों में देखने को मिलती है। जिंदगी के इस वक्त जब उम्र की शाम होने लगती है, तो अधिकतर घरों में बुजुर्गों की अनदेखी कर दी जाती है, और बेकार का सामान समझ कर या तो घर के कोने में या ओल्ड एज होम में रवाना कर दिया जाता है, बुजुर्गों की अनदेखी उनके लिए मानसिक अवसाद की वजह बन जाती है। इस बेरहम स्थिति के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?

बुरा व्यवहार और ताना-उलाहना

पटना की गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्था पराशर फाउंडेशन के एक ऑनलाइन सर्वे में 44% बुजुर्गों का कहना है कि सार्वजनिक स्थानों पर उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता है। 53% बुजुर्ग परिवार में उपेक्षा की बात स्वीकार करते हैं। सर्वे में शामिल बुजुर्गों में से करीब आधी संख्या (48%) को अपने बेटे-बहुओं से ताना-उलाहना सुनने को मिलती है। पटना के 70% बुजुर्गों का कहना है कि पार्क में टहलना,घर से कहीं बाहर पार्टी, फंक्शन आदि में जाना उनके लिए किसी बुरे सपने की तरह होता है। 37 % बुजुर्गों की शिकायत है कि परिवार में उनकी चिकित्सीय जरूरतों की उपेक्षा की जाती है।

स्वास्थ्य की स्थिति चिंताजनक

स्वास्थ्य विभाग की 2019-20 की एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में वृद्धों की मृत्यु के तीन सबसे बड़े कारण श्वासनली-शोथ / दमा (25.8 प्रतिशत), दिल का दौरा (13.2 प्रतिशत) और लकवा (8.5 प्रतिशत) रहे हैं। भारत में 18 प्रतिशत से अधिक वृद्ध अवसादग्रस्त हैं और 70-80 वर्ष आयुवर्ग के 40-50 प्रतिशत लोगों को अपने जीवन की संध्या बेला में कभी न कभी मनोचिकित्सीय या मनोवैज्ञानिक काउंसलिंग की आवश्यकता होती है।

नेशनल सैम्पल सर्वे (2018-19) के अनुसार उम्रदराज लोगों में दीर्घकालिक रोग की मौजूदगी बहुत अधिक पाई गई। ग्रामीण क्षेत्रों (25 प्रतिशत) के मुकाबले शहरी इलाकों (55 प्रतिशत) में इस आयुवर्ग के लोगों को ये रोग अधिक थे।

वृद्ध लोगों में सबसे गंभीर रोग था-‘जोड़ों में दर्द की समस्या’। इससे ग्रामीण इलाकों में 38 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 43 प्रतिशत उम्रदराज लोग प्रभावित थे।ग्रामीण इलाकों में पुरुषों के मकाबले महिलाएं ‘जोड़ों के दर्द की समस्या’ से ज्यादा ग्रस्त पाई गईं। ग्रामीण इलाकों में 40 और शहरी इलाकों में 35 प्रतिशत उम्रदराज लोग किसी न किसी प्रकार की शारीरिक अक्षमता (दिखने, सुनने व बोलने इत्यादि से संबंधित ) से ग्रस्त पाए गए।

कानून का सहारा लेने में हिचक

पूरे संसार में शायद भारत ही एक ऐसा देश है, जहां कभी तीन पीढिय़ां सप्रेम एक साथ एक ही घर में रहती थीं। आज स्थिति बिलकुल उलट है। ऐसे तो पीड़ित बुजुर्गो के संरक्षण के लिए कानून है, लेकिन जानकारी के अभाव, बदनामी के डर व जटिल कानूनी प्रक्रिया की वजह से वे कानून का सहारा लेने से हिचकते हैं। सरकारी स्तर पर हल्के-फुल्के ढंग से कुछ प्रावधान किए गए है, मगर बुजुर्गों के लिए वे बहुत सहायक नहीं है। पारिवारिक सम्पत्ति के उत्तराधिकारियों की प्रताड़ना से बुजुर्गों को बचाने और उन्हें संरक्षित करने में कानून बहुत कारगर नहीं है।

71वें स्थान पर भारत

वृद्धों के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन और दुनिया की सबसे खराब जगहों की वैश्विक रैंकिंग में स्विटजरलैंड का नाम सबसे अच्छी और भारत का नाम सबसे खराब जगह में शुमार किया गया है। हेल्पेज इंटरनेशनल नेटवर्क ऑफ चैरिटीज की ओर से तैयार ग्लोबल एज वॉच इंडेक्स में 96 देशों में भारत को 71वां स्थान दिया गया।

आज हमारे समाज में बुजुर्ग एकाकी रहने को विवश हैं। उनके साथ उनके अपने बच्चे नहीं हैं। अगर बच्चे हैं तो उनका अपने बुजुर्गों के लिए तंज है कि आपने मेरे लिए किया क्या है? गावों में तो स्थिति फिर भी थोड़ी ठीक है लेकिन शहरों में तो स्थिति बिलकुल ही उलट है। ज्यादातर बुजुर्ग घर में अकेले ही रहते हैं, और जिनके बच्चे उनके साथ हैं वो भी अपने अपने कामों में इस हद तक व्यस्त हैं की उनके पास अपने माता – पिता से बात करने के लिए समय ही नहीं है। उपेक्षा का दंश झेलते बुजुर्गों की पीड़ा आज कमोबेश हर घर की कहानी है।