राष्ट्रीय प्रेस दिवस के पीछे की कहानी… ‘तो सबसे बड़े अपराधी होंगे पत्रकार’

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आज 16 नवम्बर राष्ट्रीय प्रेस दिवस है और हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह माने जाने वाले पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर की जयंती भी। भारतीय प्रेस परिषद की स्थापना हालांकि 4 जुलाई 1966 को हो गयी लेकिन इसने काम शुरू किया 16 नवम्बर को, इसलिए इस दिन ही प्रेस दिवस मनाया जाता है। भारतीय प्रेस परिषद सैद्धांतिक स्तर पर तो बहुत ही भारी-भरकम मालूम पड़ता है। लेकिन, व्यवहार में इसकी स्थिति दंत विहीन सर्प के समान है। जैसे इसके अध्यक्ष की नियुक्ति राज्यसभा के सभापति, लोकसभा अध्यक्ष एवं परिषद द्वारा नामित किए गए एक सदस्य की समिति करता है। अध्यक्ष के अलावा इसमें 28 सदस्य होते हैं, जिनमें सांसद, अखबारों के संपादक, पत्रकार, प्रबंधन से जुड़े विशेषज्ञ, लोक सेवा के लोग शामिल हैं। किसी मीडिया संस्थान द्वारा प्रकाशित या प्रसारित किसी खबर पर आपत्ति हो, तो कोई भी नागरिक भारतीय प्रेस परिषद के पास शिकायत कर सकता है। यहां तक यह भारी-भरकम मालूम पड़ता है। अब इसके शक्तियों की बात करते हैं। शिकायत मिलने पर यह परिषद संबंधित मीडिया संस्थान से पूछताछ करने के बाद उसको चेतावनी देने से लेकर निंदा तक कर सकता है। इसकी कमजोरी है कि इसके पास दंड देने की शक्ति नहीं है।

आज के दिन प्रेस परिषद् की प्रासंगिकता पर चर्चा के साथ हिन्दी पत्रकारिता में पराड़कर जी के अमूल्य योगदान को याद करना भी बहुत जरूरी है। पराड़कर जी का जन्म आज के ही दिन (16 नवम्बर) 1883 को काशी में हुआ था। 1906 में उन्होंने पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया और जीवन के अन्तिम क्षण तक इसी में लगे रहे।

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इस यशस्वी पत्रकार के दर्शन का सौभाग्य तो मुझे नहीं मिला लेकिन उन्होंने जिस दैनिक ‘आज’ का सम्पादन किया था उसमें काम करने और उनके साथ काम किए कुछ वरिष्ठ जनों का सानिध्य जरूर मिला। इस नाते मैं अपने को भाग्यशाली जरूर मानता हूं।

पड़ारकर जी ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दी पत्रकारिता को जनजागरण के टूल के तौर पर इस्तेमाल किया, फिर आजादी के बाद इसे नए भारत के निर्माण के लिए युवाओं को प्रेरित करने का जरिया बनाया।
तकरीबन सौ साल पहले ही इस मनीषी ने आज की पत्रकारिता और समाचार जगत के बारे में जो भविष्यवाणी की थी वह बिल्कुल सही साबित होती दिख रही है।

1925 में वृन्दावन में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था कि स्वाधीनता के बाद समाचार पत्रों में विज्ञापन एवं पूंजी का प्रभाव बढ़ेगा। सम्पादकों की स्वतन्त्रता सीमित हो जाएगी और मालिकों का वर्चस्व बढ़ेगा। हिन्दी पत्रों में तो यह सर्वाधिक होगा। पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े धनिकों या संगठित व्यापारिक समूहों के लिए ही सम्भव होगा।

पत्र-पत्रिकाओं की विषय वस्तु की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि ये सर्वांग सुन्दर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता और कल्पनाशीलता होगी। गम्भीर गद्यांश की झलक और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त या मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क के समझे जाएंगे। सम्पादक की कुर्सी तक उनकी पहुंच भी न होगी।

वे कहते थे कि पत्रकारिता के दो ही मुख्य धर्म हैं। एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा लोक शिक्षण के द्वारा उसे सही दिशा दिखाना। पत्रकार लोग सदाचार को प्रेरित कर कुरीतियों को दबाने का प्रयत्न करें। पत्र बेचने के लिए अश्लील समाचारों और चित्रों को महत्व देकर, दुराचारी और अपराधी का आकर्षक वर्णन कर हम अपराधियों से भी बड़े अपराधी होंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं दैनिक हिंदुस्तान के सीनियर न्यूज़ एडिटर रह चुके हैं।)

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