प्रशांत रंजन
भारतवर्ष के प्रतिनिधित्व के किसी एक व्यक्ति का चयन किया जाए, तो वे नि:संदेह श्रीराम होंगे। एक तरह से वे भारत के प्रतीक पुरुष हैं। महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण से लेकर तुलसी बाबा रचित श्रीरामचरितमानस तक में प्रभु राम व उस काल के अन्य पात्रों का विविध प्रकार से वर्णन है। इसके अतिरिक्त आनंद रामायण, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकम्, रघुवंशम, अभिषेकनाटकम्, जानकीहरणम आदि में भी राम का अनेक रूपों में वर्णन है। लेकिन, वर्तमान में श्रीरामचरितमानस ही सर्वाधिक लोकप्रिय है। राम के प्रति भक्तिभाव की दृष्टि से वही सर्वग्राह्य है। यह तो हुई ग्रंथों की बात। अब दृश्य-श्रव्य माध्यम में देखें तो दादासाहब फाल्के द्वारा निर्देशित लंका दहन (1917) व उसके बाद विजय भट्ट द्वारा निर्देशित रामराज्य (1943) है, जो गांधीजी द्वारा एकमात्र देखी गई फिल्म है। उन्होंने भरत मिलाप व रामबाण भी बनाई थी। 1987 में रामानंद सागर की धारावाहिक ‘रामायण’ ने इतिहास रच दिया और तब से वह इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में श्रीराम को प्रस्तुत करने का मानक बन गया। बाद में भी श्रीराम व रामायण पर कई फिल्में व सिरियल बने। लेकिन, अब भी सागर रचित रामायण ही शिखर पर है।
अब बात करते हैं ओम राउत निर्देशित ‘आदिपुरुष’ की। इसकी चर्चा से पूर्व रामायण से जुड़ी रचनाओं का उल्लेख ऊपर करना आवश्यक था, ताकि यह पता चल सके कि विविधता के नाम पर या रचनाशीलता की सिनेमाई स्वतंत्रता के नाम पर कुछ ऐसा नहीं परोस सकते, जो भारतीय मानस के लिए अपथ्य हो। कलात्मक कल्पना की भी एक सामाजिक व नैतिक मर्यादा होती है, जिसे हर रचनाकार को ध्यान रखना होता है। ‘आदिपुरुष’ के निर्माताओं से यहां चूक हुई है। यह भी तब, जब गत वर्ष इस फिल्म के ट्रेलर रिलीज के समय लोगों की आपत्ति पर निर्माता ने कुछ दृश्यों को पुन: फिल्माने का वादा किया था। लेकिन, फिल्म देखकर आपको यह नहीं लगेगा कि रीशूट की जहमत उठाई गई है।
पहले कहानी की बात। फिल्म के आरंभ में चित्रकारी वाली शैली में राम विवाह, दशरथ का वचन, वन गमन आदि प्रसंगों को दिखाया गया। पंचवटी कुटिर से असल फिल्म शुरू होती है। इंटरकट में दसानन व राम से जुड़े दृश्यों को जक्स्टापोज़ किया गया है। हिरण का पीछा, सीता हरण, जटायु का अंतिम संस्कार, शबरी मिलन, हनुमान मिलन, बाली वध, लंका दहन, सेतु निर्माण और राम-रावण युद्ध। तीन घंटे में इतने सारे प्रसंगों को दिखाया गया है। लेकिन, मनमाने ढंग से। कैसे? इसको ऐसे समझिए। पहले घटनाओं का विवरण। जैसे विभीषण के साथ वह स्त्री कौन थी, जो शेष का उपचार कर रही थी। रामायण में तो सुखेन वैद्य ये यह कार्य किया था। पत्थर तैरने वाली बात समुद्र ने तो नहीं बताई थी। लेकिन, यहां यही दिखाया गया। संभवत: दो श्वेत वानर नल—नील थे। लेकिन, उनका पात्र परिचय नहीं कराया गया। रावण की लंका स्वर्ण निर्मित थी। लेकिन, यहां काले पत्थरों की लंका, जिसमें काष्ठ-लिफ्ट भी है। पुष्पक विमान के स्थान पर चमगादड़ पर रावण सवार है। उस चमगादड़ को रावण रेड-मीट के बड़े लोथड़े खिलाता है। यह वीभत्स दृश्य रचने का क्या तुक है? अंत में पुष्पक विमान के नाम पर जो लैंड करता है, वह हंसनुमा उड़नखटोला है। ये दृश्य आंखों को खटकते हैं। आंखों को वस्त्रसज्जा भी खटकती है। रावण का केशसज्जा विचित्र है।
