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राबड़ी ने कुशवाहा से क्यों जताई सहानुभूति? क्या है शरद की पार्टी में विलय का सच?

पटना : बिहार में रालोसपा और उसके अध्यक्ष उपेंद्र कुशवारा इस समय बेहद हॉटकेक बने हुए हैं। हर कोई उनको अपने पाले में करने की कोशिश में लगा है। जहां राजद की तरफ से राबड़ी ने उनसे खुलेआम सहानुभूति जताई है, वहीं शरद यादव तो अपनी पार्टी और रालोसपा का विलय कर एक नए मोर्चे का संकेत भी दे चुके हैं। शरद के संकेत को आज उस समय बल मिला जब उनकी पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल के नेता उपेंद्र राय ने कह दिया कि शरद यादव और उपेंद्र कुशवाहा के रिश्ते काफी अच्छे और मजबूत हैं। बिहार की राजनीति में इस सियासी बदलाव की सुगबुगाहट और तेज करते हुए शरद की पार्टी के एक अन्य नेता अर्जुन राय ने कहा कि लोकतांत्रिक जनता दल और रालोसपा के विचारों में कोई अंतर नहीं है। यानी संकेत यही है कि उपेंद्र जहां एनडीए को दिए अपने डेडलाइन का इंतजार कर रहे हैं, यदि कुछ पॉजिटिव नहीं हुआ तो वे शरद वाला विकल्प आजमा सकते हैंं।
बिहार में शरद की पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने भी कहा कि रालोसपा से हमारी नीतियां और दिल मिले हैं। जब दिल मिले हैं, तो दल भी मिल जायेंगे। कयास लगाया जा रहा है कि दोनों दलों के विलय के बाद महागठबंधन में मजबूती के साथ दावेदारी पेश की जाएगी। मालूम हो कि सीट शेयरिंग को लेकर भाजपा से नाराज चल रहे उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए को 30 नवंबर तक का सीट शेयररिंग को लेकर फैसला लेने का अल्टीमेटम दे रखा है। इस बीच राजद सुप्रीमो लालू की पत्नी और पूर्व सीएम राबड़ी देवी ने भी कुशवाहा के मन को यह कह कर टटोला कि— उपेंद्र जी को कोई ‘नीच’ कहेगा, तो आहत होंगे ही, ऐसा नहीं बोलना चाहिए। रालोसपा अध्यक्ष ने अब तक मिलने की कोशिश नहीं की है, अगर वे हमसे मिलना चाहते हैं, तो हम उनसे अवश्य मिलेंगे। राबड़ी की उपेंद्र से इस सहानुभूति को राजनीतिक विश्लेषक एनडीए की एकता को तोड़ने के लिए महज राजद के एक प्रयास के तौर पर ही देख रहे हैं। इसमें राजद का मुख्य लक्ष्य उपेंद्र को वहां से हटाना ही है, न कि अपने साथ जोड़कर अपनी सीटें कम करवाने का। क्योंकि उपेंद्र महागठबंधन में भी बड़ी कीमत वसूलना चाह रहे हैं।
बहरहाल कुशवाहा को लेकर बिहार में सियासत चरम पर है। लेकिन अहम बात यह है कि क्या उनके साथ वास्तव में उनके लोग हैं भी या नहीं? कहीं कुशवाहा महज दूर के ढोल तो नहीं रह गए हैं, जो सुनाई तो देता है पर हकीकत में उसका वजूद रहस्य ही बना रहता है। साफ है कि कुशवाहा द्वारा उनके खुद के समाज के वोट टर्नआउट को लेकर भी राजनीतिक दलों में संशय की स्थिति बनी हुई है।