घटनाओं के बाद संवाद कानों को खटकते हैं। इसकी पुष्टि के लिए चंद संवादों पर ध्यान दीजिए। मेघनाद से हुनमान बोलते हैं: “कपड़ा तेरे बाप का! तेल तेरे बाप का! जलेगी भी तेरे बाप की”। मेघनाद बोलता है: “तेरी बुआ का बगीचा है क्या, जो हवा खाने चला आया।” हनुमान बोलते हैं: “जो हमारी बहनों को हाथ लगाएंगे उनकी लंका लगा देंगे।” सुग्रीव का एक संवाद: “आप अपने काल के लिए कालीन बिछा रहे हैं।” एक स्थान पर लंकेश बोलता है: “मेरे एक संपोले ने तुम्हारे शेषनाग को लंबा कर दिया, अभी तो पूरा पिटारा भरा पड़ा है।” इसके अतिरिक्त तद्भव हिंदी और विशेषकर उर्दू शब्दों का प्रयोग है। जैसे गुप्तचर को जासूस, मृत्यु को मौत, वस्त्र को कपड़ा, पिता को बाप, वानर को बंदर, रिछ को भालू आदि। फिल्मकार को यहां समझना चाहिए था कि गत वर्ष आई फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ में उर्दू् शब्दों के अधिक प्रयोग से उसके निर्देशक की आलोचना हुई थी, तो यहां पर सीधे-सीधे प्रभु राम व रामायण की बात है। किसी भी दर्शक द्वारा राम—प्रेम और फिल्म—प्रेम के बीच प्रथम प्राथमिकता हर हाल में राम—प्रेम को दिया जाएगा, यह बात फिल्मकार को क्यों नहीं समझ आई? भारतीय संस्कृति में शब्द को ब्रह्म कहा जाता है, यह ऊर्जा का साधन है। ऐसे में फिल्म के सतही संवाद को लेकर उदार होने का कोई औचित्य नहीं है। माना कि ओम राउत रामायण की कथा को एक नए रूप में नई पीढ़ी के लिए प्रस्तुत करना चाह रहे थे। लेकिन, इसके लिए सड़क छाप संवाद लिखवाने की आवश्यकता तो न थी। जिन संवादों पर आपत्ति है, उसे छोड़ भी दें, तो सामान्य संवाद भी एनिमेशन फिल्मों की भांति क्यों ध्वनित हो रहे? राघव कहीं—कहीं तुकबंदी में पद्यनुमा संवाद बोल रहे हैं। यह नाटक में प्रभावी होता है, सिनेमा में इसने पात्र को हल्का कर दिया।
आदिपुरुष की निर्माण टोली ने एक और बेढंगा कार्य किया है। हालांकि, उससे कोई विशेष असर नहीं हुआ है। लेकिन, किंचित पृथक होने का भाव तो आया ही है। इस फिल्म में मुख्य पात्रों को उनके प्रचलित नाम से बुलाकर, उन्हीं के अन्य नाम से संबोधित किया गया है। जैसे राम-सीता को राघव-जानकी, लक्ष्मण को शेष, हनुमान को बजरंग, मेघनाद को इंद्रजीत और सबसे बड़ी बात राम की कथा को ‘आदिपुरुष’ के शीर्षक से बनाने का क्या तात्पर्य है, यह समझ से परे है। इन प्रयोगों से निर्देशक क्या स्थापित करना चाहते हैं, यह समझ नहीं आया।
आप देखेंगे कि कहानी व उसके पात्रों की रचना में ही इतना बिखराव है कि तकनीकी त्रुटियों पर ध्यान उस हिसाब से नहीं जा पाता। फिर भी यह स्पष्ट दिखता है कि वीएफएक्स का काम बचकाने ढंग से हुआ है, जिसका उपहास बच्चे भी कर सकते हैं। लंका के राक्षस पात्रों का चित्रण हॉलीवुड की पीरियड फिल्मों से प्रेरित है, इसमें कोई दो राय नहीं है। यहां तक कि परिधान, रावण का केशसज्जा, हॉलीवुड फिल्मों की तर्ज पर पात्रों को टैटू अच्छादित दिखाना, युद्ध उपकरण, स्याह रंग संयोजन भी बाहर से आयातित हैं। ग्लेडियटर से रावण का परिधान, ट्रॉय से युद्ध दृश्य, हैरी पॉटर सिरीज से मायावी पात्रों के कारनामें, मार्वेल की फिल्मों से भव्यता का अनुकरण आदि की तुलना अकारण नहीं हो रही। बिना आग के धुंआ नहीं उठता। नकल के लिए अक्ल चाहिए। कल्पनाशीलता भी मर्यादा में रहे तब ही पचता है। विशेषकर जब आप श्रीराम जैसे भारत के प्रतीक पुरुष पर कुछ रच रहे हों। इस परिस्थिति में कल्पना के साथ श्रद्धा की भी आवश्यकता होती है, जिसे आदिपुरुष वालों ने दरकिनार कर दिया। रामानंद सागर ने कल्पनाशीलता के साथ-साथ पूरी श्रद्धा से रामायण का दृश्यांकन किया था। परिणाम जगजाहिर है।
पार्श्वध्वनि ध्यान नहीं खींच पाता है, क्योंकि भड़कीले दृश्य उसपर भारी पड़ते है। हां, कुछ चीजें अच्छी भी हैं, जो टुकड़ों में अच्छी नगली हैं। जैसे एक थीम स्कोर और ‘राजा राम’ गाना आवश्य की कर्णप्रिय है। राघव का भव्य व्यक्तित्व, समुद्र पार करने का दृश्य, पर्वत उठाए बजरंग बली, लंका विजय के युद्ध दृश्यों का फिल्मांकन प्रभावी है। लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
प्रभास ने बाहुबली में जो परिश्रम किया था, उसके आधे में ही आदिपुरुष को निपटा दिया है। रावण के किरदार में सैफ की भाव-भंगिमा नाटकीयता का अतिरेक है। कृति सैनन से जितनी उम्मीद थी, उतना करके वह निकल ली हैं। बजंरग के किरदार में देवदत्त नागे के हिस्से में ऐसे संवाद आए कि उनका प्रभाव कम हो गया। हां, इंद्रजीत के किरदार में वत्सल सेठ ने प्रभाव छोड़ा है।
आदिपुरुष को बनाने वालों की नीयत पर संदेह नहीं है। लेकिन, इसका अर्थ देशभक्ति का चोला ओढ़कर किसी आराध्य को मनमाने ढंग से प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’ इस सूत्र में किसी प्रकार के संशोधन का अधिकार किसी को नहीं है। भले ही वह कितना बड़ा हिंदू या देशभक्त क्यों न हो।
लेफ्ट, राइट, सेंटर सब अपनी जगह हैं। इन सबसे पहले श्रीराम हैं। चूंकि कोई राष्ट्रवादी विचारधारा का फिल्मकार है, केवल इसलिए उसे रामायण का उपहास करने का लाइसेंस नहीं मिल जाता। अभिव्यक्ति की आजादी अपनी जगह है, लेकिन मौलिकता में मिलावट नहीं चलेगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि भविष्य में विचारधाराएं, संस्थाएं, राजनीतिक दल व उनके ध्वजवाहक आदि नष्ट हो जाएंगे। केवल एक को छोड़कर और वह हैं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम।
कुछ जनों का मत है कि फिल्म भले ही रचनात्मक व तकनीकी स्तर पर बचकाना है, फिर भी उसकी प्रशंसा होनी चाहिए, क्योंकि वह प्रभु राम पर बनी है। क्यों? आज जो बालक ‘आदिपुरुष’ को देखकर प्रभु राम को समझेगा, वह ‘लंका लगाने’ और ‘बाप की जली’ जैसे संवादों से रामायण काल को संदर्भित करेगा। उस बालक के लिए रामायण काल की भाषा और सोशल मीडिया की भाषा में अंतर करना कठिन हो जाएगा। आधुनिकता के नाम पर ऐसे बेतुके प्रयोगों से किसका भला हो सकेगा, आदिपुरुष वालों को यह भी बताना चाहिए। वह तो भला हो, रामानंद सागर जी का, जिन्होंने 36 वर्ष पूर्व एक मानक स्थापित कर दिया था। उनके कारण ही आज हम आदिपुरुष के निर्माता के स्खलन को स्पष्ट रूप में रेखांकित कर पा रहे हैं। यह सागर बाबा की श्रीराम के प्रति श्रद्धा ही है, जो कोरोनाकाल के समय रामायण धारावाहिक के पुन: प्रसारण के समय दिखी। नई पीढ़ी ने उसी चाव से अरुण गोविल के निभाए पात्र का रसास्वादन किया, जिसे 1987 में पहले की पीढ़ियों ने किया था। 2021 में दोबारा प्रसारण के बाद सोशल मीडिया पर देवी, पुत्र, तात, माताश्री, धर्म, वचन जैसे तत्सम शब्द ट्रेंड करने लगे थे। यह है इस कालजयी कृति का प्रभाव। जरा सोचिए, सागर की रामायण के समक्ष राउत की आदिपुरुष कहां टिकती है।
ओम राउत ने इससे पहले ‘लोकमान्य: एक युगपरुष’ और ‘तानाजी: दि अनसंग वॉरियर’ जैसी शानदार फिल्में निर्देशित की हैं। लेकिन, रामायण पर फिल्म बनाते समय उन्हें समझना चाहिए था कि यह ‘जस्ट ए पीरियड ड्रामा’ नहीं है। उम्मीद है कि आगे से वह तानाजी वाली सफलता दोहराएंगे।